मनूबाई सवेरे नाना को देखने पहुँच गई। वह जाग उठा था, पर लेटा हुआ था। मनू ने उसके सिर पर हाथ फेरा। स्निग्ध स्वर में पूछा, ‘नींद कैसी आई ?’
‘सोया तो हूँ, पर नींद आई-गई बनी रही। कुछ दर्द है।’ नाना ने उत्तर दिया।
मनू-‘वह दोपहर तक ठीक हो जाएगा। तीसरे पहर घूमने चलोगे न ? संध्या से पहले ही लौट आएँगे।’
नाना- ‘सवारी की धमक से पीड़ा बढ़ने का डर है।’
मनू- ‘आरंभ में कदाचित् थोड़ी-सी पीड़ा हो; परंतु शीघ्र ही उसको दाब लोगे और जब लौटोगे, याद न रहेगा कि कभी चोट लगी थी।’
नाना- ‘यदि पीड़ा बढ़ गई तो ?’
मनू- ‘तो सह लेना, फिर कभी गिरोगे तो चोट कम आँसेगी।’
नाना- ‘और यदि आज ही फिर फिसल पड़ा तो ?’
मनू- ‘तो मैं तुमको फिर उठा लाऊँगी। चिंता मत करो।’
नाना- ‘और जो तुम खुद गिर पड़ीं तो ?’
मनू- ‘तब मैं फिर सवार हो जाऊँगी। किसी की सहायता नहीं लेनी पड़ेगी और घर आ जाऊँगी।’
नाना- ‘मेरे बस का नहीं।’
मनू- ‘लड्डू खाओगे ?’
नाना- ‘मुझे चुपचाप पड़ा रहने दो !’
मनू- ‘कब तक ?’
नाना- ‘तीन-चार दिन लग जाएँगे।’
मनू- ‘किसने कहा ?’
नाना- ‘काका कहते थे। वैद्य ने भी कहा था।’
मनू- ‘वैद्य तो लोभवश कहता होगा, पर दादा क्यों कहते थे ?’
नाना- ‘उनसे ही पूछ लेना। मेरा सिर मत खाओ।’
मनू हँस पड़ी। फिर दाईं ओर का ओठ थोड़ा-सा-बिलकुल जसा-सा-दबाकर बोली, ‘तुम कहते थे—बाजी प्रभु देशपांडे की कीर्ति से बढ़कर कीर्ति कमाऊँगा, तानाजी मालसुरे को पछाड़ूँगा, स्वर्गवासी छत्रपति शिवाजी को अपने कृत्यों से फड़का दूँगा, श्रीमत पंत प्रधान प्रथम बाजीराव की बराबरी करूँगा,...’
इतने में वहाँ बाजीराव आ गए। मनू इतनी तीक्ष्णता के साथ बोल रही थी कि बाजीराव ने उसका अंतिम वाक्य सुन लिया।
बोले, ‘तेरी चपलता न जाने कब खत्म होगी ? यह सब क्या बके जा रही है ?’
मनू रंचमात्र भी नहीं दबी। बोली, ‘इसको दादा, आप बकना कहते हैं ? आप ही हम लोगों को छुटपन से सुनाते आए हैं। मैं उसी को दुहरा रही हूँ। अब आप इसे बकवास समझने लगे हैं। ! यह क्यों दादा ?’
बाजीराव ने कहा, ‘बेटी, क्या आज उन बातों के स्मरण से जीवन को चलाने का समय रहा है ? महाभारत की कथाएँ सुनो और अपने पुरखों की बातें सुनो। अच्छी-भली बनो। मन बहलाओ और जीवन को पवित्र सुख से सुखी बनाओ। नाना को चिढ़ाओ मत।’
मनू ने मुसकराकर होंठ जरा-सा दबाया, थोड़ी-सी त्योरी संकुचित की और बाजीराव के बिलकुल पास आकर बोली, ‘क्या हम लोगों को अब सोकर, खाकर ही जीवन बिताना सिखलाइएगा, दादा ?’
बाजीराव को हँसी आई। कुछ कहना ही चाहते थे कि मोरोपंत कहते हुए आ गए, ‘नाना साहब को हाथी पर बैठकर थोड़ा-सा घूम आने दीजिए। बाहर तैयार खड़ा है।’
बाजीराव ने प्रश्न किया, ‘हाथी की सवारी में चोट को धमक तो नहीं लगेगी ?’
मोरोपंत ने उत्तर दिया, ‘नहीं, पलकिया में बहुत मुलायम गद्दी-तकिए लगा दिए गए हैं और हाथी बहुत धीमे चलाया जाएगा।’
मनू हाथी को देखने बाहर दौड़ गई। नाना निस्तार इत्यादि के लिए उठ गया। मनू ने हाथी पहले भी देखे थे, फिर भी वह इस हाथी को बार-बार चारों ओर से घूम-घूमकर देख रही थी और उसके डीलडौल पर कभी मुसकरा रही थी, कभी हँस रही थी।
थोड़ी देर बाद बाजीराव नाना को लिए बाहर आए। साथ में छोटा लड़का भी था, मोरोपंत पीछे-पीछे। हाथी पर पहले नाना को बिठा दिया गया, फिर छोटे को। महावत ने हाथी को अंकुश छुलाई, हाथी उठा।
मनू ने मोरोपंत से कहा, ‘काका, मैं भी हाथी पर बैठूँगी।’ बाजीराव के घुटनों से लिपटकर बोली, ‘दादा, मैं भी बैठूँगी।’
नाना हौदे में महावत के पास बैठा था। उसने महावत को अविलंब चलने का आदेश किया। मनू की ओर देखा भी नहीं। बाजीराव ने नाना से कहा, ‘लिए जाओ मनू को !’
नाना ने मुँह फेर लिया ! तब बाजीराव ने दूसरे बालक से कहा, ‘रावसाहब, मनू को ले लेते तो अच्छा होता !’
महावत कुछ ठमका तो नाना ने उसकी पसलियों में उँगली चुभोकर बढ़ने की आज्ञा दी। वह नाना साहब और रावसाहब—दोनों को लेकर चल दिया। मनू की आँखों में क्षोभ उतर आया। मोरोपंत का हाथ पकड़कर बोली, ‘हाथी लौटाओ काका। मैं हाथी पर अवश्य बैठूँगी।’
बाजीराव कोठी में चले गए।
मोरोपंत को भी क्षोभ हुआ, परंतु उन्होंने उसको नियंत्रित करके कहा, ‘वह चला गया बेटी।’
मनू मोरोपंत का हाथ पकड़कर खींचने लगी, ‘महावत को पुकारिए, वह रुक जाएगा। मैं बिना बैठे नहीं मानूँगी।’
मोरोपंत का क्षोभ भड़का। उन्होंने उसका फिर दमन किया। मनू ने फिर हाथी पर बैठने का हठ किया। मोरोपंत ने क्रुद्ध स्वर में मनू को डाँटा, ‘तेरे भाग्य में हाथी नहीं लिखा है। क्यों व्यर्थ हठ करती है ?’
मनू तिनककर सीधी खड़ी हो गई। तमककर कुछ कहना चाहती थी। एक क्षण होंठ नहीं खुल सके।
मोरोपंत ने शांत करने के प्रयोजन से, भरसक धीमे स्वर में परंतु क्रोध के सिलसिले में कहा, ‘सैकडों बार कहा कि समय देखकर चलना चाहिए। हम लोग न तो छत्रधारी हैं और न सामंत सरदार। साधारण गृहस्थों की तरह संसार में रहन-सहन रखना है। पढ़ी-लिखी होने पर भी न जाने सुनती-समझती क्यों नहीं है। कह दिया कि भाग्य में हाथी नहीं लिखा है। हठ मत किया कर।’
मनू के होंठ सिकुड़े। चुनौती-सी देती हुई बोली, ‘मेरे भाग्य में एक नहीं दस हाथी लिखे हैं।’
मोरोपंत का क्रोध भीतर सरक गया। हँस पड़े। मनूबाई को पेट से चिपका लिया। कहा, ‘अब चल, कोई शास्त्र-पुराण पढ़। तब तक वे दोनों लौट आते हैं।’
मनू मचली। बोली, ‘मैं अपने घोड़े पर बैठकर सैर को जाऊँगी और उस हाथी को तंग करूँगी।’
मोरोपंत सीधे शब्दों में वर्जित करना चाहते थे, परंतु इस उपकरण में सफलता के चिह्न न पाकर उन्होंने तुरंत बहाना बनाया, ‘घोड़े से यदि हाथी चिढ़ गया तो तू भले ही बचकर निकल आए, पर नाना साहब, रावसाहब तथा महावत मारे जाएँगे।’
वह मान गई।
‘तब तक कुछ और करूँगी,’ मनूबाई ने कहा, ‘पुस्तकें तो नहीं पढ़ूँगी। बंदूक से निशानेबाजी करूँगी।