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(भाग 28)

16 मई 2022

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जिस दिन गंगाधरराव का देहांत हुआ, लक्ष्मीबाई १८ वर्ष की थीं। इस दुर्घटना का उनके मन और तन पर जो आघात हआ वह ऐसा था. जैसे कमल को तुषार मार गया हो। परंतु रानी के मन में एक भावना थी, एक लगन थी जो उनको जीवित रखे थे। वह छुटपन के खिलवाड़ में प्रकट हो ही जाती थी। इस अवस्था में वह उनके मन के किस कोने में पड़ी हुई थी, इसको बहुत ही कम लोग जानते थे। जो जानते थे, उनमें से एक तात्या टोपे था, दूसरा नाना धोंडूपंत।

राजा गंगाधरराव के फेरे के लिए बिठूर से नाना धोंडूपंत, अपने दोनों भाइयों सहित आया। तात्या भी साथ था। वे सब जवान हो गए थे। पेंशन के जब्त हो जाने के कारण संतप्त थे और रोष-भरे। गंगाधरराव के देहांत के कारण उनको बड़ी ठेस लगी। जालौन का राज्य समाप्त हो चुका था। महाराष्ट्र की एक गद्दी झाँसी की बची थी। उनको भय था कि यह भी विलीन होने जा रही है। अतः बाजीराव द्वितीय बिठूर में बैठे-बैठे शुरू जमाने में जिस स्वराज्य-स्वप्न की कल्पनाएँ उपस्थित किया करते थे और जिनसे इनका तथा लक्ष्मीबाई का बाल्यकाल पाला गया था, वह केवल दुःस्वप्न-सा अवगत होने लगा था।

रानी किलेवाले महल में ही रहती थीं। वहीं उनकी सहेलियाँ और सिपाही-प्यादे भी। नीचे का महल, हाथीखाना, सेना, घोड़े, हथियार इत्यादि सब हाथ में थे।

नगर का शासन-सूत्र भी अधिकार में था। राज्य की माल दीवानी भी उनके मंत्रियों के हाथ में थी; परंतु कंपनी सरकार झाँसी की छावनी में अपनी सेना और तोपें बढ़ाने में व्यस्त थी। इससे मन में कुछ खटका उत्पन्न होता था।

शोक संवेदना के उपरांत नाना के दोनों भाई बिठूर चले गए। नाना और तात्या रह गए।

विकट ठंड थी। ठिठुरा देनेवाली। दीन-दरिद्रों के दाँत-से-दाँत बजानेवाली। उसपर संध्या से ही बादल घिर आए। आँधी चल उठी और पानी बरस पड़ा। नाना और तात्या रानी से बातचीत करने संध्या के पहले ही किले के महल में गए। भोजन के उपरांत बातचीत होनी थी और फिर डेरे को लौटना था। परंतु ऋतु की कठोरता के कारण उनके विश्राम का वहीं प्रबंध करवा दिया गया।

दीवाने खास में बैठक हुई। सुंदर, मुंदर और काशीबाई भी रानी के साथ थीं। रानी का मुख दुर्बल होने के कारण जरा लंबा जान पड़ता था। तो भी उस सतेज सौंदर्य के आतंक में वही आदर उत्पन्न करनेवाला ओज था, विशाल आँखों की ज्योति और भी ज्वलंत थी। रानी कोई आभूषण नहीं पहने थीं-केवल गले में मोतियों की एक माला और हाथ में हीरे की अंगूठी। श्वेत साड़ी पर एक मोटा श्वेत दुशाला ओढ़े थीं। सहेलियाँ भी जेवरों का त्याग करना चाहती थीं, परंतु रानी के आग्रह से उन्होंने ऐसा नहीं किया था।

रानी-'बुंदेलखंड के रजवाड़े बुझे हुए दीपक हैं! उनमें तेल है, परंतु लौ नहीं।'

नाना-'क्या उनमें लौ पैदा नहीं की जा सकती?'

रानी-'कह नहीं सकती। तुमने ढूँढ़-खोज की? मैं तो बाहर आने-जाने से विवश रही हूँ, और हूँ।'

तात्या-'मैं यों ही घूमा-फिरा हूँ। विशेष तौर पर यहाँ के किसी राजा ने प्रसंग नहीं छेड़ा। परंतु वातावरण बिलकुल ठस जान पड़ा। राजाओं को अपने सरदारों और प्रजा से प्रणाम लेने में सुख की इति अनुभव होती है। हास-विलास और सुरापान में मस्त रहते हैं।'

रानी-'वीरसिंहदेव, छत्रसाल और दलपति के बुंदेलखंड का हाल कुछ और होना चाहिए था।'

नाना-'लखनऊ और दिल्ली का हाल कुछ अच्छा है।'

तात्या-'बहुत दिन हुए जब मैं रानी साहब को लखनऊ, दिल्ली की परिस्थिति सुना गया था।'

रानी-'तुम लोग मुझसे रानी साहब मत कहा करो। अच्छा नहीं लगता।'

तात्या-'बाईसाहब कहूँगा।'

नाना-'दिल्ली का हाल मैं सुनाता हूँ। बादशाह वृद्ध है। अपनी स्थिति में बहुत दुखी है। मन के महाकष्ट को कविता में होकर घटाता रहता है। उसके राजकुमार कुछ होनहार जान पड़ते हैं, परंतु दिल्ली के राजकुमारों में जिस आयु में प्रायः घुन लग जाता है, कदाचित् इनको भी लग जाएगा।'

रानी-'ग्वालियर?'

नाना-'राजा का अभी लड़कपन है। अंग्रेज प्रबंध कर रहे हैं।' रानी-'इंदौर?'

तात्या-'इंदौर मैं गया था। वहाँ का तो कचूमर ही निकल गया है।'

रानी-'हैदराबाद?'

तात्या-'वहाँ नहीं गया। परंतु इतना निर्विवाद समझिए कि हैदराबाद अंग्रेजों का परमभक्त है। जनता अपने साथ है।'

रानी-'पंजाब की सिक्ख रियासत?'

नाना-'वहाँ मैं कहीं-कहीं गया। सिक्खों में अंग्रेजों को पछाड़ने की शक्ति होते हुए भी फूट इतनी विकट है और राजा इतने स्वार्थांध हैं कि अंग्रेज उस ओर से बिलकुल निश्चित रह सकते हैं।'

रानी-'झाँसी में तो अब कुछ है ही नहीं। जो कुछ है भी, संभव है कि वह भी हाथ में न रहे।'

नाना-'झाँसी में ही तो हम लोगों का सब कुछ है। मनू बाईसाहब, झाँसी ही तो हम लोगों की एक आशा है।'

लक्ष्मीबाई के फीके होंठों पर वही विलक्षण मुसकराहट क्षीण रूप में आई। बोलीं, 'क्या आशा है?'

तात्या ने कहा, 'दामोदरराव की गोद स्वीकार की जावेगी, ऐसा विश्वास है। एलिस ने गोलमोल अवश्य लिखा है, परंतु कलकत्ता में अपने कुछ मित्र हैं, वे सब लोग कुछ सहायता करेंगे।'

रानी ने कहा, 'एलिस, मालकम सब एक ही थैली के चट्टे-बट्टे हैं। ये लोग अपने लाट के नेत्रकोर की संकेत पर चलते हैं। मैंने यहाँ से पूरनचंद्र बंगाली बाबू को कलकत्ता भेजा है। वह बहुत अंग्रेजी पढ़ा है। लाट से स्वयं मिलेगा और हमारी बात को समझाएगा। क्या कंपनी सरकार का लाट हमारे इतने बड़े संधि-पत्र को समूचा निगल जाएगा?'

तात्या ने सहेलियों की ओर देखा।

रानी समझ गई। बोलीं, 'ये तीनों मेरी अत्यंत विश्वासपात्र हैं। बिना किसी हिचक के बात किए जाओ।'

नाना ने कहा, 'मुझको मालूम है। ये मराठा हैं।'

'झाँसी की लगभग सभी स्त्रियों का विश्वास किया जा सकता है।'

रानी बोलीं, 'ये तीनों तो स्त्रियों की मानो पराग हैं।'

नाना ने कहा, 'बाईसाहब, यह लाट और इसके भाई-बंद 'यावच्चंद्र दिवाकरौ'-वाली संधि को समूचा ही पचा गए हैं। झाँसीवाली संधि में न तो दिवाकर की सौगंध है और न चंद्रमा की। ये लोग किसी चीज को पवित्र नहीं समझते। इनकी लिखतम का, इनकी बात का, कोई भरोसा नहीं। हमारी पेंशन के छीनने के समय कहा था-तीस-बत्तीस साल में आठ लाख रुपया साल के हिसाब से तीन करोड़ रुपया बैठता है। वह सब कहाँ डाला? इनका विश्वास नहीं करना चाहिए।'

रानी ने वैसे ही मुसकराकर पूछा, 'क्या ये लोग सीधे-साधे गणित को भी धोखा देते हैं?'

नाना जरा हँसा।

तात्या ने उत्तर दिया, 'बाईसाहब ये लोग अपने स्वार्थपर अचल रूप से डटे रहते हैं। जब तक स्वार्थ पर ठोकर लगने का अंदेशा नहीं रहता तब तक हरिश्चंद्र और युधिष्ठिर का-सा बरताव करते हैं, परंतु जहाँ देखते है कि स्वार्थ को धक्का लग जावेगा, तुरंत पैंतरा बदल देते हैं। और इतने धूर्त हैं कि इनमें से कुछ न्याय करने-करवाने का ढोंग बनाते हैं और दूसरे उसी ढोंग की ओट में स्वार्थ की सिद्धि करते हैं। जैसे, हेस्टिंग्स ने अवध की बेगमों को लूटा। कुछ अंग्रेजों ने उस पर मुकद्दमा चलाया। बाकी ने इनाम देकर उसको छोड़ दिया। इधर बिचारा नंदकुमार बंगाली फाँसी पर चढ़ा दिया गया।'

रानी ने प्रश्न किया, 'लखनऊ का अब क्या हाल है?'

नाना ने उत्तर दिया, 'पहले का हाल तात्या बतला गया था। अब तो वहाँ शून्य है। जनता निस्संदेह जीवटवाली है।'

रानी ने जरा सोचकर कहा, 'मैं इन सब बातों को सुनकर इस निष्कर्ष पर पहुँची हूँ कि जनता के चित्त का पता अभी पूरा नहीं लगाया गया है। जनता असली शक्ति है। मुझको विश्वास है कि वह अक्षय है। छत्रपति ने जनता के भरोसे ही इतने बड़े दिल्ली सम्राट् को ललकारा था। राजाओं के भरोसे नहीं। मावले, कणभी किसान थे और अब भी हैं। उनके हलों की मूठ में स्वराज्य और स्वतंत्रता की लालसा बँधी रहती है। यहाँ की जनता को भी मैं ऐसा ही समझती हूँ। उसको छत्रपति ने नेतृत्व दिया था। यहाँ की जनता को तुम दो।'

वे दोनों सिर नीचा करके कुछ सोचने लगे। रानी ने अपनी सहेलियों की ओर देखकर कहा, 'तुम लोग क्या कहती हो?'

सुंदर ने तुरंत उत्तर दिया, 'मैं सरकार, कुणभी हैं। और क्या कहूँ? आपकी आज्ञा पालन करते हुए मरने के समय आगा-पीछा नहीं सोचूंगी।'

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रचनाएँ
झाँसी की रानी-लक्ष्मीबाई (उपन्यास भाग 1)
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वृन्दावनलाल वर्मा (०९ जनवरी, १८८९ - २३ फरवरी, १९६९) हिन्दी नाटककार तथा उपन्यासकार थे। हिन्दी उपन्यास के विकास में उनका योगदान महत्त्वपूर्ण है। उन्होंने एक तरफ प्रेमचंद की सामाजिक परंपरा को आगे बढ़ाया है तो दूसरी तरफ हिन्दी में ऐतिहासिक उपन्यास की धारा को उत्कर्ष तक पहुँचाया है। वृंदावनलाल वर्मा के उपन्यासों में नारी पात्र प्रबल और प्रधान है। वर्मा जी की अपने आदर्श नारी पात्रों के विषय में एक धारणा है , स्त्री के भौतिक सौन्दर्य और बाह्य आकर्षण तक वह सीमित नहीं रह जाते , उसमें दैवी गुणों को देखना उन्हें भला लगता है। नारी के बाह्य सौन्दर्य और लावण्य के परे उसमें निहित आंतरिक तेज की खोज तथा उसके बाह्य और आंतरिक गुणों में सामंजस्य स्थापित करना उनका लक्ष्य रहता है। उनकी यह नारी पुरुष से कहीं ऊँची है। उनकी दृष्टि में पुरुष शक्ति है तो नारी उसकी संचालक प्रेरणा। प्रारम्भ के उपन्यासों में नारी विषयक उनकी धारणा अधिक कल्पनामय तथा रोमांटिक रही है। वह प्रेयसी के रूप में आती है , पे्रमी के जीवन लक्ष्य की केन्द्र और उसकी पूजा - अर्चना की पावन प्रतिमा बनकर। तारा ( गढ़ कुंडार ) तथा कुमुद ( विराटा की पद्मिनी ) उपन्यासकार की इसी प्रारम्भिक प्रवृत्ति की देन है। अगले उपन्यासों में लेखक की प्रौढ़ धारणा कल्पनाकाश की उड़ानों से भर कर संघर्षमयी इस कठोर पर उतर आती है। ये नारी पात्र पुरुष पात्रों को प्रेरणा ही नहीं देते , संसार के संघर्षों में स्वयं जूझते हुए अपनी शक्ति का भी परिचय देते हैं। कचनार ( कचनार ) , मृगनयनी तथा लाखी ( मृगनयनी ) , रूपा ( सोना ) और नूरबाई ( टूटे काँटे ) ऐसे ही पात्र है। लक्ष्मीबाई ( लक्ष्मीबाई ) तथा अहिल्याबाई ( अहिल्याबाई ) में ये गुण अपने चरम पर दीख पड़ते हैं।
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झाँसी की रानी-लक्ष्मीबाई (भाग 1)

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उदय वर्षा का अंत हो गया। क्वार उतर रहा था। कभी-कभी झीनी-झीनी बदली हो जाती थी। परंतु उस संध्या के समय आकाश बिलकुल स्वच्छ था। सूर्यास्त होने में थोड़ा विलम्ब था। बिठूर के बाहर गंगा के किनारे तीन अश्वार

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मनूबाई सवेरे नाना को देखने पहुँच गई। वह जाग उठा था, पर लेटा हुआ था। मनू ने उसके सिर पर हाथ फेरा। स्निग्ध स्वर में पूछा, ‘नींद कैसी आई ?’ ‘सोया तो हूँ, पर नींद आई-गई बनी रही। कुछ दर्द है।’ नाना ने उ

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थोड़ी देर में घंटा बजाता हुआ हाथी लौट आया। मनू दौड़कर बाहर आई। एक क्षण ठहरी और आह खींचकर भीतर चली गई। नाना और राव, दोनों बालक, अपनी जगह चले गए। बाजीराव ने नाना को पुचकारकर पूछा, ‘दर्द बढ़ा तो नहीं ?’

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भोजनोपरांत तात्या दीक्षित से बाजीराव और मोरोपंत मिले। तात्या दीक्षित झाँसी से बिठूर आए हुए थे। वह ज्योतिष और तंत्र के शास्त्री थे। काशी, नागपुर, पूना इत्यादि घूमे हुए थे। महाराष्ट्र समाज से काफी परिचि

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महाराष्ट्र में सतारा के निकट वाई नाम का एक गाँव है। पेशवा के राज्यकाल में वहाँ कृष्णराव ताँबे को एक ऊँचा पद प्राप्त था। कृष्णराव ताँबे का पुत्र बलवंतराव पराक्रमी था। उसको पेशवा की सेना में उच्च पद मिल

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तात्या दीक्षित आदर और भेंट सहित बिठूर से झाँसी लौट आए। उन्हें मालूम था कि मन्‌बाई के लिए जितना अच्छा वर ढुँढ़कर दूँगा, उतना ही अधिक बाजीराव संतुष्ट होंगे। और उस संतोष का फल उनकी जेब के लिए उतना ही महत

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राजा के अन्य कर्मचारियों के साथ तात्या दीक्षित बिठूर गए। मोरोपंत और बाजीराव को संवाद सुनाया। उन्होंने स्वीकार कर लिया। गंगाधरराव की आयु का कोई लिहाज नहीं किया गया। मनूबाई का श्रृंगार कराया गया। रंगीन

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झाँसी में उस समय मंत्रशास्त्री, तंत्रशास्त्री वैद्य, रणविद् इत्यादि अनेक प्रकार के विशेषज्ञ थे । शाक्त, शैव, वाममार्गी, वैष्णव सभी काफी तादाद में । अधिकांश वैष्णव और शैव। और ऐसे लोगों की तो बहुतायत ही

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एक दिन जरा सवेरे ही पजनेश नारायण शास्त्री के घर पहुँचे। शास्त्री अपनी पौर में बैठे थे, जैसे किसी की बाट देख रहे हों। पजनेश को कई बार आओ-आओ कहकर बैठाया: परंतु पजनेश ने यदि शास्त्री की आँख की कोर को बार

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पजनेश जिस पक्ष का अभी तक जोरदार समर्थन करते चले आए थे उसको उन्होंने छोड़ दिया। नारायण शास्त्री लगभग खामोश हो गए। नए उपनीतों ने लड़ाई स्वयं अपने हाथ में ले ली और एकाध जगह वह लड़ाई जीभ से खिसककर हाथ और

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जनेऊ विरोधी पक्षवाले किले से परम प्रसन्‍न लौटे। अपने पक्ष की विजय का समाचार बहुत गंभीरता के साथ सुनाना शुरू करते थे और फिर पर-पक्ष की मिट्टी पलीद होने की बात खिलखिलाकर हँसते हुए समाप्त करते थे। शहर-भर

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जनेऊ का प्रश्न समाप्त नहीं हुआ था कि यह विकट रोरा खड़ा हो गया। जिन थोड़े से लोगों का जीवन विविध समस्याओं के काँटों पर होकर सफलतापूर्वक गुजर रहा था, वे तो नारायण शास्त्री के कृत्य की निंदा करते ही थे,

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मोरोपंत, मनूबाई इत्यादि के ठहरने के लिए कोठी कुआँ के पास एक अच्छा भवन शीघ्र ही तय हो गया था। तात्या टोपे कुछ दिन झाँसी ठहरा रहा। निवास-स्थान की सूचना बिठूर शीघ्र भेज दी। टोपे को बिठूर की अपेक्षा झाँस

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यथासमय मोरोपंत मनूबाई को लेकर झाँसी आ गए। तात्या टोपे भी साथ आया। विवाह का मुहूर्त शोधा जा चुका था। धूमधाम के साथ तैयारियाँ होने लगीं। नगरवाले गणेश मंदिर में सीमंती, वर-पूजा इत्यादि रीतियाँ पूरी की गई

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सीमंती इत्यादि की प्रथाएँ पूरी होने के उपरांत गणेश मंदिर में गायन-वादन और नृत्य हुए और एक दिन विवाह का भी मुहूर्त आया। विवाह के उत्सव पर आसपास के राजा भी आए। उनमें दतिया के राजा विजय बहादुरसिह खासतौर

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विवाह होने के पहले गंगाधरराव को शासन का अधिकार न था। उन दिनों झाँसी का नायब पॉलिटिकल एजेंट कप्तान डनलप था। वह राजा के पास आया-जाया करता था। लोग कहते थे कि दोनों में मैत्री है। गंगाधरराव अधिकार प्राप्

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राजा गंगाधरराव और रानी लक्ष्मीबाई का कुछ समय लगभग इसी प्रकार कटता रहा। १८५० में (माघ सुदी सप्तमी संवत्‌ १९०७) वे सजधज के साथ (कंपनी सरकार की इजाजत लेकर!) प्रयाग, काशी, गया इत्यादि की यात्रा के लिए गए।

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राजा गंगाधरराव पुरातन पंथी थे। वे स्त्रियों की उस स्वाधीनता के हामी न थे जो उनको महाराष्ट्र में प्राप्त रही है। दिल्‍ली, लखनऊ के परदे के बंधेजों को वे जानते थे। उतने बंधेज वे अपने रनवास में उत्पन्न नह

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कप्तान गार्डन झाँसी-स्थित अंग्रेजी सेना का एक अफसर था। हिंदी खूब सीख ली थी। राजा गंगाधरराव के पास कभी-कभी आया करता था। राजा उसको अपना मित्र समझते थे। वह पूरा अंग्रेज था। साहित्यिक, व्यापार-कुशल, स्वदे

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वसंत आ गया। प्रकृति ने पुष्पांजलियाँ चढ़ाईं। महकें बरसाईं। लोगों को अपनी श्वास तक में परिमल का आभास हुआ। किले के महल में रानी ने चैत की नवरात्रि में गौरी की प्रतिमा की स्थापना की। पूजन होने लगा। गौरी

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नाटकशाला की ओर से गंगाधरराव की रूचि कम हो गई। वे महलों में अधिक रहने लगे। परंतु कचहरी-दरबार करना बंद नहीं किया। न्याय वे तत्काल करते थे- उलटा-सीधा जैसा समझ में आया, मनमाना। दंड उनके कठोर और अत्याचारपू

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जिस दिन गंगाधरराव के पुत्र हुआ उस दिन संवत् १९०८ (सन् १८५१) की अगहन सुदी एकादशी थी। यों ही एकादशी के रोज मंदिरों में काफी चहल-पहल रहती थी, उस एकादशी को तो आमोद-प्रमोद ने उन्माद का रूप धारण कर लिया। अप

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लक्ष्मीबाई का बच्चा लगभग दो महीने का हो गया। परंतु वे सिवाय किले के उद्यान में टहलने के और कोई व्यायाम नहीं कर पाती थीं। शरीर अभी पूरी तौर पर स्वस्थ नहीं हुआ था। मन उनका सुखी था, लगभग सारा समय बच्चे क

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गंगाधरराव का यह बच्चा तीन महीने की आयु पाकर मर गया। इसका सभी के लिए दुःखद परिणाम हुआ। राजा के मन और तन पर इस दुर्घटना का स्थायी कुप्रभाव पड़ा। वे बराबर अस्वस्थ रहने लगे। लगभग दो वर्ष राजा-रानी के काफ

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झाँसी की जनता के पंचों, सरदारों और सेठ-साहूकारों को, जो इस उत्सव पर निमंत्रित किए गए थे, इत्र, पान, भेंट इत्यादि से सम्मानित करके बिदा किया गया। केवल मेजर एलिस, कप्तान मार्टिन, मोरोपंत और प्रधानमंत्री

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जिस इमारत में आजकल डिस्ट्रिक्ट बोर्ड का दफ्तर है, वह उस समय डाकबंगले के काम आता था। पास ही झाँसी प्रवासी अंग्रेजों का क्लब घर था। एलिस और मार्टिन राजा के पास से आकर सीधे क्लब गए। वहाँ और कई अंग्रेज आम

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एलिस का भेजा हुआ राजा गंगाधरराव का १९ नवंबर का खरीता और उनके देहांत का समाचार मालकम के पास जैसे ही कैथा पहुँचा, उसने गवर्नर जनरल को अपनी चिट्ठी अविलंब (२५ नवंबर के दिन) भेज दी। चिट्ठी के साथ एलिस का भ

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