महाराष्ट्र में सतारा के निकट वाई नाम का एक गाँव है। पेशवा के राज्यकाल में वहाँ कृष्णराव ताँबे को एक ऊँचा पद प्राप्त था। कृष्णराव ताँबे का पुत्र बलवंतराव पराक्रमी था। उसको पेशवा की सेना में उच्च पद मिला। बलवंतराव के दो लड़के हुए—एक मोरोपंत और दूसरा सदाशिव। ये दोनों पूना दरबार के कृपापात्रों में थे।
उस समय पेशवा बाजीराव द्वितीय पूना में रहते थे। सन् १८१८ में अंग्रेजों ने पेशवाई खत्म करके बाजीराव को आठ लाख रुपया वार्षिक पेंशन और बिठूर की जागीर दी। बाजीराव ब्रह्मावर्त (बिठूर) चले आए। बाजीराव के निज भाई चिमाजी आप्पा साहब थे। वे बनारस चले गए। मोरोपंत ताँबे पर चिमाजी की बड़ी कृपा थी। मोरोपंत मोरोपंत मनूबाई के पिता थे।
मोरोपंत की पत्नी का नाम भागीरथीबाई था—सुशील, चतुर, रूपवती।
मनूबाई कार्तिक वदी १४, संवत् १८९१ (११ नवंबर, सन् १८३६) के दिन काशी में इन्हींसे उत्पन्न हुई थी।
चिमाजी का शरीरांत हो गया। मोरोपंत को अपने कुटुंब के पालन के लिए कोई सहारा काशी में नहीं दिखाई पड़ रहा था। बाजीराव ने उन्हें काशी से बिठूर बुला लिया। मोरोपंत पर बाजीराव की भी बहुत कृपा रही।
मनूबाई चार वर्ष की ही थी, जब उसकी माता भागीरथीबाई का देहांत हो गया। मनू के पालन-पोषण और लाड़-दुलार का संपूर्ण भार मोरोपंत पर आ पड़ा। मोरोपंत ने मनू को बहुत प्यार के साथ पाला, लड़के से बढ़कर।
मनू इतनी सुंदर थी कि छुटपन में बाजीराव इत्यादि उसको स्नेहवश ‘छबीली’ के नाम से पुकारते थे।
बाजीराव के अपनी कोई संतान न थी, इसलिए उन्होंने नाना धोडूपंत नाम के एक बालक को गोद लिया। नाना तीन भाई थे नाना, बाला और रावसाहब। बाला उस समय बिठूर में न था। छोटा सहोदर रावसाहब था।
मनू और ये दोनों लड़के साथ खेलते, खाते और पढ़ते थे। मलखंब, कुश्ती, तलवार, बंदूक का चलाना, अश्वारोहण, पढ़ना-लिखना इत्यादि सब इन तीनों ने छुटपन से साथ-साथ सीखा। मनू चपल, हठीली और बहुत पैनी बुद्धि की थी। कम आयु की होने पर भी वह इन हुनरों में उन दोनों बालकों से बहुत आगे निकल गई। स्त्रियों की संगति कम प्राप्त होने के कारण वह लाज-संकोच की अतीव दबन और झिझक से दूर हटती गई थी।
नाना आठ लाख वार्षिक पेंशन अपने और अपने भाइयों की परंपरा के जीवन-सुख के लिए काफी से अधिक समझता होगा। बाजीराव को पेंशन उसको और उसके कुटुंब के लिए दी गई थी। बिना किसी प्रयत्न के आठ लाख वार्षिक मिलते जाएँ तो फिर किस महत्त्वाकांक्षा की जोखिम के लिए और अधिक हाथ-पैर हिलाए जाएँ?’
मनूबाई ऐसा नहीं सोचती थी। छत्रपति शिवाजी इत्यादि के आधुनिक और अर्जुन-भीम इत्यादि के पुरातन आख्यानौं ने मनू की कल्पना को एक अस्पष्ट और अदम्य गुदगुदी दे रखी थी।