यह गंगा नदी का तीर है, वर्षा के बाद की तस्वीर है
हमने गंगा को दिया ये प्यार, उन्होंने लौटाया उपहार।
ये गंगा नदी है, सबके पापों को धुलती फिरती है
पूरे शहर का मलवा, अपने सिर पर ढोती रहती है।
गंगा को माँ कहकर स्नान करके पवित्र बनते फिरते हैं,
उसी माँ के आँचल को हम खुद ही तो अशुद्ध करते है।
जन्म मरण में सब गंगा जल पीकर शुद्ध बन जाते हैं,
कुंभ स्नान करके हमारे किये, श्वेत अपराध धूल जाते है।
गंगा की सफाई के नाम कागजो में प्रोजेक्ट बन जाते हैं
कुछ कूड़ा हाथ मे लेकर, तस्वीरों में गंगा पुत्र बन जाते हैं।
प्रकृति और गंगा ने हमारे लिए यह संदेश भिजवाया है,
जिसने जो बोया है, प्रकृति ने हमे वैसे ही लौटाया है।
नदियों की बहती मौन आवाज, जब मुखर हो जाती है
अपने तन बदन को साफ करने,वह प्रलय लेकर आती है।
अब भी चेत जाए, नदियों की सिसकती आवाज सुनले,
कब ये सिसकारी उनकी, मानव की चीत्कार में बदल दे।
©®@#हरीश कंडवाल मनखी की कलम से।