शकुन मिलता है।
शाम सड़क में खड़ी काम से, हरी थकी औरत।
निहारती अपने घर जाने वाली हरी लाल बस को।
देख उसे वह भागती कि चढ़ जाऊंगी अपनी बस में।
बस भी मजबूर, चढ़ाती वह भी गिनती की सवारी।
जहाँ में फैली थी, कोरोना की बीमारी संग महामारी।
चढ़ जाती जो वह औरत बस में एक शकुन सा पाती।
ले गुलाबी टिकट हो उन्मुक्त सफर में अपनी शीट हथियाती।
बैठ शीट में वह अपने स्टैंड, आने के इंतजार में नज़र गढ़ती।
बड़ा शकुन मिलता है उसे, जब वह अपने नन्हे से बच्चे को सीने से लगाती।
वह दर्द सब भूल जाती है, जब मुफ्त में सफर कर
घर आती।