ऐ दिलरुबा तुम समझती क्यों नहीं
मेरे इस दिले जज़्बात को,
तुम्हे भी हमसे प्यार हैँ,
बताती क्यों नहीं
अपने इन मीठे लफ्जो से,
हर बार तुम्हे समझाते गये,
अपनी दिल की बात,
तुमसे कहते गये।
हम तुम्हे आज भी चाहते हैँ,
हर बात पर तुम्हे,
यें अहसास कराते गये
लेकिन तुमने सुना,
कहा क़भी कुछ नहीं
औऱ हम हर बार तुम्हारी
हाँ का इंतज़ार करते गये।
सात साल बीत चुके हैँ, तुम्हारी
प्यार की दास्ताँ सुनने के लिए
हम तपस्वी बन चुके हैँ
तुम्हे पाने के लिए।।
इन चार सालों में
अनेको अनचाहे मोड़ आये
तुमको भुलाने के लिए
प्यार के कई तूफान आये
हमको तुमसे जुदा करने के लिये
लेकिन फिर भी नहीं बुझा
प्यार का वह चिराग
चाहे मुझको बहकाने के लिए
हजारों बहाने आकर चले गये।
तुम भी जानते हो कि हम तुम्हारे हैँ
तुम भी मानते हो कि तुम हमारे हो,
लेकिन वों कौन सी मज़बूरी हैँ
जो तुमको खुलकर कहने से रोकती हैँ
वह कौन सी बात हैँ जो.
तुम्हे हमसे इकरार करने से रोकती है
उस बात को हमें बता दो एक बार
फिर यें दुनिया कैसे तुमको
हमारा बनाने से रोकती हैँ।
अगर नहीं तुमको हमारा साथ स्वीकार
तो कर लो अभी भी प्यार से इंकार
लेकिन इंकार भी तो कैसे कर पाओगी
हम जानते हैँ कि तुम भी हमारे बिना जी नहीं पाओगी।
हमारी हर बात तुम्हे याद आती रहेगी
हमारे साथ क्यों कि वफ़ा तुम्हे तड़पाती रहेगी
अब ना तड़पाओ इतना हमको
अब देर बहुत हो चुकी हैँ
एक बार अपनी मुस्कराहट से
तुम भी कह दो कि, प्यार हैँ हमको तुमसे।
हरीश कंडवाल मनखी कि कलम से।