सन्नाटों के बिंदास सुर तलाशती हूं...
हूं भी या माजी की शादाब मुहर भर हूं,
किससे पूछूं, उसको अक्सर पुकारती हूं...
रोने के सुकूं से जब घुट जाती हैं सांसें,
मुस्कुराहट का अदद दस्तूर तलाशती हूं...
फलक-ओ-जमीं से फुर्कत का सबब लेती हूं,
लिपट के उससे रोने के बहाने तलाशती हूं...
खुशबू की तरह थी मैं उसके दस्ते-दुआ में,
आरती की थाल में उसकी आमद संवारती हूं...
रंगो-बू से उपर, क्यूं उठती नहीं ये फितरत,
ये धुआं कहां से उठता है, अक्सर तलाशती हूं...!