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(भाग 26)

16 मई 2022

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जिस इमारत में आजकल डिस्ट्रिक्ट बोर्ड का दफ्तर है, वह उस समय डाकबंगले के काम आता था। पास ही झाँसी प्रवासी अंग्रेजों का क्लब घर था। एलिस और मार्टिन राजा के पास से आकर सीधे क्लब गए। वहाँ और कई अंग्रेज आमोद-प्रमोद में मग्न थे। यहाँ इन दोनों का जी हलका हुआ।

उन अंग्रेजों ने महल का हाल पूछा।

'राजा बीमार है। बच नहीं सकता।'

'इलाज वही दकियानूसी होगा।'

'एक मूर्ख वैद्य कुछ पीस-पासकर मधु के साथ खिला रहा है।'

'कैप्टिन एलन का इलाज करवाओ।' 'खुशी से,

परंतु ये लोग ऐसे कट्टर-धर्मी हैं कि शायद राजा एलन के हाथ की छुई हुई दवा न खाएगा।'

'शायद अच्छा हो जाए। न हुआ तो क्या होगा?'

'राजा ने एक लड़के को गोद लिया है।'

'कब?'

'आज हम लोगों के सामने।'

'गोद! यानी झाँसी में वही मनमानी और कानूनहीन व्यवस्था जारी रहने दी जाएगी?'

एलिस ने इस प्रसंग को आगे नहीं बढ़ने दिया। तब वार्तालाप की धारा दूसरी ओर मुड़ गई और बातचीत में सभी शरीक हो गए।

'सुनते हैं, रानी बहुत सुंदर है। अच्छी घुड़सवार है। यदि नाचना सीखे तो उसका नृत्य अजीब होगा।' एक अंग्रेज ने कहा।

'चुप मूर्ख, एलिस बोला, 'अभी, उसी के राज में बैठे हो। हिंदुस्थानी लोग अपने राजा-रानी के बारे में ऐसी बात सुनना बिलकुल पसंद नहीं करते।'

'हिश! (डैम इट) वह तो गधों का झुंड है। फिर भी मैं तुम्हारी बात मानता हूँ। इसलिए नहीं कि रानी-वानी से डरता हूँ, कितु इसलिए कि प्याले के ऊपर मीठा-मीठा पवन बहना चाहिए न कि बहस-वाहिसे की गरम आँधी। वरना मैं अपने पूरे महीने की तनख्वाह की होड़ लगाता। तो भी मेजर, मैं सुनता हूँ, राजा नाचता अच्छा था। किसी जमाने में उसकी नाटकशाला में बड़ी सुंदर शकलें थीं। बहुत बढ़िया नाच।'

'हम सब जानते हैं, पर देखा नहीं है। वैसे और हिंदुस्थानी नर्तकियों का नाच बहुत देखा। मगर मजा नहीं आता। इस देश के नाच तक में कोई ढंग नहीं, कोई मोहकता नहीं।'

'पर नर्तकियाँ हैं हसीन। मैं शर्त लगाता हूँ, नाच-गान चाहे उनका उतना खूबसूरत न हो।'

'ये लोग हमारे नाचने-गाने को भद्दा समझते हैं। मैंने हिंदुस्थानियों का अपने नृत्यगृह में आना बंद कर दिया है। केवल नवाब अलीबहादुर आता है। वह समझदार है।'

'सिर तो जरूर बहुत हिलाता है।'

'ओह! बहुत काम का आदमी है। तुम जानते हो।'

'वह अपने दो-एक दोस्तों को साथ लाना चाहता है।'

'बेकार है। मैं पसंद नहीं करता।'

'यहाँ से ले क्या जाएगा?'

'हम लोगों का स्त्रियों के बारे में बुरा खयाल फैलाएगा।'

'कोई परवाह नहीं। बुरा खयाल फौज और पुलिस में नहीं फैलना चाहिए।'

'एक से एक बढ़कर बेदिमाग हैं। उन कारतूसों को मुंह से खोलने से इनकार किया तो हमने रगड़ दिया। रह गए। जितना वेतन हम इन लोगों को देते हैं, उतना इनको दुनिया में कहीं भी नहीं मिल सकता।'

'और तुम्हारे रिसाले में जो कुछ ब्राह्मण माथा रंग-रँगाकर परेड में आते थे उनका तो अनुशासन कर दिया?'

'हाँ। पहले उन्होंने कहा, हमारा टीका है। धर्म की बात। फिर हमने पुंछवा दिया। डैम इट ऑल। भाई कितनी जहालत-भरा मुल्क है!'

'जरूर। परेड से छुट्टी पाकर बारक में न सिर्फ माथे पर बल्कि माथे से लेकर पैर की उँगली तक टीकों से देह को रँगलो, हमको फिकर नहीं। इस धर्म से हमको महान् कष्ट होता है।'

'अभी यह कौम बिलकुल नादान और जाहिल है। अंग्रेजी पढ़ने से अकल कुछ सुधरेगी। बाइबल का पढ़ाना मदरसों में इसीलिए जरूरी रखा गया है। जब अंग्रेजी का प्रचार हो जाएगा और बाइबल की संस्कृति इनके खून में बैठ जाएगी तब धरातल कुछ ऊँचा होगा।'

'हाँ, और कदाचित् तब इस देश के लोग हमारे शेक्सपियर, वाल्टर स्कॉट, वायरन की पूजा कर उठे। यहाँ के लोग पूजा, नमाज बहुत जल्दी कर उठते हैं।'

'गंगाधरराव की नाटकशाला में जो नाटक खेले जाते थे, वे कौन-सी बला होते हैं?'

'महज कूड़ा-करकट तो नहीं है। शकुंतला नाटक तो मैंने भी पढ़ा है। मोनियर विलियम्स का अनुवाद। खूबसूरत चीज है। यद्यपि टैंपेस्ट की मिरांडा को शकुंतला नहीं पहुँचती, फिर भी एक चीज है...'

'ऐसी कितनी पुस्तकें हिंदू-मुसलमानों के पास होंगी?'

'हिंदुओं की गाँठ में शकुंतला, कुछ वेद और कुछ ऐसा ही साहित्य है। मुसलमानों के पास कुरान, गुलिस्ताँ, बोस्तां और उमरखैयाम की रुबाइयाँ। बस खतम। बाकी सब कूड़ा, महज रद्दी।'

'तुम तो लार्ड मैकाले की भाषा में बोल रहे हो पट्ठे।'

'मैकाले क्या गलत कहता है? उसने तो हिंदू-मुसलमानों को बहुत बड़ा गौरव दिया जो यह कह दिया कि इनकी सारी अच्छी पुस्तकें एक छोटी-सी अलमारी में बंद की जा सकती हैं।'

'मैं कमस खाता हैं, मैकाले ने 'छोटी-सी' अलमारी नहीं कहा है। मैं कहता हूँ कि इनकी अच्छी पुस्तकें अलमारी के एक ही कोने में आ सकती हैं।'

'जाने दो, इनकी नर्तकियाँ अवश्य कभी-कभी परियों-सी जान पड़ती हैं।'

'जब वे ढेरों जेवर लादकर सामने आती हैं तब जान पड़ता है मानो फूलों में जुगनू जड़ दी गई हों।'

'कभी-कभी नाच के कुछ कदम भले लगते हैं।'

'लेकिन गाना बिलकुल चीख-चिल्लाहट। हाँ, सारंगी का बाजा मीठा लगता है और जब तबला धीमी लय में बजता है तब नाच उठने को जी चाहने लगता है।'

'हिंदुस्थान की जलवायु, प्रकृति, अनाज, दूध सब अच्छा, लेकिन देश कुसंस्कारों से भरा हुआ है। किसान बहुत मेहनती नहीं हैं।'

'और चोर-डाकुओं के मारे चैन नहीं ले पाते हैं।'

'हम लोग हिंदुस्थान में उन्हीं का नाश करने के लिए तो मौजूद हैं।'

'रियासतों में बड़ा अंधेर, बड़ा अत्याचार होता है।'

'सुनता हूँ, किसी रियासत में एक इत्रफरोश गया। एक सरदार ने छत्तीस हजार रुपयों का इत्र खरीद डाला। जब इत्रफरोश ने कहा कि अभी मेरे पास बेचे हए इत्र से भी बढ़िया और मौजूद है, तब उस सरदार ने वह सब खरीदा हुआ इत्र अपनी घुड़सार के घोड़ों की पूँछों पर उड़ेल दिया और कहा, यह इत्र तो हमारे लायक नहीं। घोड़ों की पूँछ की बू जरूर इससे दूर हो जाएगी और तुम्हारा जो इससे बढ़िया इत्र है, वह यदि बेचो तो गधेरों के गधों की पूंछ पर छिड़कवा दूंगा। जब राजा के पास यह समाचार पहुँचा तब उसने सरदार को शाबाशी दी और खजाने से छत्तीस के दगुने बहत्तर हजार रुपया सरदार के पास भेज दिए!'

'यह झाँसी के राजा का ही किस्सा है।' 'मैंने सुना है कि इस कहानी का संबंध दिल्ली के बुड्ढे बादशाह बहादुरशाह से है।'

'वह तो कविता करने में मस्त रहता है।'

'उसको बादशाह कौन कहता है?'

'शिष्टाचार। केवल शिष्टाचार।'

'ऐसा कैसा शिष्टाचार! बादशाह सिर्फ एक है। एक के सिवाय दूसरा किसी प्रकार नहीं हो सकता। वह है इंग्लैंड का बादशाह। थ्री चियर्स। हुरे!'

'हुरे! इन सब कठपुतलियों को खाक करो। कहाँ के राजा और कहाँ के बादशाह! कमबख्त किलों और महलों में बैठे-बैठे गुलछर्रे उड़ाते हैं। गरीबों की औरतों को सताते हैं और डाके डलवाते हैं। डैम दैम ऑल।'

'चुप-चुप, अभी नहीं। जरा ठहरकर सब होगा। सब मुकुट और ताज हमारे पैरों पर गिरेंगे। पर होगा सब धीरे-धीरे। कुछ दिनों में सारा हिंदुस्थान ईसाई हो जाएगा। और इंग्लैंड का राज्य अमर।'

'धीरे-धीरे बेवकूफ, अभी कसर है। इस समय चोर, डाकुओं और फसादियों को ठंडा करके व्यापार और खेती को बढ़ाना है। जनता हमको श्रद्धा की दृष्टि से देखेगी। जो हिंदुस्थानी अंग्रेजी पढ़-लिख जाएँ उनको छोटी-मोटी नौकरियाँ देकर अंग्रेजों का अदब करना सिखाया जाएगा। वे उस अदब को जनता में फैला देंगे। जनता हमेशा कृतज्ञ रहेगी और हमारे हाथ जोड़ते नहीं अघावेगी। हमारे छोकरे सदा-सर्वदा हमारा आतंक बनाए रखेंगे! वही आतंक हमारा सब कुछ होगा।'

'ओह डियर मी। तुम तो बिलकुल अरस्तू और सुकरात हो गए।'

'हिश! हमारे मन को केवल एक बात दिक करती है-ये राजा और नवाब।'

'फिर वही हिमाकत। कह दिया कि धीरज धरो। इंग्लैंड के राजनीतिज्ञ काफी होशियार और कुशल हैं और हिंदुस्थान में गवर्नर जनरल को अब अपनी काउंसिल की सम्मति को रद्द करने का पूरा अधिकार है। यहाँ की जनता को मुट्ठी में रखने के लिए कुछ राजा-नवाबों का बनाए रखना बहुत जरूरी है। और यह भी बहुत जरूरी है कि ऐसे बड़े-बड़े राजाओं और नवाबों की रियासतों में अत्याचार होते रहें, जिससे अंग्रेजी इलाके की प्रजा अपनी बेहतर हालत का, रियासती प्रजा की बदतर हालत से सदा मुकाबला करती रहे, तौलती रहे। और पुकार-पुकारकर कहती रहे कि हिंदुस्थानी हुकूमत से अंग्रेजी हुकूमत बहुत अच्छी। समझे!'

'जनता में ऊँची-नीची श्रेणियाँ कायम रखने की जरूरत है।'

'तुम्हारा सिर। उनमें जाँत-पात, ऊँच-नीच बहुत संख्या में जमानों से है। केवल जमींदारी, ताल्लुकेदारी प्रथा को मजबूती के साथ दाखिल करना रह गया है। बंगाल में हो गया है। सब जगह कर दिया जाएगा। सिर उठानेवाली जनता को ये जमींदार, ताल्लुकेदार ही कुचल दिया करेंगे। हमको हाथ जमाने की परवाह ही न करनी पड़ेगी। सब बंदोबस्त आराम से होता चला जाएगा।'

'मुझको यह शब्द 'बंदोबस्त' बहुत प्यारा लगता है। हर जगह कोने-कोने में बंदोबस्त होना चाहिए।'

'तुमने अभी-अभी कहा, 'तुम्हारा सिर'। वापस लो इसको। तुम क्या मुझसे होड़ लगा सकते हो कि हिंदुओं की जाँत-पात और मुसलमानों का ऊँच-नीच हमारा सहायक नहीं है?'

'बेशक होड़ लगा सकता हूँ। यह सब होते हुए भी इन लोगों में बड़े-बड़े राजा और बादशाह हुए हैं। फिर भी हो सकते हैं। इसलिए इस देश को अनंत काल तक अपने हाथ में बनाए रखने के लिए-हिंदुस्थानियों के लाभ और अपने रोजगार के हेतु-वही दूसरी तरकीब बेहतर है। हम-तुमसे कहीं ज्यादा चतुर राजनीतिज्ञों ने इस संपूर्ण समस्या पर यों ही माथापच्ची नहीं की है।'

प्यालों का दौर और अखंड साम्राज्य की कल्पना, अनेक अवसरों की तरह क्लब में लगभग उफान पर आ रही थी कि क्लब के बाहर तेजी से दौड़कर आनेवाली घुड़सवारों की आहट सुनाई पड़ी।

पहरेवाले ने सलाम किया और कहा, 'हुजूर, राजा के यहाँ से खबर आई है कि वे बेहोश पड़े हैं।'

सबने अपने-अपने प्याले रख दिए। सतर्क हो गए। एक दूसरे की ओर देखने लगे। एलिस ने कहा, 'सूचना दो कि मैं थोड़ी देर में आता हूँ।' पहरेवाला चला गया।

मार्टिन ने एलिस से पूछा, 'राजा मरनेवाला है या शायद मर भी गया हो। हिंदुस्थानी लोग असल बात को देर तक छुपाए रखने के अभ्यासी होते हैं। यदि राजा मर भी गया हो तो क्या वह गोद स्वीकार कर ली जाएगी? मेरे खयाल में लार्ड डलहौजी झाँसी को अंग्रेजी इलाके में मिला लेंगे।'

'हिश!' एलिस ने उँगली से वर्जित करके कहा, 'कुछ ज्यादा पी गए हो, मालूम होता है।'

उसी क्षण और घुड़सवार आए। पहरेवाला भीतर आया। बोला, 'हुजूर, अब महल से दूसरा समाचार यह आया है कि महाराज अच्छे हैं और हुजूर को तुरंत बुलाया है।'

'डैम इट।' धीरे से मार्टिन के मुंह से निकल पड़ा। पहरेदार ने सुन लिया। सिर नवाकर बाहर चला गया। उसके कलेजे में कुछ कसक गया।

एलिस ने आँखें तरेरी। मार्टिन ने अंगूठा दिखाकर उपेक्षा की।

कहा, 'हमारा नौकर है। राजा का नौकर नहीं।'

एलिस डॉक्टर एलन को लेकर राजमहल चला गया।

गंगाधरराव को रनवास के कक्ष में पहुंचा दिया गया था। जब एलिस और एलन पहुँचे, राजा होश में थे। एलिस को देखकर वे प्रसन्न हुए। बोलने की चेष्टा की। टूटे-टूटे बोले।

उसी दिन जो खरीता राजा ने एलिस के हाथ में दिया था उसका स्मरण दिलाया और उसको सूचित किया कि पॉलीटिकल एजेंट मेजर मालकम के पास भी एक खरीता भेज दिया है-केवल एक बात उसमें विशेष है कि सन् १८१७ में रामचंद्रराव के साथ जो संधि कंपनी सरकार की हुई थी उसमें झाँसी राज्य दवाम के लिए, चिरकाल के लिए शिवराम भाऊ के वंशजों के अधिकार में रहने की बात लिख दी गई थी। उस लिखे हुए वचन का पालन किया जाना चाहिए।

एलिस राजा की हालत को देखकर उनको बातचीत करने से रोकता रहा। वे बोलने का प्रयत्न करते-करते फिर अचेत हो गए। उन्हें बातचीत करते-करते बीच में बेहोशी आ-आ जाती थी।

एलिस ने डॉक्टर एलन की ओषधि खाने के लिए अनुरोध किया। वह उनके पास गया, परंतु क्लब में शराब पी थी। मुँह से गंध आ रही थी। राजा की बहुत अवहेलना हुई।

उसने सोचा, अहिंदू की छुई हुई दवा न खाएंगे। प्रस्ताव किया, 'सरकार, इसमें गंगाजल मिला दिया जाएगा। दवा पवित्र हो जाएगी, आप पिएँ। शीघ्र आराम मिलेगा।'

राजा की आकृति से ऐसा जान पड़ा मानो उन्होंने स्वीकार कर लिया हो। वे शायद शराब की बू से छुटकारा पाना चाहते थे। कैसा भी कुसंस्कृत हिंदू हो, मरने के समय कैसे भी सुसंस्कृत हिंदू या अहिंदू को शराब की बू फैलाते पसंद नहीं करेगा।

एलिस ने तुरंत एक ब्राह्मण के हाथ दवा भेजी। राजा ने छूने तक से इनकार कर दिया।

एक दिन और पीड़ा में काटने को था। उस दिन (२० नवंबर को) दुपहरी में कुछ नींद आई। ४ बजे आँख खुली। महल के सामने झाँसी की जनता कुशल-समाचार के लिए व्याकुल खड़ी थी।

राजा गंगाधरराव को पल-पल पर बेहोशी आ रही थी। ज्यों-त्यों करके वह दिन कटा। दूसरे दिन उनकी अवस्था असाध्य हो गई। अंत में मुँह से केवल यह निकला, 'गंगाजल।'

उनको तुरंत गंगाजल दिया गया। एक क्षण के लिए उनको ऐसा जान पड़ा मानो रोगमुक्त हो गए हों।

तत्क्षण सचेत होकर बोले, 'मैंने बहुत अपराध किए हैं, बहुतों को सताया है, सब क्षमा करें ॐ हरि...'

कुछ क्षण उपरांत राजा का देहांत हो गया।

महल में हाहाकार मच गया। जिस रानी को कभी किसी ने विह्वल नहीं देखा था, वह करुणा के बाँध तोड़े जा रही थी। मोरोपंत और नाना भोपटकर ने क्रंदन करते हुए दामोदरराव को रानी की गोदी में रख दिया।

लक्ष्मी दरवाजे बाहर, लक्ष्मी ताल के किनारे गंगाधरराव के शव का दाह धूमधाम के साथ किया गया। श्मशान भूमि पर एलिस और मार्टिन भी उपस्थित थे। दूर रेग्यूलर केवलरी के सिपाही भी। काले बिल्ले बाँधे हुए। एलिस और मार्टिन कुतूहल के साथ अंतिम क्रियाकर्म देख रहे थे और हिंदुस्थानी सिपाही रुदन करती हुई झाँसी की जनता के साथ रुद्ध-कंठ थे।

एलिस ने २० नवंबर सन् १८५३ को राजा गंगाधरराव का एक दिन पहले का दिया हुआ खरीता पॉलिटिकल एजेंट कैथा (उस समय बुंदेलखंड और रीवा का पॉलिटिकल एजेंट कैथा, जिला हमीरपुर में रहता था।) के पास भेज दिया था। २१ नवंबर को राजा गंगाधरराव का देहांत हुआ। यह समाचार भी उसने अविलंब पहुँचा दिया।

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रचनाएँ
झाँसी की रानी-लक्ष्मीबाई (उपन्यास भाग 1)
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वृन्दावनलाल वर्मा (०९ जनवरी, १८८९ - २३ फरवरी, १९६९) हिन्दी नाटककार तथा उपन्यासकार थे। हिन्दी उपन्यास के विकास में उनका योगदान महत्त्वपूर्ण है। उन्होंने एक तरफ प्रेमचंद की सामाजिक परंपरा को आगे बढ़ाया है तो दूसरी तरफ हिन्दी में ऐतिहासिक उपन्यास की धारा को उत्कर्ष तक पहुँचाया है। वृंदावनलाल वर्मा के उपन्यासों में नारी पात्र प्रबल और प्रधान है। वर्मा जी की अपने आदर्श नारी पात्रों के विषय में एक धारणा है , स्त्री के भौतिक सौन्दर्य और बाह्य आकर्षण तक वह सीमित नहीं रह जाते , उसमें दैवी गुणों को देखना उन्हें भला लगता है। नारी के बाह्य सौन्दर्य और लावण्य के परे उसमें निहित आंतरिक तेज की खोज तथा उसके बाह्य और आंतरिक गुणों में सामंजस्य स्थापित करना उनका लक्ष्य रहता है। उनकी यह नारी पुरुष से कहीं ऊँची है। उनकी दृष्टि में पुरुष शक्ति है तो नारी उसकी संचालक प्रेरणा। प्रारम्भ के उपन्यासों में नारी विषयक उनकी धारणा अधिक कल्पनामय तथा रोमांटिक रही है। वह प्रेयसी के रूप में आती है , पे्रमी के जीवन लक्ष्य की केन्द्र और उसकी पूजा - अर्चना की पावन प्रतिमा बनकर। तारा ( गढ़ कुंडार ) तथा कुमुद ( विराटा की पद्मिनी ) उपन्यासकार की इसी प्रारम्भिक प्रवृत्ति की देन है। अगले उपन्यासों में लेखक की प्रौढ़ धारणा कल्पनाकाश की उड़ानों से भर कर संघर्षमयी इस कठोर पर उतर आती है। ये नारी पात्र पुरुष पात्रों को प्रेरणा ही नहीं देते , संसार के संघर्षों में स्वयं जूझते हुए अपनी शक्ति का भी परिचय देते हैं। कचनार ( कचनार ) , मृगनयनी तथा लाखी ( मृगनयनी ) , रूपा ( सोना ) और नूरबाई ( टूटे काँटे ) ऐसे ही पात्र है। लक्ष्मीबाई ( लक्ष्मीबाई ) तथा अहिल्याबाई ( अहिल्याबाई ) में ये गुण अपने चरम पर दीख पड़ते हैं।
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झाँसी की रानी-लक्ष्मीबाई (भाग 1)

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उदय वर्षा का अंत हो गया। क्वार उतर रहा था। कभी-कभी झीनी-झीनी बदली हो जाती थी। परंतु उस संध्या के समय आकाश बिलकुल स्वच्छ था। सूर्यास्त होने में थोड़ा विलम्ब था। बिठूर के बाहर गंगा के किनारे तीन अश्वार

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(भाग 2)

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मनूबाई सवेरे नाना को देखने पहुँच गई। वह जाग उठा था, पर लेटा हुआ था। मनू ने उसके सिर पर हाथ फेरा। स्निग्ध स्वर में पूछा, ‘नींद कैसी आई ?’ ‘सोया तो हूँ, पर नींद आई-गई बनी रही। कुछ दर्द है।’ नाना ने उ

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(भाग 3)

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थोड़ी देर में घंटा बजाता हुआ हाथी लौट आया। मनू दौड़कर बाहर आई। एक क्षण ठहरी और आह खींचकर भीतर चली गई। नाना और राव, दोनों बालक, अपनी जगह चले गए। बाजीराव ने नाना को पुचकारकर पूछा, ‘दर्द बढ़ा तो नहीं ?’

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भोजनोपरांत तात्या दीक्षित से बाजीराव और मोरोपंत मिले। तात्या दीक्षित झाँसी से बिठूर आए हुए थे। वह ज्योतिष और तंत्र के शास्त्री थे। काशी, नागपुर, पूना इत्यादि घूमे हुए थे। महाराष्ट्र समाज से काफी परिचि

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महाराष्ट्र में सतारा के निकट वाई नाम का एक गाँव है। पेशवा के राज्यकाल में वहाँ कृष्णराव ताँबे को एक ऊँचा पद प्राप्त था। कृष्णराव ताँबे का पुत्र बलवंतराव पराक्रमी था। उसको पेशवा की सेना में उच्च पद मिल

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तात्या दीक्षित आदर और भेंट सहित बिठूर से झाँसी लौट आए। उन्हें मालूम था कि मन्‌बाई के लिए जितना अच्छा वर ढुँढ़कर दूँगा, उतना ही अधिक बाजीराव संतुष्ट होंगे। और उस संतोष का फल उनकी जेब के लिए उतना ही महत

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राजा के अन्य कर्मचारियों के साथ तात्या दीक्षित बिठूर गए। मोरोपंत और बाजीराव को संवाद सुनाया। उन्होंने स्वीकार कर लिया। गंगाधरराव की आयु का कोई लिहाज नहीं किया गया। मनूबाई का श्रृंगार कराया गया। रंगीन

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झाँसी में उस समय मंत्रशास्त्री, तंत्रशास्त्री वैद्य, रणविद् इत्यादि अनेक प्रकार के विशेषज्ञ थे । शाक्त, शैव, वाममार्गी, वैष्णव सभी काफी तादाद में । अधिकांश वैष्णव और शैव। और ऐसे लोगों की तो बहुतायत ही

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एक दिन जरा सवेरे ही पजनेश नारायण शास्त्री के घर पहुँचे। शास्त्री अपनी पौर में बैठे थे, जैसे किसी की बाट देख रहे हों। पजनेश को कई बार आओ-आओ कहकर बैठाया: परंतु पजनेश ने यदि शास्त्री की आँख की कोर को बार

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पजनेश जिस पक्ष का अभी तक जोरदार समर्थन करते चले आए थे उसको उन्होंने छोड़ दिया। नारायण शास्त्री लगभग खामोश हो गए। नए उपनीतों ने लड़ाई स्वयं अपने हाथ में ले ली और एकाध जगह वह लड़ाई जीभ से खिसककर हाथ और

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जनेऊ विरोधी पक्षवाले किले से परम प्रसन्‍न लौटे। अपने पक्ष की विजय का समाचार बहुत गंभीरता के साथ सुनाना शुरू करते थे और फिर पर-पक्ष की मिट्टी पलीद होने की बात खिलखिलाकर हँसते हुए समाप्त करते थे। शहर-भर

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जनेऊ का प्रश्न समाप्त नहीं हुआ था कि यह विकट रोरा खड़ा हो गया। जिन थोड़े से लोगों का जीवन विविध समस्याओं के काँटों पर होकर सफलतापूर्वक गुजर रहा था, वे तो नारायण शास्त्री के कृत्य की निंदा करते ही थे,

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मोरोपंत, मनूबाई इत्यादि के ठहरने के लिए कोठी कुआँ के पास एक अच्छा भवन शीघ्र ही तय हो गया था। तात्या टोपे कुछ दिन झाँसी ठहरा रहा। निवास-स्थान की सूचना बिठूर शीघ्र भेज दी। टोपे को बिठूर की अपेक्षा झाँस

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यथासमय मोरोपंत मनूबाई को लेकर झाँसी आ गए। तात्या टोपे भी साथ आया। विवाह का मुहूर्त शोधा जा चुका था। धूमधाम के साथ तैयारियाँ होने लगीं। नगरवाले गणेश मंदिर में सीमंती, वर-पूजा इत्यादि रीतियाँ पूरी की गई

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सीमंती इत्यादि की प्रथाएँ पूरी होने के उपरांत गणेश मंदिर में गायन-वादन और नृत्य हुए और एक दिन विवाह का भी मुहूर्त आया। विवाह के उत्सव पर आसपास के राजा भी आए। उनमें दतिया के राजा विजय बहादुरसिह खासतौर

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विवाह होने के पहले गंगाधरराव को शासन का अधिकार न था। उन दिनों झाँसी का नायब पॉलिटिकल एजेंट कप्तान डनलप था। वह राजा के पास आया-जाया करता था। लोग कहते थे कि दोनों में मैत्री है। गंगाधरराव अधिकार प्राप्

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राजा गंगाधरराव और रानी लक्ष्मीबाई का कुछ समय लगभग इसी प्रकार कटता रहा। १८५० में (माघ सुदी सप्तमी संवत्‌ १९०७) वे सजधज के साथ (कंपनी सरकार की इजाजत लेकर!) प्रयाग, काशी, गया इत्यादि की यात्रा के लिए गए।

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राजा गंगाधरराव पुरातन पंथी थे। वे स्त्रियों की उस स्वाधीनता के हामी न थे जो उनको महाराष्ट्र में प्राप्त रही है। दिल्‍ली, लखनऊ के परदे के बंधेजों को वे जानते थे। उतने बंधेज वे अपने रनवास में उत्पन्न नह

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कप्तान गार्डन झाँसी-स्थित अंग्रेजी सेना का एक अफसर था। हिंदी खूब सीख ली थी। राजा गंगाधरराव के पास कभी-कभी आया करता था। राजा उसको अपना मित्र समझते थे। वह पूरा अंग्रेज था। साहित्यिक, व्यापार-कुशल, स्वदे

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वसंत आ गया। प्रकृति ने पुष्पांजलियाँ चढ़ाईं। महकें बरसाईं। लोगों को अपनी श्वास तक में परिमल का आभास हुआ। किले के महल में रानी ने चैत की नवरात्रि में गौरी की प्रतिमा की स्थापना की। पूजन होने लगा। गौरी

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(भाग 21)

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नाटकशाला की ओर से गंगाधरराव की रूचि कम हो गई। वे महलों में अधिक रहने लगे। परंतु कचहरी-दरबार करना बंद नहीं किया। न्याय वे तत्काल करते थे- उलटा-सीधा जैसा समझ में आया, मनमाना। दंड उनके कठोर और अत्याचारपू

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जिस दिन गंगाधरराव के पुत्र हुआ उस दिन संवत् १९०८ (सन् १८५१) की अगहन सुदी एकादशी थी। यों ही एकादशी के रोज मंदिरों में काफी चहल-पहल रहती थी, उस एकादशी को तो आमोद-प्रमोद ने उन्माद का रूप धारण कर लिया। अप

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(भाग 23)

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लक्ष्मीबाई का बच्चा लगभग दो महीने का हो गया। परंतु वे सिवाय किले के उद्यान में टहलने के और कोई व्यायाम नहीं कर पाती थीं। शरीर अभी पूरी तौर पर स्वस्थ नहीं हुआ था। मन उनका सुखी था, लगभग सारा समय बच्चे क

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(भाग 24)

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गंगाधरराव का यह बच्चा तीन महीने की आयु पाकर मर गया। इसका सभी के लिए दुःखद परिणाम हुआ। राजा के मन और तन पर इस दुर्घटना का स्थायी कुप्रभाव पड़ा। वे बराबर अस्वस्थ रहने लगे। लगभग दो वर्ष राजा-रानी के काफ

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(भाग 25)

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झाँसी की जनता के पंचों, सरदारों और सेठ-साहूकारों को, जो इस उत्सव पर निमंत्रित किए गए थे, इत्र, पान, भेंट इत्यादि से सम्मानित करके बिदा किया गया। केवल मेजर एलिस, कप्तान मार्टिन, मोरोपंत और प्रधानमंत्री

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(भाग 26)

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जिस इमारत में आजकल डिस्ट्रिक्ट बोर्ड का दफ्तर है, वह उस समय डाकबंगले के काम आता था। पास ही झाँसी प्रवासी अंग्रेजों का क्लब घर था। एलिस और मार्टिन राजा के पास से आकर सीधे क्लब गए। वहाँ और कई अंग्रेज आम

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(भाग 27)

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एलिस का भेजा हुआ राजा गंगाधरराव का १९ नवंबर का खरीता और उनके देहांत का समाचार मालकम के पास जैसे ही कैथा पहुँचा, उसने गवर्नर जनरल को अपनी चिट्ठी अविलंब (२५ नवंबर के दिन) भेज दी। चिट्ठी के साथ एलिस का भ

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(भाग 28)

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जिस दिन गंगाधरराव का देहांत हुआ, लक्ष्मीबाई १८ वर्ष की थीं। इस दुर्घटना का उनके मन और तन पर जो आघात हआ वह ऐसा था. जैसे कमल को तुषार मार गया हो। परंतु रानी के मन में एक भावना थी, एक लगन थी जो उनको जीवि

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