हर किसी को पीछे से देखा
तो लगा कि वह तुम ही हो
जब वो मेरे सामने आए तो
देखा को वह तुम ही नही हो।।
तुम कही से आवाज दोगे हमको
तुम कही से दिखाई दोगे हमको
हम हर किसी मे ढूंढते रहे तुमको
लेकिन तुम कही नज़र नही
आये इन बेताब निगाहों को।।
कहने को देखने को लगा था मेला
लेकिन तुम बिन मैं था वहाँ अकेला
उस भीड़ में भी हम तन्हा थे
उन प्रेम दीवानों के बीच हम तन्हा थे।।
मचलती कड़कती धूप में भी
हम पत्थरो पर भी ठोकर खाकर तुम्हे ढूंढते रहे
कभी इस तरफ कभी उस तरफ
कभी इस पार तो कभी उस पार
कभी सजी दुकानों के सामने तो
कभी रास्ते चलते राहगीरों की राह पार।।
कभी पेड़ो की छांव में कभी नदी के तीर पर।।
हर कोने कोने भटकते रहे
ये सोचकर कि तुम यहाँ नही तो वहाँ जरूर होंगी
हमको इस तरफ नही तो उस तरफ मिल जाओगी
तुमको ढूंढते ढूंढते शाम ढल चुकी थी
बहते अश्रु की धारा सुख चुकी थी।।
राहगीर अपने अपने घरों के लिए चल पड़े थे
लेकिन हम खड़े खड़े तुम्हारी राह देख रहे थे
क्यों तुम नही आये यही हम सोचते रहे
कभी तुम्हारी मजबूरी सोचकर
तुम्हे वफ़ा ठहराते रहे
तो कभी अपने तड़पते दिल को
देखकर तुम्हारा हमे तड़पने का
शौक देखकर तुमको हम बेवफा नाम देते रहे।।
तुम्हारा ना आना कोई मजबूरी था या मर्ज़ी
यह तो हम नही जानते
तुम क्या जानो हमारा हाल क्या था
जैसे तपती धूप में किसी प्यासे को
मृगतृष्णा को पानी न मिलने का मलाल था
या जैसे अमावस की काली रात को
चमकती चाँदनी का इंतज़ार था।।
हम तो दीवानों की तरह चले थे
इतनी दूर से एक झलक तुम्हारी पाने को
आँखो में हज़ारों ख्वाब लिए
मन मे अनेक बात लिए
लेकिन जब तुम नही आये तो
यह सब कांच के टुकड़ों की तरह बिखर गये
ओर हम इन बिखरे ख्वाबों को
लेकर तन्हा वापस लौट आये।।
(अपनी डायरी के पन्नो से)
©® @ मनखी की कलम से✒