थोड़ी देर में घंटा बजाता हुआ हाथी लौट आया। मनू दौड़कर बाहर आई। एक क्षण ठहरी और आह खींचकर भीतर चली गई। नाना और राव, दोनों बालक, अपनी जगह चले गए। बाजीराव ने नाना को पुचकारकर पूछा, ‘दर्द बढ़ा तो नहीं ?’
‘नहीं बढ़ा,’ नाना ने उत्तर दिया, ‘अच्छा लग रहा है। मनू कहाँ गई ?’
बाजीराव ने कहा, ‘भीतर होगी।’
रावसाहब- ‘उसे बुरा लगा होगा। नाना ने साथ नहीं लिया, मैंने तो कहा था।’
नाना- ‘वह मुझको सवेरे से चिढ़ा रही थी।’
बाजीराव- ‘क्या ? कैसे ?’
नाना- ‘उसका स्वभाव है।’
कुछ क्षण उपरांत मनू आ गई।
नाना ने हँसते हुए कहा, ‘छबीली, तुम क्या कोई ग्रंथ पढ़ रही थीं ?’
मनू जल उठी। बोली, ‘मुझसे छबीली मत कहा करो।’
नाना ने और भी हँसकर कहा, ‘क्यों नहीं कहा करूँ ? यह तो तुम्हारा छुटपन का नाम है।’
मनू की आँखें लाल हो गईं। बोली, ‘मुझको इस नाम से घृणा है।’
नाना गंभीर हो गया। बोला, ‘मुझको तो यही नाम सुहावना लगता है। छबीली, छबीली।’
‘इस नाम को कभी नहीं सुनूँगी।’ कहकर मनू वहाँ से जाने को हुई। बाजीराव ने उसको पकड़ लिया। मनू ने भागना चाहा। न भाग सकी। तब नाना ने भी पकड़ लिया।
‘क्या मनू बुरा मान गई ?’ नाना ने स्नेह के साथ पूछा।
मनू होंठ सिकोड़कर, रुखाई के साथ बोली, ‘अवश्य। आगे इस नाम से मेरा संबोधन कभी मत करना।’
इसी समय पहरेवाले ने बाजीराव को सूचना दी, ‘झाँसी से एक सज्जन आए हैं। नाम तात्या दीक्षित बतलाते हैं।’
नाना बोला, ‘मनू, एक से दो तात्या हुए।’
मनू का क्षोभ घुला। बाजीराव ने प्रहरी से झाँसी के आगंतुकों को बैठाने के लिए कह दिया।
मनू ने कहा, ‘झाँसीवाला कुश्ती लड़ता होगा ?’
रावसाहब- ‘झाँसी में कोई बाला गुरु होंगे तो कुश्ती का भी चलन होगा ! वह तो राज्य ठहरा।’
नाना- ‘बड़ा राज्य है ?’
बाजीराव- ‘बड़ा तो नहीं है, पर खासा है। हमारे पुरखों का प्रदान किया हुआ है, जानते होगे।’
रावसाहब- ‘अपने को फिर नहीं मिल सकता ?’
मनू- ‘दान किया हुआ फिर कैसे वापस होगा।’
बाजीराव- ‘हाँ, वापस नहीं हो सकता। झाँसी के राजा हमारे सूबेदार थे। इस समय अपना बस होता तो झाँसी में हम लोगों का काफी मान होता। परंतु झाँसी तो बहुत दिनों से अंग्रेजों की मातहती में है।’
मनू-‘ग्वालियर, इंदौर, बरोदा, नागपुर, सतारा इत्यादि होते हुए भी थोड़े से अंग्रेजों ने आप सबको दबा लिया !’
बाजीराव- ‘यह मानना पड़ेगा कि वे लोग हमसे ज्यादा चालाक हैं। हथियार उनके पास अधिक अच्छे हैं। शूरवीर भी हैं और भाग्य उनके साथ है। और आपसी फूट हमारे साथ।’
मनू- ‘दादा, क्या भाग्य में शूरवीर होना लिखा रहता है ? यदि ऐसा है तो अनेक सिंह सियार होते होंगे और अनेक सियार सिंह।’
बाजीराव- ‘जब सियार पागल हो जाता है तब सिंह भी उससे डरने लगता है।’
मनू- ‘वह भाग्य से पागल होता है अथवा और किसी कारण से ?!’
बाजीराव हँसने लगे।
इसी समय मोरोपंत ने आकर कहा, ‘दादा साहब, तात्या दीक्षित झाँसी से आए हैं।’
बाजीराव बोले, ‘मैंने उनको बिठला लिया है। यहीं ठहरने, भोजन इत्यादि का प्रबंध कर दिया जावे।’
मोरोपंत ने कहा, ‘तात्या मुझको एक बार काशी में मिले थे। यात्रा के लिए गए हुए थे। विद्या-विदग्ध हैं, सज्जन हैं। राजा के यहाँ उनका मान है।'
मनू ने हँसकर पूछा, “कुश्ती लड़ते हैं? तलवार-बंदूक चलाते हैं? घोड़े पर चढ़ते हैं?”
'दुर पगली', मोरोपंत ने कहा. 'जो यह सब न जानता हो, वह क्या कुछ है ही नहीं? दीक्षितजी पक्के ब्राह्मण हैं। शास्त्री, आचार्य।’
नाना ने मनू की ओर देखते हुए कहा, ‘और यदि ब्राह्मण हथियार बाँध उठे तो वह पक्के से कच्चा हो जाएगा? मनू, तुम बताओ।’
मनू हँसी, बाजीराव भी हँसे। मोरोपंत ने मुसकराकर कहा, ‘इस लड़की जैसी वाचाल तो शायद ही कोई हो।’
मनू ने होंठों की समेट में मुसकराहट को दबाकर गरदन मोड़ी, फिर विशाल नेत्र संकुचित करके बोली, ‘आप ही कहा करते हैं ताराबाई ऐसी थीं, जीजाबाई ऐसी थीं, अहिल्या ऐसी, मीरा ऐसी। मैं पूछती हूँ, क्या वे सब मुँह पर मुहर लगाए रहती थीं?’