बहुत बोलती थी वो...
बोलती भी क्या थी
मुट्ठी में सच तौलती थी
तसव्वुर में अफसानों पर
हकीकत के रंग उडेलती थी
अल्हड़ थी वो नामुराद
अरमानों से लुकाछिपी खेलती थी
छू के मुझको सांसों से
अहसासों के मायने पूछती थी
गुम हो कर यूं ही अक्सर
अपनी आमद बुलंद करती थी
दस्तूर से नावाकिफ तो न थी
मगर, बेहिचक सवाल करती थी
उजालों को नंगा खड़ा कर के
अंधेरों को संवारा करती थी
बहुत बोलती थी वो, मगर, फिर भी
अरमानों को खामोश रखा करती थी...
# Tribute To Womanhood