अफगानिस्तान में अमेरिकन विदेश नीति की हार
डॉ शोभा भारद्वाज
सोवियत यूनियन के टूटने के बाद अमेरिकन विदेश नीति अपने को अकेली महाशक्ति दिखाना एवं प्रजातंत्र का समर्थक सिद्ध करना चाहता था अमेरिकन शक्ति का प्रदर्शन अत्याधुनिक हथियारों खतरनाक बमवर्षक विमानों द्वारा कर सकता है जहाँ पैर रखता है वहां विध्वंस मचा सकता है उसकी शक्ति एवं हथियारों की मार्किटिंग भी हो जाती लेकिन जहाँ सैन्य बळ की जरूरत होती है वहाँ ? जनता को अमेरिकन का शव मंजूर नहीं है बेशक दूसरों की धरती पर यद्ध लड़ा जाये क्षति होती है ,इसका नमूना वियतनाम , सीरिया और अब अफगानिस्तान में देखा जा सकता है अमेरिकन सैनिक अफगानिस्तान की धरती पर शहीद हुए , अमेरिका में विरोध शुरू हो गया पूर्व राष्ट्रपति ट्रम्प भी चाहते थे अफगानिस्तान को अफगानी सेना के हवाले कर दिया जाये , 20 साल की इस लड़ाई में अमेरिका ने 2 ट्रिलियन डॉलर, यानी करीब 150 लाख करोड़ रुपए खर्च किये ,उस दौरान 2400 अमेरिकी और दूसरे देशों के करीब 700 सैनिक मारे गए। 60 हजार अफगान सैनिक शहीद हुए देश की रक्षा में शहादत देना गर्व की बात है , 40 हजार नागरिकों समेत कुल एक लाख अफगानी इस लड़ाई में जान गंवा चुके हैं | जिस तरह राष्ट्रपति बाईडन ने अमेरिक सैनिको को उठा लिया दुखद है अमेरिका में भी अब उनका विरोध हो रहा है |अफगान सेना के पास सैन्य शक्ति की कमी नहीं थी लेकिन समुचित ट्रेंनिग एवं हौसले का अभाव था जबकि 20 वर्ष से यहाँ अमेरिकन सैनिक तैनात थे परन्तु अफगान सुरक्षा बल को उचित रणनीति की ट्रेनिंग नहीं दे सके|
अब तालिबानियों को अत्याधुनिक हथियारों का जखीरा प्राप्त हो गया , अमेरिकन बम वर्षक विमान मिल गये .उनके साथ ट्रेंड पाकिस्तानी लड़ाके एवं जनून था इतनी जल्दी काबुल पर अधिकार हो गया हैरानी होती है अफगानिस्तान के राष्ट्रपति एवं महत्वपूर्ण सांसद आधिकारी तालिबानों के भरोसे देश छोड़ कर चले गये अफगानी नागरिक को समझ नहीं आ रहा वह क्या करें ?उनका तालिबानों का पुराना अनुभव बहुत भयानक है ?
उन्हें एक ही रास्ता सूझ रहा है किसी भी तरह अपनी मातृभूमि त्याग कर दूसरे मुल्कों में शरण ले लें आगे क्या होगा ? अभी तालिबानी नेतृत्व विश्व के सामने अच्छी छवि पेश कर रहा है उन्हें विश्व बिरादरी द्वारा मान्यता , इस्लामिक देशों का समर्थन ,अपने को मजबूत करने के लिए आर्थिक मदद चाहिए चीन मदद के लिए तैयार उसकी नजर धरती के अंदर खनिज पर है लेकिन उसकी मदद बहुत महंगी पड़ती है | अफगानियों को प्रजातांत्रिक व्यवस्था की आदत पड़ गयी है वह हतप्रभ है क्या करें महिलाओं पर शरिया कानून लागू किया जाएगा वह पढ़ी लिखी है नौकरी करती है अब घर की दहलीज पार करना मुश्किल हो जाएगा | तालिबानी नेतृत्व जानता है दीन की सियासत के द्वारा एवं शरिया के नाम पर अफगानिस्तान पर स्थायित्व बना लेंगे |
अफगानी कबीले आसानी से कब्जे में आने वाले नहीं रहे हैं | आज कल सोशल मीडिया का जमाना है खबरें बाहर निकल रही हैं कुछ समय बाद अफगानिस्तान के द्वार वाह्य दुनिया के लिए बंद हो जायेंगे वह आतंकित अफगान जनता को पाशविक शक्ति से दबा लेंगे न दाद न फरियाद लेकिन अफगानी एक बहादुर कोम है कई शक्तियाँ ने साम्राज्य स्थापित करने की कोशिश की अफगानिस्तान उनकी कब्र गाह बन गये |
दिसम्बर 25 , 1979 में रशिया ने अफगानिस्तान में प्रवेश किया एवं सोवियत संघ के समर्थन से कम्यूनिस्ट सरकार का गठन हुआ रूस को जर्मन डेमोक्रेटिक रिपब्लिक पार्टी का समर्थन भी प्राप्त हुआ था उस समय के आतंकी संगठन अफगान ‘मुजाहद्दीन’ थे अमेरिका चाहता था पाकिस्तान अफगान मुजाहिदीनों की सहायता करे | जिया –उल हक ने मौके का लाभ उठाया अमेरिका ने भी इस Proxy War के लिए जम कर सहायता की | पैसा मिला आधुनिक हथियार और अत्याधुनिक स्ट्रिंगर मिसाइल भी मिली यूनाइटेड किंगडम, पाकिस्तान, सऊदी अरब, इजिप्ट और चीन के साथ ही जर्मनी का समर्थन मिला कोल्ड वार का युग था रूस को आखिर में हार माननी पड़ी थी और तब जाकर युद्ध खत्म हुआ था. साल 1989 में सोवियत सेनाओं ने इस देश को छोड़ दिया लेकिन नजर अफगानिस्तान पर रही है उन्हें भय था आतंकी एवं जनूनी बयार पड़ोसी इस्लामिक देशों में न फैलने लगे |
मुल्ला मुहम्मद उमर ने तालिबान की नीव रखीं सऊदी अरब ने नींव रखने में उसकी मदद की~ तालिबान , तलबा इसका अर्थ पश्तो में छात्र है तालिबान कट्टरपंथी इस्लामिक राजनीतिक आन्दोलन है 1990 से लोगों को इस्लामिक मदरसों में भेजना और सुन्नी इस्लाम की कट्टर मान्यताओं का प्रचार करना ही आन्दोलन का मकसद था. छात्रों की पढ़ाई का ख़र्च सऊदी अरब उठाता था जबकि तालिबान की जन्मभूमि पाकिस्तान है.तालिबान ने अफगानिस्तान और पाकिस्तान के कुछ हिस्सों में शांति, सुरक्षा और शरिया क़ानून की स्थापना का वादा किया और सत्ता के लिए उनका नया संघर्ष शुरू हो गया. वर्ष 1996 आते-आते तालिबान ने काबुल पर क़ब्ज़ा कर लिया
तालिबान ने वर्ष 1996 से वर्ष 2001 तक अफगानिस्तान पर शासन किया. दुनिया के केवल तीन देशों ने तालिबान सरकार को मान्यता दी थी पाकिस्तान, सऊदी अरब और यूएई |
अलकायदा यह बहुराष्ट्रीय उग्रवादी सुन्नी इस्लामिक संगठन है इसकी स्थापना ओसामा बिन लादेन द्वारा की गयी उद्देश्य अफगानिस्तान पर सोवियत सेना के आक्रमण का विरोध करना था यह इस्लामी कट्टरपंथी सलाफ़ी जेहादियों का जालतंत्र है यही से 11 सितम्बर 2001 आतंकवादी संगठन अल कायदा ने अमेरिका के वर्ल्ड ट्रेड सेंटर पर हमला किया, तब अल कायदा को ओसामा बिन लादेन अफगानिस्तान की ज़मीन से ही ऑपरेट करता था.यही कारण था ओसामा को दंडित करने के लिए, जिस तालिबान को अमेरिका पैसा और हथियार दोनों देता था, उसके ख़िलाफ़ युद्ध छेड़ना पड़ा क्योकि उस समय तालिबानी प्रशासन ने ओसामा को सोंपने के लिए मना कर दिया 9/11 आतंकवादी हमलों के मास्टरमाइंड ओसामा बिन लादेन को अमेरिकी कमांडों ने मई 2011 में उसके घर के भीतर घुसकर मार गिराया था। लादेन का खुफिया घर पाकिस्तान के एबटाबाद इलाके में मौजूद था। उस वक्त बराक ओबामा अमेरिका के राष्ट्रपति थे।
जब अफगानिस्तान में तालिबान पनप रहा था उस समय जेहाद और इस्लाम के नाम पर तालिबान ने पाकिस्तान और वहां के आतंकवादी संगठनों की खूब मदद की थी और कई हमलों में अपने आतंकवादियों को भी कश्मीर में भेज कर कश्मीर की धरती को खून से रंगा |अफगानिस्तान में तालिबान की सरकार थी तब वहां से भारत के ख़िलाफ़ कई साज़िशें रची गईं, इनमें 24 दिसम्बर 1999 में हुई कंधार हाईजैक की आतंकी घटना सबसे प्रमुख है.एयर इंडिया का यात्री प्लेन कंधार में उतारा गया तालिबान ने इन आंतकियों को पूरी सुरक्षा दी इसके बदले में मसूद अजहर समेत तीन आतंकियों को रिहा करना पड़ा | तालिबान ने बाम्यान में बुद्ध की प्राचीन और सबसे बड़ी प्रतिमा को भी तोपों से तोड़ दिया था |इसके साथ तालिबान की सत्ता के पतन की गिनती शुरू हो गयी |
2018 में अमेरिका और तालिबान में सीधी शांति-वार्ता शुरू हो गयी इसमें अफगान सरकार को शामिल नहीं किया गया । अफगानिस्तान में जार्ज बुश ने अपनी ताकत झोंक दी थी, 2020 में उसी अमेरिका के राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने तालिबान से समझौता कर लिया। दोहा डील के नाम से चर्चित यह समझौता 29 फरवरी 2020 को हुआ था। कतर की राजधानी दोहा में अमेरिका और तालिबान ने अफगानिस्तान में शांति के लिए एक समझौते पर हस्ताक्षर किए |फौज वापसी के लिए तालिबान से ट्रम्प सरकार ने समझौते में दो खास शर्तें भी रखी थीं। पहली-तालिबान हिंसा कम करेगा और दूसरी-तालिबान और अफगान सरकार के बीच बातचीत की शुरुआत होगी। राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने कहा था, "इतने सालों के बाद हमारे लोगों के घर वापस लाने का समय आ गया है." बाइडेन ने जब अफगानिस्तान से अमेरिका की सेना की पूरी वापसी की घोषणा की उसमें इन शर्तों का जिक्र नहीं है | उन्होंने समझौते को स्वीकार कर लिया आखिर अमेरिका और नाटो ने अफगानिस्तान से वापसी शुरू कर दी।
सोवियत संघ की तरह अमेरिका को बिना कुछ हासिल किए अफगानिस्तान से जाना पड़ेगा यह अमेरिकन विदेश नीति की पराजय है | अमेरिकी हस्तक्षेप का अंत हो गया तालिबान ने पैर पसारना शुरू किया धीरे धीरे अफगानिस्तान पर उनका अधिकार होता गया राजधानी काबुल में अफगानी सेना ने बिना लड़ें हथियार डाल दिए राजधानी काबुल पर तालिबानियों का अधिकार है अफगानी तालिबानियों के भय से किसी भी कीमत पर स्वदेश पलायन करना चाहते हैं अफगानिस्तान पर तालिबानी स्थायी कब्जा कर सकेंगें अभी कहना मुश्किल है |
मौलिक
खतरनाक खैबर दर्रा यहाँ से आक्रमणकारी आ कर भारत भूमि को रौंदते थे