सियासत के रंग बदल जाते हैँ
अपने गैर और पराये अपने हो जाते हैँ
यँहा हर कोई सीढ़ी समझकर चढ़ते है
अपनों क़ो ही कुचलकर आगे बढ़ते हैँ।
सियासत का नशा ही ऐसा है ,
हर रोज पासे फेंक
नई चाले चलते हैँ
अपने क़ो युधिष्ठिर कहते हैँ।
लाखों गुनाहों का इल्जाम हैँ सर पर
खुद क़ो सियासतकर पाक साफ समझते हैँ।
यह तो दरिया ही नमक हरामी का हैँ
खुद क़ो ईमानदार बादशाह कहते हैं।
छल प्रपंच साम दाम
दंड भेद की नियति जिनकी
वह खुद क़ो जन सेवक कहते हैं।
स्वयं के लिए सब सुख हो
औरों का सिर्फ आश्वासन मिलते हैं
सियासत के रंग हर पल बदलते हैं।