वही मील के पत्थर साबित हो जाते है
शीत गर्म दोनो का वह अहसास कराते हैं
कभी राह मुश्किल कभी आसान बनाते हैं।
पथ के पत्थर ठोकर खाकर गिराते है
कभी गिरकर भी अक्ल ठिकाने लगाते हैं
पाषाण बनी अहिल्या का तप दिखाते हैं
कभी गुफा बनकर मुचकुन्द को मुक्ति देते हैं।
कभी मूर्ति बनकर यह तराशे जाते हैं
मंदिर मे भगवान बनकर पूजे जाते है
कभी दीवार बनकर मका बनाते हैं
धरा पर जीवों का आसरा बन जाते है।
मानव का इतिहास यह अंकन कराते हैं
मानव समाज को आग जलाना बताते हैं
कभी पत्थर दिल बेरहम को रहम कराते हैं
यह राह के पत्थर अक्सर अक्ल सिखाते है।।
हरीश कंडवाल मनखी की कलम से।