मैं भी कभी पौधा था
जिसे पशुओं ने रौधा था
फिर डाल बनकर लहराया
मुझसे मवेशियों ने चारा पाया।
मेरी सुंदर शाखाये मेरी शान थी
मेरी हरी पत्तियां मेरी बान थी
मेरी जड़े मेरा तना मेरी अभिमान थी
मेरी शुद्ध हवा, वातावरण की पहचान थी।
एक दिन गिर पड़ा मैं लड़खड़ाकर
ले गए कुल्हाड़ी से मेरी शाखा काटकर
तना छोड़ गए वो बेजान समझकर
अब मैं अनाथ पड़ा रहा इस धरा पर।
धरा पर गिरकर चींटियां को आश्रय दिया
कभी कीट पतंगों का ग्रास बन गया
दीमकों को तो शिल्पकार बना दिया
जिन्होंने मेरे कुरूप को सुंदर सा स्वरूप दिया।
अब मैं सूखी लकड़ी नही एक कलाकृति हूँ
मैं इस जगत के सच की अभिव्यक्ति हूँ
समझने वाले बेकार लकड़ी समझे या फिर कला
कर भला तो हो सबका अंत भला।
अब मैं रूप हूँ चाहे कुरूप हूँ
इस जगत का ही एक स्वरूप हूँ
मैं जीवन के सत्य का बहुरूप हूँ
मैं इस धरा का नया प्रतिरूप हूँ।।
हरीश कंडवाल मनखी की कलम से।।