प्रकृति तेरे अनेक रूप
कभी बदरिया को बरसाये
कभी चमकाये जेठ की धूप
कभी कंपकंपाती रूह की शीत
प्रकृति तेरे अनेको है रूप।
बसत में वसुंधरा आहे हरी चादर
ग्रीष्म में छाई उदासी भरा रुखापन
वर्षा में बादल बरसले आसमा से अश्रु बन
धरती गगन का प्रकृति से होता मिलन।
शरद ऋतु में फसलों की देती प्रकृति उपहार
शरद की चाँदवी के चाँद का बरसता प्यार
दशहरा, करवा चौथ का मनाते सब त्योहार
फूलों से सजी वसुंधरा लगे जैसे दुल्हन ने कियो हो श्रृंगार ।।
प्रकृति देती हेमन्त ऋतु में सर्द की दस्तक
खेतों से आती धान की भीनी भीनी महक
दीवाली और ईद का छाया रहता उलार
शबनम की बूंदों से छलकता प्रकृति का धरती पर प्यार।
शिशिर ऋतु में काँपती सबकी काया
चारों ओर घना कुहांसा रहता छाया
मंद मंद हिम कणुवो की चलती शीतल लहर
पौष माघ की वो गुनगुनी सी दोपहर ।
कल कल बहती नदिया झर झर करते झरने
पेड़, पौधे झाड़ियां ये जैसे हो धरती के गहने
पर्वत मैदान पठार, ककण पत्थर ये तेरे स्वरूप
वाह रे प्रकृति तेरे कितने कितने अनोखे रूप ।।
मनखी की कलम से।