पुरुष
पुरुष स्वभाव से निष्ठुर औऱ निर्दयी नहीं होता
बल्कि उसको ऐसा समाज द्वारा बनाया जाता हैं
तुम पुरुष हो, तुम रो नहीं सकते, तुम टूट नहीं सकते
तुम अपने मन के भाव को जाहिर नहीं कर सकते।
वह भी निर्मल, कोमल, ममत्व, वाला होता है
उसके अंदर भी मानवता, सरलता होती हैं
उसको भी हँसना, रोना, खोना, पाना आता है
उसको भी अपने मनोभाव को दिखाना आता हैं।
टूटकर बिखर ना जाये कहीं रिश्तों की डोर
अपने अंदर कई तूफ़ानो को समेटे रखता हैं
ममत्व के भावों में आकर कहीं बह ना जाये
वह अपने आंसुओ के समुन्द्र को रोके रखता हैं।
अपनो के आराम के लिए, अपना आराम भूल जाता हैं
अपनों की जरूरत के लिए, अपनी जरूरत भूल जाता हैं
माँ बाप पत्नी बच्चों की ख़ुशी के लिए, हर गम भूल जाता हैं
थके हुए आकर भी वह, बच्चों के लिए खिलौना बन जाता हैं।
अपना सब कुछ खोकर भी वह, निष्ठुर निर्दयी कहलाता हैं
पूरी जिंदगी रिश्ते निभाते निभाते वह बेचारा बन जाता हैं
घर परिवार की जरूरत के लिए वह खुद बिक जाता हैं
ममताहीन, वातसल्य विहीन बनकर खलनायक बन जाता हैं।
माँ बाप, बहिन पत्नी, औलाद, सबकी भली बुरी सुनता हैं
अपनी मन की बात, क्या कहनी यह कहकर चुप हों जाता हैं
तुम मर्द हो, रो नहीं सकते, तुम पुरुष हो झुक नहीं सकते
यह सुनकर वह अश्रुहींन, औऱ पहाड़ जैसा बन जाता हैं।
उसके अंदर भी प्रेम, करुणा भाव का भव सागर होता हैं
उसको भी रिश्तों की पहचान,अपनों का सम्मान आता हैं
बस फर्क इतना होता हैं, वह कहता औऱ दिखाता कुछ नहीं
अंदर से निर्मल जल, बाहर से नारियल सा कठोर होता हैं।
हरीश कंडवाल मनखी की कलम से।