जैसे हुआ करती हो,
जिसकी जिद करती हो,
वजूद से जूझती फिरती हो,
अपने सही होने से ज्यादा
उनके गलत होने की बेवजह,
नारेबाजियां बुलंद करती हो,
क्या चाहिये से ज्यादा,
क्या नहीं होना चाहिए,
की वकालत करती फिरती हो,
अपनी जमीन बुलंद भी हो मगर,
उनके महलों को मिटा देने की,
नीम-आरजूएं आबाद रखती हो,
मंजिलों की मुरादों से इतर,
राहें अपने नाम करने की,
सिफारिश करती रहती हो...।
... तुम जो भी हो,
जैसे भी हुआ करती हो,
बहुत अच्छी दिखती हो,
सचमुच कमाल करती हो,
जब अल्फाज़ गुनहगार खड़े हैं,
एक तुम्ही हो जो सवाल करती हो...
यकीनन, लाजवाब हो, कमाल करती हो!