आईना देखकर हम संवरते है,
उसके पीछे सच से छिपते है
बहुत कुछ बंया करता है आईना
मगर हम सिर्फ शक्ल देखतें है।
जिस दिन आईना को पढ़ लिया
उस दिन जीवन का सार समझ लिया
दीवार पर लटके आईना सब देखते हैं
अन्तर्मन का आईना को सब छुपाते है।
हर रोज आईना की धूल साफ करते है,
मन में द्वेष भरे धूल ग्रस्त आईना को
सामने दीवार पर लटके आईना में खोजते है
वह भी सब कुछ बयां करता है हमसे
अहम के आगे उसे स्वीकार नहीं करते।
आईना के सच को समझ लिया तो
कांच पर कभी विश्वास नही आयेगा
मन के भाव को धूल धुसित कर देखो
परछाई का रंग भी सफेद नजर आयेगा।
हरीश कंडवाल मनखी की कलम से।