दूसरे दिन संध्या के समय राजा वीरेंद्रसिंह अपने खेमे में बैठे रोहतासगढ़ के बारे में बातचीत करने लगे। पंडित बद्रीनाथ, भैरोसिंह, तारासिंह, ज्योतिषीजी, कुंअर आनंदसिंह और तेजसिंह उनके पास बैठे हुए थे। अपने-अपने तौर पर सभों ने रोहतासगढ़ के तहखाने का हाल कह सुनाया और अन्त में वीरेंद्रसिंह से बातचीत होने लगी।
वीरेंद्र - रोहतासगढ़ के बारे में अब क्या करना चाहिए
तेज - इसमें तो कोई शक नहीं कि रोहतासगढ़ के मालिक आप हो चुके। जब राजा और दीवान दोनों आपके कब्जे में आ गये तो अब किस बात की कसर रह गई हां अब यह सोचना है कि राजा दिग्विजयसिंह के साथ क्या सलूक करना चाहिए
वीरेंद्र - और किशोरी के लिए क्या बंदोबस्त करना चाहिए
तेज - जी हां यही दो बातें हैं। किशोरी के बारे में तो मैं अभी कुछ कह नहीं सकता, बाकी राजा दिग्विजयसिंह के बारे में पहले आपकी राय सुनना चाहता हूं।
वीरेंद्र - मेरी राय तो यही हे कि यदि वह सच्चे दिल से ताबेदारी कबूल करे तो रोहतासगढ़ पर खिराज (मालगुजारी) मुकर्रर करके उसे छोड़ देना चाहिए।
तेज - मेरी भी यही राय है।
भैरो - यदि वह इस समय कबूल करने के बाद पीछे बेईमानी पर कमर बांधे तो
तेज - ऐसी उम्मीद नहीं है। जहां तक मैंने सुना है वह ईमानदार, सच्चा और बहादुर जाना गया है, ईश्वर न करे यदि उसकी नीयत कुछ दिन बाद बदल भी जाए तो हम लोगों को इसकी परवाह न करनी चाहिए।
वीरेंद्र - इसका विचार कहां तक किया जाएगा! (तारासिंह की तरफ देखकर) तुम जाओ दिग्विजयसिंह को ले आओ, मगर मेरे सामने हथकड़ी-बेड़ी के साथ मत लाना।
'जो हुक्म' कहकर तारासिंह दिग्विजयसिंह को लाने के लिए चले गये और थोड़ी ही देर में उन्हें अपने साथ लेकर हाजिर हुए, तब तक इधर-उधर की बात होती रहीं। दिग्विजयसिंह ने अदब के साथ राजा वीरेंद्रसिंह को सलाम किया और हाथ जोड़कर सामने खड़ा हो गया।
वीरेंद्र - कहिये, अब क्या इरादा है
दिग्विजय - यही कि जन्म भर आपके साथ रहूं और ताबेदारी करूं।
वीरेंद्र - नीयत में किसी तरह का फर्क तो नहीं है
दिग्विजय - आप जैसे प्रतापी राजा के साथ खुटाई रखने वाला पूरा कम्बख्त है। वह पूरा बेवकूफ है जो किसी तरह पर आपसे जीतने की उम्मीद रखे। इसमें कोई शक नहीं कि आपके एक ऐयार दस-दस राज्य गारत कर देने की सामर्थ्य रखते हैं। मुझे इस रोहतासगढ़ किले की मजबूती पर बड़ा भरोसा था, मगर अब निश्चय हो गया कि वह मेरी भूल थी। आप जिस राज्य को चाहें बिना लड़े फतह कर सकते हैं। मेरी तो अक्ल नहीं काम करती, कुछ समझ में नहीं आता कि क्या हुआ और आपके ऐयारों ने क्या तमाशा कर दिया। सैकड़ों वर्षों से जिस तहखाने का हाल एक भेद के तौर पर छिपा चला आता था, बल्कि सच तो यह है कि जहां का ठीक-ठीक हाल अभी तक मुझे भी मालूम न हुआ उसी तहखाने पर बात की बात में आपके ऐयारों ने कब्जा कर लिया, यह करामात नहीं तो क्या है! बेशक ईश्वर की आप पर कृपा है और यह सब सच्चे दिल से उपासना का प्रताप है। आपसे दुश्मनी रखना अपने हाथ से अपना सिर काटना है।
दिग्विजयसिंह की बात सुनकर राजा वीरेंद्रसिंह मुस्कराए और उनकी तरफ देखने लगे। दिग्विजयसिंह ने जिस ढंग से ऊपर लिखी बातें कहीं उसमें सचाई की बू आती थी। वीरेंद्रसिंह बहुत खुश हुए और दिग्विजयसिंह को अपने पास बैठाकर बोले -
वीरेंद्र - सुनो दिग्विजयसिंह, हम तुम्हें छोड़ देते हैं और रोहतासगढ़ की गद्दी पर अपनी तरफ से तुम्हें बैठाते हें मगर इस शर्त पर कि तुम हमेशा अपने को हमारा मातहत समझो और खिराज की तौर पर कुछ मालगुजारी दिया करो।
दिग्विजय - मैं तो अपने को आपका ताबेदार समझ चुका अब क्या समझूंगा, बाकी रही रोहतासगढ़ की गद्दी, सो मुझे मन्जूर नहीं। इसके लिए आप कोई दूसरा नायब मुकर्रर कीजिए और मुझे अपने साथ रहने का हुक्म कीजिये।
वीरेंद्र - तुमसे बढ़कर और कोई नायब रोहतासगढ़ के लिए मुझे दिखाई नहीं देता।
दिग्विजय - (हाथ जोड़कर) बस मुझ पर कृपा कीजिये, अब राज्य का जंजाल मैं नहीं उठा सकता।
आधे घंटे तक यही हुज्जत रही। वीरेंद्रसिंह अपने हाथ से रोहतासगढ़ की गद्दी पर दिग्विजयसिंह को बैठाना चाहते थे और दिग्विजयसिंह इन्कार करते थे, लेकिन आखिर लाचार होकर दिग्विजयसिंह को वीरेंद्रसिंह का हुक्म मंजूर करना पड़ा, मगर साथ ही इसके उन्होंने वीरेंद्रसिंह से इस बात का इकरार करा लिया कि महीने भर तक आपको मेरा मेहमान बनना पड़ेगा और इतने दिनों तक रोहतासगढ़ में रहना पड़ेगा।
वीरेंद्रसिंह ने इस बात को खुशी से मंजूर कर लिया, क्योंकि रोहतासगढ़ के तहखाने का हाल उन्हें बहुत कुछ मालूम करना था। वीरेंद्रसिंह और तेजसिंह को विश्वास हो गया था कि वह तहखाना जरूर कोई तिलिस्म है।
राजा दिग्विजयसिंह ने हाथ जोड़कर तेजसिंह की तरफ देखा और कहा, ''कृपा कर मुझे समझा दीजिये कि आप और आपके मातहत ऐयार लोगों ने रोहतासगढ़ में क्या किया, अभी तक मेरी अक्ल हैरान है।''
तेजसिंह ने सब बात खुलासे तौर पर कह सुनायी। दीवान रामानंद का हाल सुन दिग्विजयसिंह खूब हंसे बल्कि उन्हें अपनी बेवकूफी पर भी हंसी आई और बोले, ''आप लोगों से कोई बात दूर नहीं है।'' इसके बाद दीवान रामानंद भी उसी जगह बुलवाये गये और दिग्विजयसिंह के हवाले किये गए और दिग्विजयसिंह के लड़के कुंअर कल्याणसिंह को लाने के लिए भी कई आदमी चुनारगढ़ रवाना किए गए।
इन सब कामों से छुट्टी पाकर लाली के बारे में बातचीत होने लगी। तेजसिंह ने दिग्विजयसिंह से पूछा कि लाली कौन है और आपके यहां कब से है इसके जवाब में दिग्विजयसिंह ने कहा कि लाली को हम बखूबी नहीं जानते। महीने भर से ज्यादा न हुआ होगा कि चार-पांच दिन के आगे-पीछे लाली और कुंदन दो नौजवान औरतें मेरे यहां पहुंचीं। उनकी चालढाल और पोशाक से मुझे मालूम हुआ कि किसी इज्जतदार घराने की लड़कियां हैं। पूछने पर उन दोनों ने अपने को इज्जतदार घराने की लड़की जाहिर भी किया और कहा कि मैं अपनी मुसीबत के दो-तीन महीने आपके यहां काटना चाहती हूं। रहम खाकर मैंने उन दोनों को इज्जत के साथ अपने यहां रखा, बस इसके सिवाय और मैं कुछ नहीं जानता।
तेज - बेशक इसमें कोई भेद है, वे दोनों साधारण औरतें नहीं हैं।
ज्योतिषी - एक ताज्जुब की बात मैं सुनाता हूं।
तेज - वह क्या?
ज्योतिषी - आपको याद होगा कि तहखाने का हाल कहते समय मैंने कहा था कि जब तहखाने में किशोरी और लाली को मैंने देखा तो दोनों का नाम लेकर पुकारा जिससे उन दोनों को आश्चर्य हुआ।
तेज - हां-हां, मुझे याद है, मैं यह पूछने ही वाला था कि लाली को आपने कैसे पहचाना?
ज्योतिषी - बस यही वह ताज्जुब की बात है जो अब मैं आपसे कहता हूं।
तेज - कहिए, जल्द कहिए।
ज्योतिषी - एक दफे रोहतासगढ़ के तहखाने में बैठे-बैठे मेरी तबीयत घबड़ाई तो मैं कोठरियों को खोल-खोलकर देखने लगा। उस ताली के झब्बे में जो मेरे हाथ लगा था एक ताली सबसे बड़ी है जो तहखाने की सब कोठरियों में लगती है मगर बाकी बहुत-सी तालियों का पता मुझे अभी तक नहीं लगा कि कहां की हैं।
तेज - खैर तब क्या हुआ
ज्योतिषी - सब कोठरियों में अंधेरा था, चिराग ले जाकर मैं कहां तक देखता, मगर एक कोठरी में दीवार के साथ चमकती हुई कोई चीज दिखाई दी। यद्यपि कोठरी में बहुत अंधेरा था तो भी अच्छी तरह मालूम हो गया कि यह कोई तस्वीर है। उस पर ऐसा मसाला लगा हुआ था कि अंधेरे में भी वह तस्वीर साफ मालूम होती थी, आंख, कान, नाक बल्कि बाल तक मालूम होते थे। तस्वीर के नीचे 'लाली' ऐसा लिखा हुआ था। मैं बड़ी देर तक ताज्जुब से उस तस्वीर को देखता रहा, आखिर कोठरी बंद करके अपने ठिकाने चला आया, उसके बाद जब किशोरी के साथ मैंने लाली को देखा तो साफ पहचान लिया कि वह तस्वीर इसी की है। मैंने तो सोचा था कि लाली उसी जगह की रहने वाली है। इसीलिए उसकी तस्वीर वहां पाई गई, मगर इस समय महाराज दिग्विजयसिंह की जुबानी उसका हाल सुनकर ताज्जुब होता है, लाली अगर वहां की रहने वाली नहीं तो उसकी तस्वीर वहां कैसे पहुंची।
दिग्विजय - मैंने अभी तक वह तस्वीर नहीं देखी, ताज्जुब है!
वीरेंद्र - अभी क्या जब मैं आपको साथ लेकर अच्छी तरह उस तहखाने की छानबीन करूंगा तो बहुत-सी बातें ताज्जुब की दिखाई पड़ेंगी।
दिग्विजय - ईश्वर करे जल्द ऐसा मौका आये, अब तो आपको बहुत जल्द रोहतासगढ़ चलना चाहिए।
वीरेंद्र - (तेजसिंह की तरफ देखकर) इंद्रजीतसिंह के बारे में क्या बंदोबस्त हो रहा है
तेज - मैं बेफिक्र नहीं हूं, जासूस लोग चारों तरफ भेजे गये हैं इस समय तक रोहतासगढ़ की कार्रवाई में फंसा हुआ था, अब स्वयं उनकी खोज में जाऊंगा, कुछ पता लगा भी है।
वीरेंद्र - हां! क्या पता लगा है
तेज - इसका हाल कल कहूंगा आज भर और सब्र कीजिये।
राजा वीरेंद्रसिंह अपने दोनों लड़कों को बहुत चाहते थे, इंद्रजीतसिंह के गायब होने का रंज उन्हें बहुत था, मगर वह अपने चित्त के भाव को भी खूब ही छिपाते थे और समय का ध्यान उन्हें बहुत रहता था। तेजसिंह का भरोसा उन्हें बहुत था और उन्हें मानते भी बहुत थे, जिस काम से उन्हें तेजसिंह रोकते थे उसका नाम फिर वह जुबान पर तब तक न लाते थे जब तक तेजसिंह स्वयं उसका जिक्र न छेड़ते, यही सबब था कि इस समय वे तेजसिंह के सामने इंद्रजीतसिंह के बारे में कुछ न बोले।
दूसरे दिन महाराज दिग्विजयसिंह सेना सहित तेजसिंह को रोहतासगढ़ किले में ले गये। कुंअर आनंदसिंह के नाम का डंका बजाया गया। यह मौका ऐसा था कि खुशी के जलसे होते मगर कुंअर इंद्रजीतसिंह के खयाल से किसी तरह की खुशी न की गई।
राजा दिग्विजयसिंह के बर्ताव और खातिरदारी से राजा वीरेंद्रसिंह और उनके साथी लोग बहुत प्रसन्न हुए। दूसरे दिन दीवानखाने में थोड़े आदमियों की कमेटी इसलिए की गई कि अब क्या करना चाहिए। इस कमेटी में केवल नीचे लिखे बहादुर और ऐयार लोग इकट्ठे थे - राजा वीरेंद्रसिंह, कुंअर आनंदसिंह, तेजसिंह, देवीसिंह, पंडित बद्रीनाथ, ज्योतिषीजी, महाराज दिग्विजयसिंह और रामानंद। इनके अतिरिक्त एक और आदमी मुंह पर नकाब डाले मौजूद था जिसे तेजसिंह अपने साथ लाये थे और उसे अपनी जमानत पर कमेटी में शरीक किया था।
वीरेंद्र - (तेजसिंह की तरफ देखकर) इस नकाबपोश आदमी के सामने जिसे तुम अपने साथ लाये हो हम लोग भेद की बातें कर सकते हैं
तेज - हां-हां, कोई हर्ज की बात नहीं है।
वीरेंद्र - अच्छा तो अब हम लोगों को एक तो किशोरी का पता लगाने का, दूसरे यहां के तहखाने से जो बहुत-सी बातें जानने और विचारने लायक हैं उनके मालूम करने का, तीसरे इंद्रजीतसिंह के खोजने का बंदोबस्त सबसे पहले करना चाहिए। (तेजसिंह की तरफ देखकर) तुमने कहा था कि इंद्रजीतसिंह का कुछ हाल मालूम हो चुका है।
तेज - जी हां बेशक मैंने कहा था और उसका खुलासा हाल इस समय आपको मालूम हुआ चाहता है, मगर इसके पहले मैं दो-चार बातें राजा साहब से (दिग्विजयसिंह की तरफ इशारा करके) पूछा चाहता हूं जो बहुत जरूरी हैं, इसके बाद अपने मामले में बातचीत करूंगा।
वीरेंद्र - कोई हर्ज नहीं।
दिग्वि - हां-हां पूछिये।
तेज - आपके यहां शेरसिंह1 नाम का कोई ऐयार था?
दिग्वि - हां था, बेचारा बहुत ही नेक, ईमानदार, मेहनती आदमी था और ऐयारी के फन में पूरा ओस्ताद था, रामानंद और गोविंदसिंह उसी के चेले हैं। उसके भाग जाने का मुझे बहुत ही रंज है। आज के दो-तीन दिन पहले दूसरे तरह का रंज था मगर आज और तरह का अफसोस है।
तेज - दो तरह के रंज और अफसोस का मतलब मेरी समझ में नहीं आया, कृपा करके साफ-साफ कहिये।
दिग्वि - पहले उसके भाग जाने का अफसोस क्रोध के साथ था मगर आज इस बात का अफसोस है कि जिन बातों को सोचकर वह भागा वे बहुत ठीक थीं, उसकी तरफ से मेरा रंज होना अनुचित था, यदि इस समय वह होता तो बड़ी खुशी से आपके काम में मदद करता।
तेज - उससे आप क्यों रंज हुए थे और वह क्यों भाग गया था
दिग्वि - इसका सबब यह था कि जब मैंने किशोरी को अपने कब्जे में कर लिया तो उसने मुझे बहुत कुछ समझाया और कहा कि 'आप ऐसा काम न कीजिए बल्कि किशोरी को राजा वीरेंद्रसिंह के यहां भेज दीजिए।' यह बात मैंने मंजूर न की बल्कि उससे रंज होकर मैंने इरादा कर लिया कि उसे कैद कर लूं। असल बात यह है कि मुझसे और रणधीरसिंह से दोस्ती थी, शेरसिंह मेरे यहां रहता था और उसका छोटा भाई गदाधरसिंह जिसकी लड़की कमला है, आप उसे जानते होंगे!...
तेज - हां-हां, हम सब कोई उसे अच्छी तरह जानते हैं।
दिग्वि - खैर तो गदाधरसिंह रणधीरसिंह के यहां रहता था। गदाधरसिंह को मरे बहुत दिन हो गये, इसी बीच में मुझसे और रणधीरसिंह से भी कुछ बिगड़ गई, इधर जब मैंने रणधीरसिंह की नतिनी किशोरी को अपने लड़के के साथ ब्याहने का बंदोबस्त किया तो शेरसिंह को बहुत बुरा
1. शेरसिंह कमला का चाचा, जिसका हाल इस संतति के तीसरे भाग के तेहरवें बयान में लिखा गया है।
मालूम हुआ। मेरी तबीयत भी शेरसिंह से फिर गई। मैंने सोचा कि शेरसिंह की भतीजी कमला हमारे यहां से किशोरी को निकाल ले जाने का जरूर उद्योग करेगी और इस काम में अपने चाचा शेरसिंह से मदद लेगी। यह बात मेरे दिल में बैठ गई और मैंने शेरसिंह को कैद करने का विचार किया। उसे मेरा इरादा मालूम हो गया और वह चुपचाप न मालूम कहां भाग गया।
तेज - अब आप क्या सोचते हैं! उसका कोई कसूर था या नहीं
दिग्वि - नहीं, नहीं, वह बिल्कुल बेकसूर था बल्कि मेरी ही भूल थी जिसके लिए आज मैं अफसोस करता हूं, ईश्वर करे उसका पता लग जाय तो मैं उससे अपना कसूर माफ कराऊं।
तेज - आप मुझे कुछ इनाम दें तो मैं शेरसिंह का पता लगा दूं!
दिग्वि - आप जो मांगेंगे मैं दूंगा और इसके अतिरिक्त आपका भारी अहसान मुझ पर होगा।
तेज - बस मैं यही इनाम चाहता हूं कि यदि शेरसिंह को ढूंढ़कर ले आऊं तो उसे आप हमारे राजा वीरेंद्रसिंह के हवाले कर दें! हम उसे अपना साथी बनाना चाहते हैं।
दिग्व - मैं खुशी से इस बात को मंजूर करता हूं, वादा करने की क्या जरूरत है जबकि मैं स्वयं राजा वीरेंद्रसिंह का ताबेदार हूं।
इसके बाद तेजसिंह ने उस नकाबपोश की तरफ देखा जो उनके पास बैठा हुआ था और जिसे वह अपने साथ इस कमेटी में लाये थे। नकाबपोश ने अपने मुंह पर से नकाब उतारकर फेंक दिया और यह कहता हुआ राजा दिग्विजयसिंह के पैरों पर गिर पड़ा कि 'आप मेरा कसूर माफ करें।' राजा दिग्विजयसिंह ने शेरसिंह को पहचाना, बड़ी खुशी से उठाकर गले लगा लिया और कहा, ''नहीं-नहीं, तुम्हारा कोई कसूर नहीं बल्कि मेरा कसूर है जो मैं तुमसे क्षमा कराया चाहता हूं।''
शेरसिंह तेजसिंह के पास जा बैठे। तेजसिंह ने कहा, ''सुनो शेरसिंह, अब तुम हमारे हो चुके हो!''
शेर - बेशक मैं आपका हो चुका हूं, जब आपने महाराज से वचन ले लिया तो अब क्या उज्र हो सकता है
राजा वीरेंद्रसिंह ताज्जुब से ये बातें सुन रहे थे, अंत में तेजसिंह की तरफ देखकर बोले, ''तुम्हारी मुलाकात शेरसिंह से कैसे हुई'
तेज - शेरसिंह ने मुझसे स्वयं मिलकर सब हाल कहा, असल तो यह है कि हम लोगों पर भी शेरसिंह ने भारी अहसान किया है।
वीरेंद्र - वह क्या
तेज - कुंअर इंद्रजीतसिंह का पता लगाया है और अपने कई आदमी उनकी हिफाजत के लिए तैनात कर चुके हैं, इस बात का भी निश्चय दिला दिया है कि कुंअर इंद्रजीतसिंह को किसी तरह की तकलीफ न होने पावेगी।
वीरेंद्र - (खुश होकर और शेरसिंह की तरफ देखकर) हां! कहां पता लगा और किस हालत में है
शेर - वह सब हाल जो कुछ मुझे मालूम था मैं दीवान साहब (तेजसिंह) से कह चुका हूं वह आपसे कह देंगे, आप उसके जानने की जल्दी न करें। मैं इस समय यहां जिस काम के लिए आया था मेरा वह काम हो चुका अब मैं यहां ठहरना मुनासिब नहीं समझता। आप लोग अपने मतलब की बातचीत करें क्योंकि मदद के लिए मैं बहुत जल्द कुंअर इंद्रजीतसिंह के पास पहुंचा चाहता हूं। हां यदि आप कृपा करके अपना एक ऐयार मेरे साथ कर दें तो उत्तम हो और काम भी शीघ्र हो जाय।
वीरेंद्र - (खुश होकर) अच्छी बात है, आप जाइये और मेरे जिस ऐयार को चाहें लेते जाइये।
शेर - अगर आप मेरी मर्जी पर छोड़ते हैं तो देवीसिंह को अपने साथ के लिए मांगता हूं।
तेज - हां आप खुशी से उन्हें ले जायं। (देवीसिंह की तरफ देखकर) आप तैयारी कीजिए।
देवी - मैं हरदम तैयार रहता हूं। (शेरसिंह से) चलिए अब इन लोगों का पीछा छोड़िए।
देवीसिंह को साथ लेकर शेरसिंह रवाना हुए और इधर इन लोगों में विचार होने लगा कि अब क्या करना चाहिए। घंटे भर में यह निश्चय हुआ कि लाली से कुछ विशेष पूछने की जरूरत नहीं है क्योंकि वह अपना हाल ठीक-ठीक कभी न कहेगी, हां उसे हिफाजत में रखना चाहिए और तहखाने को अच्छी तरह देखना और वहां का हाल मालूम करना चाहिए।