रात पहर भर से ज्यादा जा चुकी है। तेजसिंह उसी दो नम्बर वाले कमरे के बाहर सहन में तकिया लगाये सो रहे हैं। चिराग बालने का कोई सामान यहां मौजूद नहीं जिससे रोशनी करते, पास में कोई आदमी नहीं जिससे दिल बहलाते। बाग से बाहर निकलने की उम्मीद नहीं कि कुमारों को छुड़ाने के लिए कोई बन्दोबस्त करते, लाचार तरह-तरह के तरद्दुदों में पड़े उन पेड़ों पर नजर दौड़ा रहे थे जो सहन के सामने बहुतायत से लगे हुए थे।
यकायक पेड़ों की आड़ में रोशनी मालूम पड़ी। तेजसिंह घबड़ाकर ताज्जुब के साथ उसी तरफ देखने लगे। थोड़ी ही देर में मालूम हुआ कि कोई आदमी हाथ में चिराग लिए तेजी के साथ कदम बढ़ाता उनकी तरफ आ रहा है। देखते-देखते वह आदमी तेजसिंह के पास आ पहुंचा और चिराग एक तरफ रखकर सामने खड़ा हो के बोला, ''जय माया की!''
यह आदमी सिपाहियाना ठाठ में था। छोटी-छोटी स्याह दाढ़ी से इसके चेहरे का ज्यादा हिस्सा ढंका हुआ था, दर्म्याना कद और शरीर से हृष्ट-पुष्ट था। तेजसिंह ने भी यह समझकर कि कोई ऐयार है जवाब में कहा, ''जय माया की!''
सिपाही - (जो अभी आया है) उस्ताद, तुमने चालाकी तो खूब की थी मगर जल्दी करके काम बिगाड़ दिया।
तेजसिंह - चालाकी क्या और जल्दी कैसी?
सिपाही - इसमें तो कोई सन्देह नहीं कि मायारानी के बाग में रूप बदलकर आने वाला ऐयार पागल बने बिना किसी दूसरी रीति से काम चला ही नहीं सकता था परन्तु आपने जल्दी कर दी, दो-चार दिन और पागल बने रहते तो ठीक था, असली बिहारीसिंह की बातों का जवाब आपको न देना पड़ता और इस बाग के तीसरे या चौथे हिस्से का भेद भी आपसे न पूछा जाता, अब तो सभी को मालूम हो गया कि आप असली बिहारीसिंह नहीं बल्कि कोई ऐयार हैं।
तेजसिंह - सब लोग जो चाहे समझें मगर तुम मेरे पास क्यों आये हो?
सिपाही - इसीलिए कि आपका हाल जानूं और जहां तक हो सके आपकी मदद करूं।
तेजसिंह - मैं अपना हाल सिवाय इसके और क्या कहूं कि मैं वास्तव में बिहारीसिंह हूं।
सिपाही - (हंसकर) क्या खूब, अभी तक आपका मिजाज ठिकाने नहीं हुआ! मगर मैं फिर कहता हूं कि मुझ पर भरोसा कीजिये और अपना ठीक-ठीक नाम बताइए।
तेजसिंह - जब तुम यह समझते हो कि मैं ऐयार हूं तो क्या यह नहीं जानते कि ऐयार लोग किसी ऐसे बतोलिए पर जैसे कि आप हैं यकायक कैसे भरोसा कर सकते हैं
सिपाही - हां, आपका कहना ठीक है, ऐयारों को यकायक किसी का विश्वास न करना चाहिए, मगर मेरे पास एक ऐसी चीज है कि आपको झख मारकर मुझ पर भरोसा करना पड़ेगा।
तेजसिंह - (ताज्जुब से) वह ऐसी कौन-सी अनोखी चीज तुम्हारे पास है जिसमें इतना बड़ा असर है कि मुझे झख मारकर तुम पर भरोसा करना पड़ेगा
सिपाही - नेमची रिक्तग्रन्थ!1
1. नेमची रिक्तग्रन्थ - यह ऐयारी भाषा का शब्द है, इसका अर्थ है - खून से लिखी किताब का घर।
'नेमची रिक्तग्रन्थ' इस शब्द में न मालूम कैसा असर था कि सुनते ही तेजसिंह के रोंगटे खड़े हो गए, सिर नीचा कर लिया और न जाने क्या सोचने लगे। थोड़ी देर तक तो ऐसा मालूम होता था कि वह तेजसिंह नहीं हैं बल्कि पत्थर की कोई मूरत हैं। आखिर वे एक लम्बी सांस लेकर उठ खड़े हुए और सिपाही का हाथ पकड़कर बोले, ''अब कहो तुम्हें मैं अपने साथियों में से कोई समझूं या अपना पक्का दुश्मन जानूं'?
सिपाही - दोनों में से कोई भी नहीं।
तेजसिंह - यह और भी ताज्जुब की बात है! (कुछ सोचकर) हां, ठीक है, यदि तुम चोर होते तो इतनी दिलावरी के साथ मुझसे बातें न करते, न मेरे सामने ही आते, लेकिन यह तो मालूम होना चाहिए कि तुम हो कौन, क्या रिक्तग्रन्थ तुम्हारे पास है?
सिपाही - जी नहीं, यदि वह मेरे पास होता तो अब तक राजा वीरेन्द्रसिंह के पास पहुंच गया होता।
तेजसिंह - फिर यह शब्द तुमने कहां से सुना?
सिपाही - यह वही शब्द है जिसे आप लोग समय पड़ने पर आपस में कहकर इस बात का परिचय देते हैं कि हम राजा वीरेन्द्रसिंह के दिली दोस्तों में से कोई हैं।
तेजसिंह - हां बेशक यह वही शब्द है, तो क्या तुम राजा वीरेन्द्रसिंह के दिली दोस्तों में से कोई हो।
सिपाही - नहीं, हां, होंगे।
तेजसिंह - (चिढ़कर) तुम अजब मसखरे हो जी, साफ-साफ क्यों नहीं कहते कि तुम कौन हो?
सिपाही - (हंसकर) क्या उस शब्द के कहने पर भी आप मुझ पर भरोसा न करेंगे?
तेजसिंह - (मुंह बनाकर और बात पर जोर देकर) हाय-हाय, कह तो दिया कि भरोसा किया, भरोसा किया, भरोसा किया! झख मारा और भरोसा किया! अब भी कुछ कहोगे या नहीं अपना नाम बताओगे या नहीं?
सिपाही - अच्छा तो आप ही पहले अपना परिचय दीजिये।
तेजसिंह - मैं तेजसिंह हूं, बस हुआ अब भी तुम अपना कुछ परिचय दोगे या नहीं?
सिपाही - हां-हां, अब मैं अपना परिचय दूंगा, मगर पहले एक बात का जवाब और दीजिये।
तेजसिंह - अभी एक आंच की कसर रह गई, अच्छा पूछिये।
सिपाही - यदि कोई ऐसा आदमी आपके सामने आवे जो आपसे मुहब्बत रखे, आपके काम में दिलोजान से मदद दे, आपकी भलाई के लिए जान तक देने को तैयार रहे, मगर उसके बाप-दादा या चाचा-भाई आदि में से कोई आदमी आपके साथ पूरी-पूरी दुश्मनी कर चुका हो तो आप उसके साथ कैसा बर्ताव करेंगे?
तेजसिंह - जो मेरे साथ नेकी करेगा उसके साथ मैं दोस्ती का बर्ताव करूंगा, चाहे उसके बाप-दादे मेरे साथ पूरी दुश्मनी क्यों न कर चुके हों।
सिपाही - ठीक है ऐसा ही करना चाहिए, अच्छा तो फिर सुनिए - मेरा नाम नानक है और मकान काशीजी।
तेजसिंह - नानक!
सिपाही - जी हां। मेरा किस्सा बहुत ही अनूठा और आश्चर्यजनक है।
तेजसिंह - मैंने यह नाम कहीं सुना है मगर याद नहीं पड़ता कि कब और क्यों सुना। इसमें कोई सन्देह नहीं कि तुम्हारा हाल आश्चर्य और अद्भुत घटनाओं से भरा होगा। मेरी तबीयत घबड़ा रही है, जितनी जल्दी हो सके अपना ठीक-ठीक हाल कहो।
नानक - दिल लगाकर सुनिये मैं कहता हूं, यद्यपि उस काम में देर हो जायेगी जिसके लिए मैं आया हूं तथापि मेरा किस्सा सुनकर आप अपना काम बहुत आसानी से निकाल सकेंगे और यहां की बहुत-सी बातें भी आपको मालूम हो जायेंगी।
नानक का किस्सा
लड़कपन में बड़े चैन से गुजरती थी। मेरे घर में किसी चीज की कमी न थी। खाने के लिए अच्छी-से-अच्छी चीजें, पहनने के लिए एक-से-एक बढ़ के कपड़े और वे सब चीजें मुझे मिला करतीं जिनकी मुझे जरूरत होती या जिनके लिए मैं जिद किया करता। मां से मुझे बहुत ज्यादा मुहब्बत थी और बाप से कम क्योंकि मेरा बाप किसी दूसरे शहर में किसी राजा के यहां नौकर था, चौथे-पांचवें महीने और कभी-कभी साल भर पीछे घर में आता और दस-पांच दिन रहकर चला जाता था। उसका पूरा हाल आगे चलकर आपको मालूम होगा। मेरा बाप मेरी मां को बहुत चाहता था और जब घर आता तो बहुत-सा रुपया और अच्छी-अच्छी चीजें उसे दे जाया करता था और इसलिए हम लोग अमीरी ठाठ के साथ अपने दिन बिताते थे।
मैं जिस बुड्ढी दाई की गोद में खेला करता था वह बहुत ही नेक थी और उसकी बहिन एक जमींदार के यहां जिसका घर मेरे पड़ोस में था रहती और उसकी लड़की को खिलाया करती थी। मेरी दाई कभी मुझे लेकर उस जमींदार के घर जा बैठा करती और कभी उसकी बहिन उस लड़की को लेकर जिसके खिलाने पर वह नौकर थी, मेरे घर आ बैठा करती इसलिए मेरा और उस लड़की का रोज साथ रहता तथा धीरे-धीरे हम दोनों में मुहब्बत दिन-दिन बढ़ने लगी। उस लड़की का नाम, जो मुझसे उम्र में दो वर्ष कम थी, रामभोली था और मेरा नाम नानक, मगर घर वाले मुझे ननकू कहके पुकारा करते। वह लड़की बहुत खूबसूरत थी मगर जन्म की गूंगी-बहरी थी तथापि हम दोनों की मुहब्बत का यह हाल था कि उसे देखे बिना मुझे और मुझे देखे बिना उसे चैन न पड़ता। गुरु के पास बैठकर पढ़ना मुझे बहुत बुरा मालूम होता और उस लड़की से मिलने के लिए तरह तरह के बहाने करने पड़ते।
धीरे-धीरे मेरी उम्र दस वर्ष की हुई और मैं अपने-पराये को अच्छी तरह समझने लगा। मेरे पिता का नाम रघुबरसिंह था। बहुत दिनों पर उसका घर आया करना मुझे बहुत बुरा मालूम हुआ और मैं अपनी मां से उसका हाल खोद-खोदके पूछने लगा। मालूम हुआ कि वह अपना हाल बहुत छिपाता है यहां तक कि मेरी मां भी उसका पूरा-पूरा हाल नहीं जानती तथापि यह मालूम हो गया कि मेरा बाप ऐयार है और किसी राजा के यहां नौकर है। यह भी सुना कि वहां मेरी एक सौतेली मां भी रहती है जिससे एक लड़का और एक लड़की भी है।
मेरा बाप जब आता तो महीने-दो महीने या कभी-कभी केवल आठ ही दस दिन रहकर चला जाता और जितने दिन रहता, मुझे ऐयारी सिखाने में विशेष ध्यान देता। मुझे भी पढ़ने-लिखने से ज्यादा खुशी ऐयारी सीखने में होती, क्योंकि रामभोली से मिलने तथा अपना मतलब निकालने के लिए ऐयारी बड़ा काम देती थी। धीरे-धीरे लड़कपन का जमाना बहुत-कुछ निकल गया और वे दिन आ गये कि जब लड़कपन नौजवानी के साथ ऊधम मचाने लगा और मैं अपने को नौजवान और ऐयार समझने लगा।
एक रात मैं अपने घर में नीचे के खण्ड में कमरे के अन्दर चारपाई पर लेटा हुआ रामभोली के विषय में तरह-तरह की बातें सोच रहा था। इश्क की चपेट में नींद हराम हो गई थी, दीवार के साथ लटकती हुई तस्वीरों की तरफ टकटकी बांधकर देख रहा था, यकायक ऊपर की छत पर धमधमाहट की आवाज आने लगी। मैं यह सोचकर निश्चिन्त हो रहा कि शायद कोई लौंडी जरूरी काम के लिए उठी होगी उसी के पैरों की धमधमाहट मालूम होती है मगर थोड़ी देर बाद ऐसा मालूम हुआ कि सीढ़ियों की राह कोई आदमी नीचे उतरा चला आता है। पैर की आवाज भारी थी जिससे मालूम हुआ कि यह कोई मर्द है। मुझे ताज्जुब मालूम हुआ कि इस समय मर्द इस मकान में कहां से आया क्योंकि मेरा बाप घर में न था, उसे नौकरी पर गए हुए दो महीने से ज्यादा हो चुके थे।
मैं आहट लेने और कमरे से बाहर निकलकर देखने की नीयत से उठ बैठा। चारपाई की चरमराहट और मेरे उठने की आहट पाकर यह आदमी फुर्ती से उतरकर चौक में पहुंचा और जब तक मैं कमरे के बाहर होकर उसे देखूं, तब तक वह सदर दरवाजा खोलकर मकान के बाहर निकल गया। मैं हाथ में खंजर लिये हुए मकान के बाहर निकला और उस आदमी को जाते हुए देखा। उस समय मेरे नौकर और सिपाही, जो दरवाजे पर रहा करते थे, बिल्कुल गाफिल सो रहे थे मगर मैं उन्हें सचेत करके उस आदमी के पीछे रवाना हुआ।
मैं नहीं कह सकता कि उस आदमी को, जो स्याह कपड़ा ओढ़े मेरे घर से निकला था, यह खबर थी या नहीं कि मैं उसके पीछे-पीछे आ रहा हूं क्योंकि वह बड़ी बेफिक्री से कदम बढ़ाता हुआ मैदान की तरफ जा रहा था।
थोड़ी दूर जाने के बाद मुझे यह भी मालूम हुआ कि यह आदमी अपनी पीठ पर एक गठरी लादे हुए है जो एक स्याह कपड़े के अन्दर है। अब मुझे विश्वास हो गया कि यह चोर है और इसने जरूर मेरे यहां चोरी की है। जी मैं तो आया कि गुल मचाऊं जिसमें बहुत-से आदमी इकट्ठे होकर उसे गिरफ्तार कर लें, मगर कई बातें सोचकर चुप ही रहा और उसके पीछे-पीछे जाना ही उचित समझा।
घण्टे भर तक बराबर मैं उस आदमी के पीछे-पीछे चला गया, यहां तक कि वह शहर के बाहर मैदान में एक ऐसी जगह जा पहुंचा जहां इमली के बड़े-बड़े पेड़ इतने ज्यादा लगे हुए थे कि उनके सबब से मामूली से विशेष अंधकार हो रहा था। जब मैं उन घने पेड़ों के बीच पहुंचा तो मालूम हुआ कि यहां लगभग दस-बारह आदमियों के और भी हैं जो एक समाधि की बगल में बैठे धीरे-धीरे बातें कर रहे थे। वह आदमी उसी जगह पहुंचा और उन लोगों में से दो ने बढ़कर पूछा, ''कहो, अबकी दफे किसे लाए' इसके जवाब में उस आदमी ने कहा, ''नानक की मां को।''
आप खयाल कर सकते हैं कि इस शब्द को सुनकर मेरे दिल पर कैसी चोट लगी होगी। अब तक तो मैं यही समझ रहा था कि वह चोर मेरे यहां से माल-असबाब चुराकर लाया है जिसकी मुझे विशेष परवाह न थी और मैं उसका पूरा-पूरा हाल जानने की नीयत से चुपचाप उसके पीछे-पीछे चला गया था, मगर जब यह मालूम हुआ कि वह कम्बख्त मेरी मां को चुरा लाया है तो मुझे बड़ा ही रंज हुआ। और मैं इस बात पर अफसोस करने लगा कि उसे यहां तक आने का मौका क्यों दिया, क्योंकि अब इस समय यहां मेरे किये कुछ भी नहीं हो सकता था। चारों तरफ ऐसा सन्नाटा था कि अगर गला फाड़कर चिल्लाता तो भी मेरी आवाज किसी के कान तक न पहुंचती, इसके अतिरिक्त वे लोग गिनती में भी ज्यादा थे, किसी तरह उनका मुकाबला नहीं कर सकता था, लाचार उस समय बड़ी मुश्किल से मैंने अपने दिल को सम्हाला और चुपचाप एक पेड़ की आड़ में खड़े रहकर उन लोगों की कार्रवाई देखने और यह सोचने लगा कि अब क्या करना चाहिए।
वह समाधि जो औंधी हांडी की तरह थी, बहुत बड़ी तथा मजबूत बनी हुई थी और मुझे उसी समय यह भी मालूम हो गया कि उसके अन्दर जाने के लिए कोई रास्ता भी है क्योंकि मेरे देखते-देखते वे सब-के-सब उसी समाधि के अन्दर घुस गए और जब तक मैं रहा, बाहर न निकले।
घण्टे भर तक राह देखकर मैं उस समाधि के पास गया और उसके चारों तरफ घूम- घूमकर अच्छी तरह देखने लगा मगर कोई दरवाजा या छेद ऐसा न दिखाई दिया जिस राह से कोई उसके अन्दर जा सकता और न मैंने उस जगह पर कोई दरवाजे का निशान ही पाया। मैं उस समाधि को अच्छी तरह जानता था, उसके बारे में कभी कोई बुरा खयाल किसी के दिल में न हुआ होगा। देहाती लोग वहां तरह-तरह की मन्नतें मानते और प्रायः पूजा करने के लिए आया करते थे परन्तु मुझे आज मालूम हुआ कि वह वास्तव में समाधि नहीं, बल्कि खूनियों का अड्डा है।
मैंने बहुत सिर पीटा मगर कुछ काम न निकला, लाचार यह सोचकर घर की तरफ लौटा कि पहले लोगों को इस मामले की खबर करूं और इसके बाद आदमियों को साथ लाकर इस समाधि को खुदवा अपनी मां और बदमाशों का पता लगाऊं।
रात बहुत थोड़ी रह गई थी जब मैं घर पहुंचा। मैं चाहता था कि अपनी परेशानी का हाल नौकरों से कहूं, मगर वहां तो मामला ही दूसरा था। वह बूढ़ी दाई जिसने मुझे गोद में खिलाया था और अब बहुत ही बूढ़ी और कमजोर हो रही थी, इस समय दरवाजे पर बैठे नौकरों पर खफा हो रही थी और कह रही थी कि आधी रात के समय तुमने लड़के को अकेले क्यों जाने दिया तुम लोगों में से कोई आदमी उसके साथ क्यों न गया इतने ही में मुझे देख नौकरों ने कहा, ''लो ननकू बाबू आ गये, खफा क्यों होती हो!''
मैंने पास जाकर कहा, ''क्या है जो हल्ला मचा रही हो'?
दाई - है क्या, चुपचाप न जाने कहां चले गये, न किसी से कुछ कहा न सुना! तुम्हारी मां बेचारी रो-रोकर जान दे रही है! ऐसा जाना किस काम का कि एक आदमी भी साथ न ले गए, जा के अपनी मां का हाल तो देखो।
मैं - मां कहां है?
दाई - घर में है और कहां है, तुम जाओ तो सही!
दाई की बात सुनकर मैं बड़ी हैरानी में पड़ गया। वहां उस चोर ऐयार की जुबानी जो कुछ सुना था उससे तो साफ मालूम हुआ था कि वह मेरी मां को गिरफ्तार करके ले गया है, मगर घर पहुंचकर सुनता हूं कि मां यहां मौजूद है! खैर, मैंने अपने दिल का हाल किसी से न कहा और चुपचाप मकान के अन्दर उस कमरे में पहुंचा जिसमें मेरी मां रहती थी। देखा कि वह चारपाई पर पड़ी रो रही है, उसका सिर फटा हुआ है और उसमें से खून बह रहा है, एक लौंडी हाथ में कपड़ा लिए खून पोंछ रही है। मैंने घबड़ाकर पूछा, ''यह क्या हाल है! सिर कैसे फट गया'
मां - मैंने जब सुना कि तुम घर में नहीं हो तुम्हें ढूंढ़ने के लिए घबड़ाकर नीचे उतरी, अकस्मात् सीढ़ी पर गिर पड़ी। तुम कहां गये थे!
मैं - मैं घर में से एक चोर को कुछ असबाब लेकर बाहर जाते देखकर उसके पीछे-पीछे चला गया था?
मां - (कुछ घबराकर) क्या यहां से किसी चोर को बाहर जाते देखा था?
मैं - हां, कहा तो कि उसी के पीछे-पीछे मैं गया था।
मां - तुम उसके पीछे - पीछे कहां तक गए क्या उसका घर देख आए?
मैं - नहीं, थोड़ी दूर जाने के बाद गलियों में घूम-फिरकर न मालूम वह कहां गायब हो गया, मैंने बहुत ढूंढ़ मगर पता न लगा। आखिर लाचार होकर लौट आया। (लौंडी की तरफ देखकर) कुछ मालूम हुआ, घर में से क्या चीज चोरी हो गई|
लौंडी - (ताज्जुब में आकर और चारों तरफ देखकर) यहां से तो कोई चीज चोरी नहीं गई।
यह जवाब सुन मैं चुपचाप नीचे उतर आया और घर में चारों तरफ घूम-घूमकर देखने लगा। जिस घर में खजाना रहता था, उसमें भी ताला बन्द पाया और कई कीमती चीजें जो मामूली तौर पर भण्डेरियों और खुली आलमारियों में पड़ी रहा करती थीं, ज्यों की त्यों मौजूद पाईं। लाचार मैं अपनी चारपाई पर जाकर लेट रहा और तरह-तरह की बातें सोचने लगा। उस समय रात बीत चुकी थी और सुबह की सफेदी घर में घुसकर कह रही थी कि अब थोड़ी ही देर में सूर्य भगवान निकलना चाहते हैं।
इस बात को कई महीने बीत गये। मैंने अपने दिल का हाल और वे बातें जो देखी-सुनी थीं, किसी से न कहीं। हां, छिपे-छिपे तहकीकात करता रहा कि असल मामला क्या है। चाल-चलन, बातचीत और मुहब्बत की तरफ ध्यान देने से मुझे निश्चय हो गया कि मेरी मां जो घर में है, वह असल में मेरी मां नहीं है बल्कि कोई ऐयार है। मैं छिपे-छिपे अपनी मां की खोज करने लगा और इस विषय पर ध्यान देने लगा कि वह ऐयार घर में मेरी मां बनकर क्यों रहती है और उसकी नीयत क्या है इसके अलावे मैं अपनी जान की हिफाजत भी अच्छी तरह करने लगा। इस बीच में रामभोली ने मुझसे मुहब्बत ज्यादा बढ़ा दी। यद्यपि उसकी चाल-चलन में मुझे कुछ फर्क मालूम होता था। परन्तु मुहब्बत ने मुझे अन्धा बना रखा था और मैं उसका पूरा आशिक बन गया था।
एक पढ़ी-लिखी बुद्धिमान नौजवान औरत ने जिम्मा लिया हुआ था कि यद्यपि रामभोली गूंगी और बहरी है, परन्तु वह उसे इशारे ही में समझा-बुझाकर पढ़ना-लिखना सिखा देगी और वास्तव में उस औरत ने बड़ी चालाकी से रामभोली को पढ़ना-लिखना सिखा दिया। उसी औरत के हाथ रामभोली की लिखी चीठी मेरे पास आती और मैं उसी के हाथ जवाब भेजा करता था। ऊपर कही वारदात के कुछ दिन बाद ही जो चीठियां रामभोली की मेरे पास आने लगीं, उनके अक्षरों का रंग-ढंग और गढ़न कुछ निराले ही तौर की थी परन्तु मैंने उस समय उस पर कुछ विशेष ध्यान न दिया।
अब ऊपर वाले मामले को छह महीने से ज्यादा गुजर गये। इस बीच में मेरा बाप कई दफे घर पर आया और थोड़े-थोड़े दिन रहकर चला गया। घर की बातों में सिर्फ इतना फर्क पड़ा कि मेरा बाप मेरी मां से मुहब्बत ज्यादा करने लगा, मगर मेरी नकली मां तरह-तरह की बेढब फरमाइशों से उसे तंग करने लगी।
एक दिन जब मेरा बाप घर ही में था, आधी रात के समय मेरे बाप और मेरी मां में कुछ खटपट होने लगी। उस समय मैं जागता था। मेरे जी में आया कि किसी तरह इस झगड़े का सबब मालूम करना चाहिए। आखिर ऐसा ही किया, मैं चुपके से उठा और धीरे-धीरे उस कमरे के पास गया जिसके अन्दर वे दोनों जली-कटी बातें कर रहे थे। उस कमरे में तीन दरवाजे थे, जिनमें से एक खुला हुआ मगर उसके आगे पर्दा गिरा हुआ था और दो दरवाजे बन्द थे। मैं एक बन्द दरवाजे के आगे जाकर (जो खुले दरवाजे के ठीक दूसरी तरफ था) लेट रहा और उन दोनों की बातें सुनने लगा। जो कुछ मैंने सुना, उसे ठीक-ठीक बयान करता हूं -
मां - जब तुम्हें मेरा विश्वास नहीं तो किस मुंह से कहते हो कि मैंने तेरे लिए यह किया और वह किया?
बाप - बेशक, मैंने तेरे लिए अपनी जान खतरे में डाली और जन्म भर के लिए अपने नाम पर धब्बा लगाया, और अब तू चाहती है कि मैं न मरने लायक रहूं और न जीते रहकर किसी को मुंह दिखा सकूं।
मां - अपने मुंह से तुम जो भी चाहे कहो, मगर मैं ऐसा नहीं चाहती जो तुम कहते हो। क्या मैं वह किताब खा जाऊंगी या किसी दूसरे को दे दूंगी जाओ, अपनी किताब ले जाओ और अपनी चहेती बेगम को नजर कर दो!
बाप - मेरी वह जोरू जिसे तुम ताना देकर बेगम कहती हो तुम्हारे ऐसी जिद्दी नहीं। उसने मुझे राजा वीरेन्द्रसिंह के यहां चोरी करने के लिए नहीं कहा और न वह तिलिस्म का तमाशा ही देखना चाहती है।
मां - उसको इतना दिमाग नहीं, कंगाल की लड़की का हौसला ही कितना!
बाप - हां, बेशक उसका इतना बड़ा हौसला नहीं कि मेरी जान की ग्राहक बन बैठे।
इसके बाद थोड़ी-सी बातें बहुत ही धीरे-धीरे हुईं जिन्हें मैं अच्छी तरह सुन न सका। अन्त में मेरा बाप इतना कहकर चुप हो रहा - ''खैर, फिर जो कुछ भाग्य में बदा है वह भोगूंगा। लो यह खूनी किताब तुम्हारे हवाले करता हूं, पांच रोज में लौट के आऊंगा, तो तिलिस्म का तमाशा दिखा दूंगा और फिर यह किताब राजा वीरेन्द्रसिंह के यहां किसी ढंग से पहुंचा दूंगा।''
मैं यह सोचकर कि अब मेरा बाप बाहर निकलना ही चाहता है, उठ खड़ा हुआ और चुपचाप नीचे उतर अपने कमरे में चला आया। मगर मेरे दिल की अजब हालत थी। मैं खूब जानता था कि वह मेरी मां नहीं है और अब तो मालूम हो गया कि उस कम्बख्त के फेर में पड़कर मेरा बाप अपने ऊपर कोई आफत लाना चाहता है, इसलिए मैं सोचने लगा कि किसी तरह अपने बाप को इसके फरेब से बचाना और अपनी असली मां का पता लगना चाहिए।
दो घण्टे बीत गये, मगर मेरा बाप नीचे न उतरा। मेरी चिन्ता और भी बढ़ गई। मैं सोचने लगा कि शायद फिर कुछ खटपट होने लगी। आखिर मुझसे रहा न गया, मैंने अपने कमरे से बाहर निकलके बाप को आवाज दी। आवाज सुनते ही वे मेरे पास चले आये और धीरे-से बोले, ''क्यों बेटा, क्या है'?
मैं - आपसे एक बात कहना चाहता हूं, मगर कुछ छिपाकर।
बाप - कहो, यहां तो कोई भी सुनने वाला नहीं है, ऐसा ही डर है तो ऊपर चले चलो।
मैं - (धीरे से) नहीं, मैं उस दुष्टा के सामने कुछ भी कहना नहीं चाहता जिसे आप मेरी मां समझते हैं।
बाप - (ताज्जुब में आकर) क्या वह तुम्हारी मां नहीं है?
मैं - नहीं।
बाप - आज क्या है, जो तुम ऐसी बातें कर रहे हो क्या उसने तुम्हें कुछ तकलीफ दी है
मैं - आप इस जगह मुझसे कुछ भी न पूछिये, निराले में जब मेरी बातें सुनियेगा तो असल भेद मालूम हो जायगा!
इतना सुनते ही मेरे बाप ने घबड़ाकर मेरा हाथ पकड़ लिया और मकान के अपने खास बैठके में ले जाकर दरवाजा बन्द करने के बाद पूछा, ''कहो, क्या बात है' मैंने वे कुल बातें जो देखी-सुनी थीं और जो ऊपर बयान कर चुका हूं कह सुनाईं जिनके सुनते ही मेरे बाप की अजब हालत हो गयी, चेहरे पर उदासी और तरद्दुद की निशानी मालूम होने लगी, थोड़ी देर तक चुप रहने और कुछ गौर करने के बाद बोले, ''बेशक धोखा हो गया! अब जो गौर करता हूं तो इस कम्बख्त की बातचीत और चाल-चलन में बेशक बहुत-कुछ फर्क पाता हूं। मगर अफसोस, तुमने इतने दिनों तक न मालूम क्या समझकर यह बात छिपा रखी और अपनी मां की तरफ से भी गाफिल रहे! न जाने वह बेचारी जीती भी है या इस दुनिया से ही उठ गयी!''
मैं - जरा-सा गौर करने पर आप खुद समझ सकते हैं कि इस बात को इतने दिनों तक मैं क्यों छिपाये रहा। मां की तरफ से भी गाफिल न रहा, जहां तक हो सका पता लगाने के लिए परेशान हुआ मगर अभी तक कोई अच्छा नतीजा न निकला। यद्यपि मुझे विश्वास है कि वह इस दुनिया में जीती-जागती मौजूद है।
बाप - तुम्हारा खयाल ठीक है और इसका सबूत इससे बढ़कर और क्या होगा कि एक ऐयार उसकी सूरत बनाकर अपना काम निकालना चाहती है और इस घर में अभी तक मौजूद है, जब तक इसका काम न निकलेगा, बेशक उसकी जान बची रहेगी। मगर अफसोस, मैंने बड़ा धोखा खाया और अपने को किसी लायक न रखा। अच्छा यह कहो कि इस समय तुम्हें क्या सूझी जो यह सब कहने के लिए तैयार हो गये
मैं - खुटका तो बहुत दिनों से लगा हुआ था मगर इस समय कुछ तकरार की आहट पाकर मैं ऊपर चढ़ गया और बड़ी देर तक छिपकर आप लोगों की बातें सुनता रहा, ज्यादा तो समझ में न आया, मगर इतना मालूम हो गया कि आप उसकी खातिर से राजा वीरेन्द्रसिंह के यहां से कोई किताब चुरा लाये हैं और अब कोई काम ऐसा करना चाहते हैं जो आपके लिए बहुत बुरे नतीजे पैदा करेगा। अस्तु, ऐसे समय में चुप रहना मैंने उचित न जाना। अब आप कृपा करके यह कहिए कि वह किताब जो आप चुरा लाये हैं, कैसी है
बाप - इस समय सब खुलासा हाल कहने का मौका तो नहीं है, परन्तु संक्षेप में कुछ हाल कह तुम्हें होशियार कर देना भी बहुत जरूरी है, क्योंकि अब मेरी जिन्दगी का कोई ठिकाना नहीं। हां, अगर यह औरत तुम्हारी मां होती तो कोई हर्ज न था। वह एक प्राचीन समय की किसी के खून से लिखी हुई किताब है जो राजा वीरेन्द्रसिंह को बिक्रमी तिलिस्म से मिली थी। उस तिलिस्म में स्याह पत्थर के दालान में एक सिंहासन के ऊपर छोटा-सा पत्थर का एक सन्दूक था, जिसके छूने से आदमी बेहोश हो जाता था।
मैं - हां, यह किस्सा आप पहले भी मुझसे कह चुके हैं, बल्कि आपने यह भी कहा कि सिंहासन के ऊपर जो पत्थर था और जिसके छूने से आदमी बेहोश हो जाता था, वास्तव में वह एक सन्दूक था और उसके अन्दर से कोई नायाब चीज राजा वीरेन्द्रसिंह को मिली थी।
बाप - ठीक है, ठीक है, इस समय मेरी अक्ल ठिकाने नहीं है, इसी से बहुत-सी बातें भूल रहा हूं, हां तो उसी पत्थर के टुकड़े में से जिसे छोटा सन्दूक कहना चाहिए यह किताब और हीरे का एक सरपेंच निकला था।
मैं - उस किताब में क्या बात लिखी है?
बाप - उस किताब में उस तिलिस्म के भेद लिखे हुए हैं जो राजा वीरेन्द्रसिंह के हाथ से न टूट सका और जिसके विषय में मशहूर है कि राजा वीरेन्द्रसिंह के लड़के उस तिलिस्म को तोड़ेंगे।
मैं - यदि उस पुस्तक में उस भारी तिलिस्म के भेद लिखे हुए थे, तो राजा वीरेन्द्रसिंह ने उस तिलिस्म को क्यों छोड़ दिया?
बाप - केवल उस किताब की सहायता से ही यह तिलिस्म नहीं टूट सकता। हां, जिसके पास वह पुस्तक हो, उसे उस तिलिस्म का कुछ हाल जरूर मालूम हो सकता है और यदि वह चाहे तो तिलिस्म में जाकर वहां की सैर भी कर सकता है। इस कम्बख्त औरत ने यही कहा कि मुझे तिलिस्म की सैर करा दो। उसी जिद ने मुझसे यह अपराध कराया, लाचार मैंने वह किताब चुराई। मैंने सोच लिया था कि इसकी इच्छा पूरी करने के बाद मैं वह पुस्तक जहां की तहां रख आऊंगा, मगर जब यह औरत कोई दूसरी ही है तो बेशक मुझे धोखा दिया गया है तथा इसमें भी कोई सन्देह नहीं कि यह औरत उस तिलिस्म से कोई सम्बन्ध रखती है और यदि ऐसा है तो अब उस पुस्तक का मिलना मुश्किल है। अफसोस, जब मैं किताब चुराकर राजा वीरेन्द्रसिंह के शीशमहल से बाहर निकल रहा था तो उसके एक ऐयार ने मुझे देख लिया था। मैं मुश्किल से निकल भागा और यह सोचे हुए था कि यदि मैं पुस्तक फिर वहीं रख आऊंगा तो फिर मेरी खोज न होगी, मगर हाय, यहां तो कोई दूसरा ही रंग निकला।
मैं - आपने उस पुस्तक को पढ़ा था?
बाप - (आंखों में आंसू भरकर) उसका पहला पृष्ठ देख सका था, जिसमें इतना ही लिखा था कि जिसके कब्जे में यह पुस्तक रहेगी, उसे तिलिस्मी आदमियों के हाथ से दुःख नहीं पहुंच सकता। जो हो परन्तु अब इन बातों का समय नहीं है, यदि हो सके तो उस औरत के हाथ से किताब ले लेनी चाहिए, उठो और मेरे साथ चलो।
इतना कहकर मेरा बाप उठा, मकान के अन्दर चला, मैं भी उसके पीछे-पीछे था। अन्दर से मकान का दरवाजा बन्द कर लिया गया, मगर जब मेरा बाप ऊपर के कमरे में जाने लगा जहां मेरी मां रहा करती थी, तो मुझे सीढ़ी के नीचे खड़ा कर गया और कहता गया कि देखो जब मैं पुकारूं तो तुरन्त चले आना।
घण्टे भर तक मैं खड़ा रहा। इसके बाद छत पर धमधमाहट मालूम होने लगी, मानो कई आदमी आपस में लड़ रहे हों। अब मुझसे रहा न गया, हाथ में खंजर लेकर मैं ऊपर चढ़ गया और बेधड़क उस कमरे में घुस गया, जिसमें मेरा बाप था। इस समय धमधमाहट की आवाज बन्द हो गई थी और कमरे के अन्दर सन्नाटा था। भीतर की अवस्था देखकर मैं घबड़ा गया। वह औरत जो मेरी मां बनी हुई थी, वहां न थी। मेरा बाप जमीन पर पड़ा हुआ था, और उसके बदन से खून बह रहा था। मैं घबड़ाकर उसके पास गया और देखा कि वह बेहोश पड़ा है और उसके सिर और बाएं हाथ में तलवार की गहरी चोट लगी हुई है जिसमें से अभी तक खून निकल रहा है। मैंने अपनी धोती फाड़ी और पानी से जख्म धोकर बांधने के बाद बाप को होश में लाने की फिक्र करने लगा। थोड़ी देर बाद वह होश में आया और उठ बैठा।
मैं - मुझे ताज्जुब है कि एक औरत के हाथ से आप चोट खा गये!
बाप - केवल औरत ही न थी, यहां आने पर मैंने कई आदमी देखे जिनके सबब से यहां तक नौबत आ पहुंची। अफसोस, वह किताब हाथ न लगी और मेरी जिन्दगी मुफ्त में बरबाद हुई!
मैं - ताज्जुब है कि इस मकान में लोग किस राह से आकर अपना काम कर जाते हैं, पहले भी कई दफे यह बात देखने में आयी!
बाप - खैर, जो हुआ सो हुआ, अब मैं जाता हूं, गुमनाम रहकर अपने किये का फल भोगूंगा, यदि वह किताब हाथ लग गई और अपने माथे से बदनामी का टीका मिटा सका तो फिर तुमसे मिलूंगा नहीं तो हरि-इच्छा। तुम इस मकान को मत छोड़ना और जो कुछ देख-सुन चुके हो उसका पता लगाना। तुम्हारे घर में जो कुछ दौलत है, उसे हिफाजत से रखना और होशियारी से रहकर गुजारा करना तथा बन पड़े तो अपनी मां का भी पता लगाना।
बाप की बातें सुनकर मेरी अजब हालत हो गयी, दिल धड़कने लगा, गला भर आया, आंसुओं ने आंखों के आगे पर्दा डाल दिया। मैं बहुत-कुछ कहना चाहता था मगर कह न सका। मेरे बाप ने देखते-देखते मकान के बाहर निकलकर न मालूम किधर का रास्ता लिया। उस समय मेरे हिसाब से दुनिया उजड़ गई थी और मैं बिना मां-बाप के मुर्दे से भी बदतर हो रहा था। मेरे घर में जो उपद्रव हुआ था, उसका कुछ हाल नौकरों और लौंडियों को मालूम हो चुका था, मगर मेरे समझाने से उन लोगों ने छिपा लिया और बड़ी कठिनाई से मैं उस मकान में रहने और बीती हुई बातों का पता लगाने लगा।
प्रतिदिन आधी रात के समय मैं ऐयारी के सामान से दुरुस्त होकर उस समाधि के पास जाया करता जहां मैं पहले दिन उस आदमी के पीछे-पीछे गया था, जो मेरी मां को चुराकर ले गया था। अब यहां से मैं अपने किस्से को बहुत ही संक्षेप में कहता हूं क्योंकि समय बहुत कम है।
एक दिन आधी रात के समय उसी समाधि के पास एक इमली के पेड़ पर चढ़कर मैं बैठा हुआ था और अपनी बदकिस्मती पर रो रहा था कि इतने में उस समाधि के अन्दर से एक आदमी निकला और पूरब की तरफ रवाना हुआ। मैं झटपट पेड़ से उतरा और पैर दबाता हुआ उसके पीछे-पीछे जाने लगा, इसलिए उसे मेरे आने की आहट कुछ भी मालूम न हुई। उस आदमी के हाथ में एक लिफाफा कपड़े का था। उस लिफाफे की सूरत ठीक उस खलीते की तरह थी जैसा प्रायः राजे और बड़े जमींदार लोग राजों-महाराजों के यहां चीठी भेजते समय लिफाफे की जगह काम में लाते हैं। यकायक मेरे जी में आया कि किसी तरह यह लिफाफा इसके हाथ से ले लेना चाहिए, इससे मेरा मतलब कुछ न कुछ जरूर निकलेगा।
वह लिफाफा अंधेरी रात के सबब मुझे दिखाई न देता मगर राह चलते-चलते वह एक ऐसी दुकान के पास से होकर निकला जो बांस की जालीदार टट्टी से बन्द थी मगर भीतर जलते हुए चिराग की रोशनी बाहर सड़क पर आने-जाने वाले के ऊपर बखूबी पड़ती थी। उसी रोशनी ने मुझे दिखा दिया कि इसके हाथ में एक बड़ा लिफाफा मौजूद है। मैंने उसके हाथ से किसी तरह लिफाफा ले लेने के बारे में अपनी राय पक्की कर ली और कदम बढ़ाकर उसके पास जा पहुंचा। मैंने उसे धोखे में इस जोर से धक्का दिया कि वह किसी तरह सम्हल न सका और मुंह के बल जमीन पर गिर पड़ा। लिफाफा उसके हाथ से छूटकर दूर जा रहा जिसे मैंने फुर्ती से उठा लिया और वहां से भागा। जहां तक हो सका मैंने भागने में तेजी की। मुझे मालूम हुआ कि वह आदमी भी उठकर मुझे पकड़ने के लिए दौड़ा पर मुझे पा न सका। गलियों में घूमता और दौड़ता हुआ मैं अपने घर पहुंचा और दरवाजे पर खड़ा होकर दम लेने लगा। उस समय मेरे दरवाजे पर रामधनीसिंह नामी मेरा एक सिपाही पहरा दे रहा था। यह सिपाही नाटे कद का बहुत मजबूत और चालाक था, थोड़े ही दिनों से चौकीदारी के काम पर मेरे बाप ने इसे नौकर रखा था।
मुझे उम्मीद थी कि रामधनीसिंह दौड़ते हुए आने का कारण मुझसे पूछेगा मगर उसने कुछ भी न पूछा। दरवाजा खुलवाकर मैं मकान के अन्दर गया और दरवाजा बन्द करके अपने कमरे में पहुंचा। शमादन अभी तक जल रहा था। उस लिफाफे को खोलने के लिए मेरा जी बेचैन हो रहा था, आखिर शमादान के पास आकर लिफाफा खोला। उस लिफाफे में एक चीठी और लोहे की एक ताली थी। वह ताली विचित्र ढंग की थी, उसमें छोटे-छोटे कई छेद और पत्तियां बनी हुई थीं, वह ताली जेब में रख लेने के बाद मैं चीठी पढ़ने लगा, यह लिखा हुआ था - ''श्री 108 मनोरमाजी की सेवा में -
महीनों की मेहनत आज सफल हुई। जिस काम पर आपने मुझे तैनात किया था वह ईश्वर की कृपा से पूरा हुआ। रिक्तग्रन्थ मेरे हाथ लगा। आपने लिखा था कि - 'हारीत1 सप्ताह में मैं रोहतासगढ़ के तिलिस्मी तहखाने में रहूंगी, इस बीच में यदि रिक्तग्रन्थ (खून से लिखी हुई किताब) मिल जाय तो उसी तहखाने के बलिमण्डप में मुझसे मिलकर मुझे देना।' आज्ञानुसार रोहतासगढ़ के तहखाने में गया परन्तु आप न मिलीं। रिक्तग्रन्थ लेकर लौटने की हिम्मत न पड़ी क्योंकि तेजसिंह की गुप्त अमलदारी तहखाने में हो चुकी थी और उनके साथी ऐयार लोग चारों तरफ ऊधम मचा रहे थे। मैंने यह सोचकर कि यहां से निकलते समय शायद किसी ऐयार के पाले पड़ जाऊं और यह रिक्तग्रन्थ छिन जाय तो मुश्किल होगी, रिक्तग्रन्थ को चौबीस नम्बर की कोठरी में जिसकी ताली आपने मुझे दे रखी थी रख दिया और खाली हाथ बाहर निकल आया। ईश्वर की कृपा से किसी ऐयार से मुलाकात न हुई, परन्तु दस्तों की बीमारी ने मुझे बेकार कर दिया, मैं आपके पास आने लायक न रहा, लाचार अपने एक दोस्त के हाथ जिससे अचानक मुलाकात हो गई यह ताली आपके पास भेजता हूं। मुझे उम्मीद है कि वह आदमी चौबीस नम्बर की कोठरी को कदापि नहीं खोल सकता जिसके पास यह ताली न हो, अस्तु अब आपको जब समय मिले, रिक्तग्रन्थ मंगवा लीजिएगा और बाकी हाल पत्र ले जाने वाले के मुंह से सुनिएगा। मुझमें अब कुछ लिखने की ताकत नहीं, बस अब साधोराम को इस दुनिया में रहने की आशा नहीं, अब साधोराम आपके चरणों को नहीं देख सकता। यदि आराम हुआ तो पटने से होता हुआ सेवा में उपस्थित होऊंगा, यदि ऐसा न हुआ तो समझ लीजियेगा कि साधोराम नहीं रहा। इस पत्र को पाते ही नानक की मां को निपटा दीजिएगा।
1. ऐयारी भाषा में 'हारीत' देवी - पूजा को कहते हैं।
आपका - साधोराम।''
इस चीठी के पाते ही मेरे दिल की मुरझाई कली खिल गई। निश्चय हो गया कि मेरी मां अभी जीती है, यदि यह चीठी ठिकाने पहुंच जाती तो उस बेचारी का बचना मुश्किल था। अब मैं यह सोचने लगा कि जिसके हाथ से यह चीठी मैंने ली है वह साधोराम था या उसका कोई मित्र! परन्तु मेरी विचारशक्ति ने तुरन्त ही उत्तर दिया कि नहीं, वह साधोराम नहीं था, यदि वह होता तो अपने लिखे अनुसार उस सड़क से आता जो पटने की तरफ से आती है। साधोराम के मरने का दूसरा सबूत यह भी है कि यह चीठी और ताली काले खलीते (कपडे के लिफाफे) के अन्दर है।
चीठी के ऊपर मनोरमा का नाम लिखा था, इससे निश्चय हो गया कि यह बिल्कुल बखेड़ा मनोरमा ही का मचाया हुआ है। मैं मनोरमा को अच्छी तरह जानता था। त्रिलोचनेश्वर महादेव के पास उसका आलीशान मकान देखने से यही मालूम होता था कि वह किसी राजा की लड़की होगी मगर ऐसा नहीं था, हां उसका खर्च हद से ज्यादे बढ़ा हुआ था और आमदनी का ठिकाना कुछ मालूम नहीं होता था। दूसरी बात यह कि वह प्रचलित रीति पर ध्यान न देकर बेपर्द खुलेआम पालकी, तामझाम और कभी-कभी घोड़े पर सवार होकर बड़े ठाठ से घूमा करती और इसीलिए काशी के छोटे-बड़े सभी मनुष्य उसे पहचानते थे। उस चीठी के पढ़ने से मुझे विश्वास हो गया कि मनोरमा जरूर तिलिस्म से कुछ सम्बन्ध रखती है और मेरी मां उसी के कब्जे में है।
इस सोच में कि किस तरह अपनी मां को छुड़ाना और रिक्तग्रन्थ पर कब्जा करना चाहिए कई दिन गुजर गये और इस बीच में उस ताली को मैं अपने मकान के बाहर किसी दूसरे ठिकाने हिफाजत से रख आया।
यहां तक अपना हाल कहकर नानक चुप हो रहा और झुककर बाहर की तरफ देखने लगा।
तेजसिंह - हां-हां, कहो फिर क्या हुआ! तुम्हारा हाल बड़ा ही दिलचस्प है, कुल बातें हमारे ही सम्बन्ध की हैं।
नानक - ठीक है, परन्तु अफसोस, इस समय मैं जो कुछ आपसे कह रहा हूं उससे मेरे बाप का कसूर और...
तेजसिंह - मैं समझ गया जो कुछ तुम कहना चाहते हो, मगर मैं सच्चे दिल से कहता हूं कि यद्यपि तुम्हारे बाप ने भारी जुर्म किया है और उसके विषय में हमारी तरफ से विज्ञापन दिया गया है कि जो कोई रिक्तग्रन्थ के चोर को गिरफ्तार करेगा उसे मुंहमांगा इनाम दिया जाएगा, तथापि तुम्हारे इस किस्से को सुनकर, जिसे तुम सचाई के साथ कह रहे हो, मैं वादा करता हूं कि उसका कसूर माफ कर दिया जायगा और तुम जो कुछ नेकी हमारे साथ किया चाहते हो या करोगे उसके लिए धन्यवाद के साथ पूरा-पूरा इनाम दिया जायगा। मैं समझता हूं कि तुम्हें अपना किस्सा अभी बहुत कुछ कहना है और इसमें भी कोई सन्देह नहीं कि जो कुछ तुम कहोगे मेरे मतलब की बात होगी, परन्तु इस बात का जवाब मैं सबसे पहले सुना चाहता हूं कि वह रिक्तग्रन्थ तुम्हारे कब्जे में है या नहीं अथवा हम लोग उसके पाने की आशा कर सकते हैं या नहीं?
इसके पहले कि तेजसिंह की आखिरी बात का कुछ जवाब नानक दे, बाहर से यह आवाज आई - ''यद्यपि रिक्तग्रन्थ नानक के कब्जे में अब नहीं है तथापि तुम उसे उस अवस्था में पा सकते हो जब अपने को उसके पाने योग्य साबित करो!'' इसके बाद खिलखिलाकर हंसने की आवाज आई।
इस आवाज ने दोनों ही को परेशान कर दिया, दोनों ही को दुश्मन का शक हुआ। नानक ने सोचा कि शायद मायारानी का कोई ऐयार आ गया और उसने छिपकर मेरा किस्सा सुन लिया, अब यहां से निकलना या जान बचाकर भागना बहुत मुश्किल है, तेजसिंह को भी यह निश्चय हो गया कि नानक द्वारा जो कुछ भलाई की आशा हुई थी अब निराशा के साथ बदल गई।
दोनों ऐयार उसे ढूंढ़ने के लिए उठे जिसकी आवाज ने यकायक उन दोनों को चौंका और होशियार कर दिया था। दो कदम भी आगे न बढ़े थे कि फिर आवाज आई, ''क्यों कष्ट करते हो, मैं स्वयं तुम्हारे पास आता हूं।'' साथ ही इसके एक आदमी इन दोनों की तरफ आता हुआ दिखाई पड़ा। जब वह पास पहुंचा तो बोला, ''ऐ तेजसिंह और नानक, तुम दोनों मुझे अच्छी तरह देख और पहचान लो, मैं तुमसे कई दफे मिलूंगा, देखो भूलना मत।''
तेजसिंह और नानक ने उस आदमी को अच्छी तरह देखा। उसका कद नाटा और रंग सांवला था। घनी और स्याह दाढ़ी और मूंछों ने उसका आधा चेहरा छिपा रखा था। उसकी आंखें बड़ी-बड़ी मगर बहुत ही सुर्ख और चमकीली थीं, हाथ-पैर से मजबूत और फुर्तीला जान पड़ता था। माथे पर सफेद चार अंगुल जगह घेरे हुए रामानन्दी तिलक था जिस पर देखने वाले की निगाह सबसे पहले पड़ सकती थी, परन्तु ऐसी अवस्था होने पर भी उसका चेहरा नमकीन और खूबसूरत था तथा देखने वाले का दिल उसकी तरफ खिंच जाना कोई ताज्जुब न था। उसकी पोशाक बेशकीमत और चुस्त मगर कुछ भौंडी थी। स्याह पायजामा, सुर्ख अंगा जिसमें बड़े-बड़े कई जेब किसी चीज से भरे हुए थे, और सब्ज रंग के मुंड़ासे की तरफ ध्यान देने से हंसी आती थी, एक खंजर बगल में और दूसरा हाथ में लिए हुए था।
तेजसिंह ने बड़े गौर से उसे देखा और पूछा, ''क्या तुम अपना नाम बता सकते हो' जिसके जवाब में उसने कहा, ''नहीं, मगर चण्डूल के नाम से आप मुझे बुला सकते हैं।''
तेजसिंह - जहां तक मैं समझता हूं, आप इस नाम के योग्य नहीं हैं।
चण्डूल - चाहे न हों।
तेजसिंह - खैर, यह भी कह सकते हो कि तुम्हारा आना यहां क्यों हुआ?
चण्डूल - इसलिए कि तुम दोनों को होशियार कर दूं कि कल शाम के वक्त उन आठ आदमियों के खून से इस बाग की क्यारियां रंगी जायंगी जो फंसकर यहां आ चुके हैं।
तेजसिंह - क्या उनके नाम भी बता सकते हो?
चण्डूल - हां, सुनो - राजा वीरेन्द्रसिंह एक, रानी चन्द्रकांता दो, इन्द्रजीतसिंह तीन, आनन्दसिंह चार, किशोरी पांच, कामिनी छह, तेजसिंह सात, नानक आठ।
तेजसिंह - (घबड़ाकर) यह तो मैं जानता हूं कि दोनों कुमार और उनके ऐयार मायारानी के फंदे में फंसकर यहां आ चुके हैं मगर राजा वीरेन्द्रसिंह और चन्द्रकांता तो...
चण्डूल - हां - हां, वे दोनों भी फंसकर यहां आ चुके हैं, पूछो नानक से।
नानक - (तेजसिंह की तरफ देखकर) हां ठीक है, अपना किस्सा कहने के बाद राजा वीरेन्द्रसिंह और रानी चन्द्रकांता का हाल मैं आपसे कहने ही वाला था, मगर मुझे वह बात अच्छी तरह मालूम नहीं है कि वे लोग क्योंकर मायारानी के फन्दे में फंसे।
चण्डूल - (नानक से) अब विशेष बातों का मौका नहीं है, तेजसिंह से जो कुछ करते बनेगा कर लेंगे, मैं इस समय तुम्हारे लिए आया हूं, आओ और मेरे साथ चलो।
नानक - मैं तुम पर विश्वास करके तुम्हारे साथ क्योंकर चल सकता हूं
चण्डूल - (कड़ी निगाह से नानक की तरफ देखके और हुकूमत के साथ) लुच्चा कहीं का! अच्छा सुन, एक बात मैं तेरे कान में कहना चाहता हूं।
इतना कहकर चण्डूल चार-पांच कदम पीछे हट गया। उसकी डपट और बात ने नानक के दिल पर कुछ ऐसा असर किया कि वह अपने को उसके पास जाने से रोक न सका। नानक चण्डूल के पास गया मगर अपने को हर तरह सम्हाले और अपना दाहिना हाथ खंजर के कब्जे पर रखे हुए था। चण्डूल ने झुककर नानक के कान में कुछ कहा जिसे सुनते ही नानक दो कदम पीछे हट गया और बड़े गौर से उसकी सूरत देखने लगा। थोड़ी देर तक यही अवस्था रही, इसके बाद नानक ने तेजसिंह की तरफ देखा और कहा, ''माफ कीजियेगा, लाचार होकर मुझे इनके साथ जाना ही पड़ा, अब मैं बिल्कुल इनके कब्जे में हूं यहां तक कि मेरी जान भी इनके हाथ में है।'' इसके बाद नानक ने कुछ न कहा। वह चण्डूल के साथ चला गया और पेड़ों की आड़ में घूम-फिरकर देखते-देखते नजरों से गायब हो गया।
अब तेजसिंह फिर अकेले पड़ गए। तरह-तरह के खयालों ने चारों तरफ से आकर उन्हें घेर लिया। नानक की जुबानी जो कुछ उन्होंने सुना था उससे बहुत-सी भेद की बातें मालूम हुई थीं और अभी बहुत-कुछ मालूम होने की आशा थी परन्तु नानक अपना किस्सा पूरा कहने भी न पाया था कि इस चण्डूल ने आकर दूसरा ही रंग मचा दिया जिससे तरद्दुद और घबड़ाहट सौ गुनी ज्यादा बढ़ गई। बिछावन पर पड़े-पड़े वे तरह-तरह की बातें सोचने लगे।
''नानक की बातों से विश्वास होता है कि उसने अपना हाल जो कुछ कहा सही-सही कहा, मगर उसके किस्से में कोई ऐसा पात्र नहीं आया जिसके बारे में चण्डूल होने का अनुमान किया जाय। फिर यह चण्डूल कौन है जिसकी थोड़ी-सी बात से जो उसने झुककर नानक के कान में कही नानक घबड़ा गया और उसके साथ जाने पर मजबूर हो गया! हाय यह कैसी भयानक खबर सुनने में आई कि अब शीघ्र ही राजा वीरेन्द्रसिंह, रानी चन्द्रकांता तथा दोनों कुमार और ऐयार लोग इस बाग में मारे जायेंगे। बेचारे राजा वीरेन्द्रसिंह और रानी चन्द्रकांता के बारे में भी अब ऐसी बातें! ...ओफ न मालूम अब ईश्वर क्या किया चाहता है! मगर हिम्मत न हारनी चाहिए, आदमी की हिम्मत और बुद्धि की जांच ऐसी ही अवस्था में होती है। ऐयारी का बटुआ और खंजर अभी मेरे पास मौजूद है, कोई उद्योग करना चाहिए, और वह भी जहां तक हो सके शीघ्रता के साथ।''
इन्हीं सब विचारों और गम्भीर चिन्ताओं में तेजसिंह डूबे हुए थे और सोच रहे थे कि अब क्या करना उचित है कि इतने ही में सामने से आती हुई मायारानी दिखाई पड़ी। इस समय वह असली बिहारीसिंह (जिसकी सूरत तेजसिंह ने बदल दी थी और अभी तक खुद जिसकी सूरत में थे) और हरनामसिंह तथा और भी कई ऐयारों और लौंडियों से घिरी हुई थी। इस समय सबेरा अच्छी तरह हो चुका था और सूर्य की लालिमा ऊंचे-ऊंचे पेड़ों की डालियों पर फैल चुकी थी।
मायारानी तेजसिंह के पास आई और असली बिहारीसिंह ने आगे बढ़कर तेजसिंह से कहा, ''धर्मावतार बिहारीसिंह, मिजाज दुरुस्त है या अभी तक आप पागल ही हैं'
तेजसिंह - अब मुझे बिहारीसिंह कहकर पुकारने की आवश्यकता नहीं, क्योंकि आप जान ही गए हैं कि यह पागल असल में राजा वीरेन्द्रसिंह का कोई ऐयार है और अब आपको यह जानकर हद दर्जे की खुशी होगी कि यह पागल बिहारीसिंह वास्तव में ऐयारों के गुरुघंटाल तेजसिंह हैं जिनकी बढ़ी हुई हिम्मतों को मुकाबला करने वाला इस दुनिया में कोई नहीं है और जो इस कैद की अवस्था में भी अपनी हिम्मत और बहादुरी का दावा करके कुछ कर गुजरने की नीयत रखता है।
बिहारीसिंह - ठीक है, मगर अब आप ऐयारों के गुरुघंटाल की पदवी नहीं रख सकते, क्योंकि आपकी अनमोल ऐयारी यहां मिट्टी में मिल गई और अब शीघ्र ही हथकड़ी-बेड़ी भी आपके नजर की जायगी।
तेजसिंह - अगर तुम मेरी ऐयारी चौपट कर चुके थे तो ऐयारी का बटुआ और खंजर भी ले लिए होते! यह गुरुघंटाल का ही काम था कि पागल होने पर भी ऐयारी का बटुआ और खंजर किसी के हाथ में जाने न दिया। बाकी रही बेड़ी सो मेरा चरण कोई छू नहीं सकता जब तक हाथ में खंजर मौजूद है! (हाथ में खंजर लेकर और दिखाकर) वह कौन-सा हाथ है जो हथकड़ी लेकर इसके सामने आने की हिम्मत रखता है।
बिहारीसिंह - मालूम होता है कि इस समय तुम्हारी आंखें केवल मुझी को देख रही हैं उन लोगों को नहीं देखतीं जो मेरे साथ हैं, अतएव सिद्ध हो गया कि तुम पागल होने के साथ-साथ अन्धे भी हो गए, नहीं तो...
बिहारीसिंह की बात पूरी न हुई थी कि बगल की एक कोठरी का दरवाजा खुला और वही चण्डूल फुर्ती के साथ निकलकर सभी के बीच में आ खड़ा हुआ जिसे देखते ही मायारानी और उसके साथियों की हैरानी का कोई ठिकाना न रहा। केवल इतना ही नहीं, बल्कि यह भी मालूम हुआ कि उस कोठरी में और भी कई आदमी हैं जिसके अन्दर से चण्डूल निकला था क्योंकि उस कोठरी का दरवाजा चण्डूल ने खुला ही छोड़ दिया था और उसके अन्दर के आदमी कुछ-कुछ दिखाई पड़ रहे थे।
चण्डूल - (मायारानी और उसके साथियों की तरफ देखकर) यह कहने की कोई जरूरत नहीं कि मैं कौन हूं, हां अपने यहां आने का सबब जरूर कहूंगा। मुझे एक लौंडी और एक गुलाम की जरूरत है, कहो, तुम लोगों में से किसे चुनूं (मायारानी की तरफ इशारा करके) मैं समझता हूं कि इसी को अपनी लौंडी बनाऊं, और (बिहारीसिंह की तरफ इशारा करके) इसे गुलाम की पदवी दूं।
बिहारीसिंह - तू कौन है जो इस बेअदबी के साथ बातें कर रहा है। (मायारानी की तरफ इशारा करके) तू जानता नहीं कि ये कोन हैं|
चण्डूल - (हंसकर) मेरी शान में चाहे कोई कैसी ही कड़ी बात कहे मगर मुझे क्रोध नहीं आता क्योंकि मैं जानता हूं कि सिवा ईश्वर के कोई दूसरा मुझसे बड़ा नहीं है, और मेरे सामने खड़ा होकर जो बातें कर रहा है वह तो गुलाम के बराबर भी हैसियत नहीं रखता! मैं क्या जानूं कि (मायारानी की तरफ इशारा करके) यह कौन है हां, यदि मेरा हाल जानना चाहते हो तो मेरे पास आओ और कान में सुनो कि क्या कहता हूं।
बिहारीसिंह - हम ऐसे बेवकूफ नहीं हैं कि तुम्हारे चकमे में आ जायं।
चण्डूल - क्या तू समझता है कि मैं उस समय तुझ पर वार करूंगा जब तू कान झुकाए हुए मेरे पास आकर खड़ा होगा
बिहारीसिंह - बेशक ऐसा ही है।
चण्डूल - नहीं-नहीं, यह काम हमारे ऐसे बहादुरों का नहीं है। अगर डरता है तो किनारे चल, मैं दूर ही से जो कुछ कहना है कह दूं जिससे कोई दूसरा न सुने!
बिहारीसिंह - (कुछ सोचकर) ओफ, मैं तुझ ऐसे कमजोर से डरने वाला नहीं, कह, क्या कहता है।
यह कहकर बिहारीसिंह उसके पास गया और झुककर सुनने लगा कि वह क्या कहता है
न मालूम चण्डूल ने बिहारीसिंह के कान में क्या कहा, न मालूम उन शब्दों में कितना असर था, न मालूम वह बात कैसे-कैसे भेदों से भरी हुई थी, जिसने बिहारीसिंह को अपने आपे से बाहर कर दिया। वह घबड़ाकर चण्डूल को देखने लगा, उसके चेहरे का रंग जर्द हो गया और बदन में थरथराहट पैदा हो गई।
चण्डूल - क्यों अगर अच्छी तरह न सुन सका हो तो जोर से पुकार के कहूं जिससे और लोग भी सुन लें।
बिहारीसिंह - (हाथ जोड़कर) बस-बस, क्षमा कीजिए, मैं आशा करता हूं कि आप अब दोहराकर उन शब्दों को श्रीमुख से न निकालेंगे, मुझे यह जानने की भी आवश्यकता नहीं कि आप कौन हैं, चाहे जो भी हों।
मायारानी - (बिहारी से) उसने तुम्हारे कान में क्या कहा जिससे तुम घबड़ा गए?
बिहारीसिंह - (हाथ जोड़कर) माफ कीजिए, मैं इस विषय में कुछ भी नहीं कह सकता।
मायारानी - (कड़ी आवाज में) क्या मैं वह बात सुनने योग्य नहीं हूं?
बिहारीसिंह - कह तो चुका कि उन शब्दों को अपने मुंह से नहीं निकाल सकता।
मायारानी - (आंखें लाल करके) क्या तुझे अपनी ऐयारी पर घमंड हो गया क्या तू अपने को भूल गया या इस बात को भूल गया कि मैं क्या कर सकती हूं और मुझमें कितनी ताकत है?
बिहारीसिंह - मैं आपको और अपने को खूब जानता हूं, मगर इस विषय में कुछ नहीं कह सकता। आप व्यर्थ खफा होती हैं, इससे कोई काम न निकलेगा।
मायारानी - मालूम हो गया कि तू भी असली बिहारीसिंह नहीं है। खैर, क्या हर्ज है, समझ लूंगी! (चण्डूल की तरफ देखकर) क्या तू भी दूसरे को वह बात नहीं कह सकता?
चण्डूल - जो कोई मेरे पास आवेगा उसके कान में मैं कुछ कहूंगा। मगर, इसका वायदा नहीं कर सकता कि वही बात कहूंगा या हर एक को नई-नई बात का मजा चखाऊंगा।
मायारानी - क्या यह भी नहीं कह सकता कि तू कौन है और इस बाग में किस राह से आया है?
चण्डूल - मेरा नाम चण्डूल है, आने के विषय में तो केवल इतना ही कह देना काफी है कि मैं सर्वव्यापी हूं, जहां चाहूं पहुंच सकता हूं। हां, कोई नई बात सुनना चाहती हो तो मेरे पास आओ और सुनो।
हरनामसिंह - (मायारानी से) पहले मुझे उसके पास जाने दीजिए, (चण्डूल के पास जाकर) अच्छा, लो कहो, क्या कहते हो?
चण्डूल ने हरनामसिंह के कान में कोई बात कही। उस समय हरनामसिंह चण्डूल की तरफ कान झुकाए जमीन की तरफ देख रहा था। चण्डूल कान में कुछ कहकर दो कदम पीछे हट गया मगर हरनामसिंह ज्यों-का-त्यों झुका हुआ खड़ा ही रह गया। यदि उस समय उसे कोई नया आदमी देखता तो यही समझता कि यह पत्थर का पुतला है। मायारानी को बड़ा ही आश्चर्य हुआ, कई सायत बीत जाने पर भी जब हरनामसिंह वहां से न हिला तो उसने पुकारा, ''हरनाम!'' उस समय वह चौंका और चारों तरफ देखने लगा, जब चण्डूल पर निगाह पड़ी तो मुंह फेर लिया और बिहारीसिंह के पास जा सिर पर हाथ रखकर बैठ गया।
मायारानी - हरनाम, क्या तू भी बिहारी का साथी हो गया वह बात मुझसे न कहेगा जो अभी तूने सुनी है?
हरनामसिंह - मैं इसी वास्ते यहां आ बैठा हूं कि आखिर तुम रंज होकर मेरा सिर काट लेने का हुक्म दोगी ही क्योंकि तुम्हारा मिजाज बड़ा क्रोधी है। मगर, लाचार हूं, मैं वह बात कदापि नहीं कह सकता।
मायारानी - मालूम होता है कि यह आदमी कोई जादूगर है। अस्तु, मैं हुक्म देती हूं कि यह फौरन गिरफ्तार किया जाय!
चण्डूल - गिरफ्तार होने के लिए तो मैं आया ही हूं, कष्ट उठाने की क्या आवश्यकता है लीजिए स्वयं मैं आपके पास आता हूं, हथकड़ी-बेड़ी कहां है लाइए!
इतना कहकर चण्डूल तेजी के साथ मायारानी के पास गया और जब तक वह अपने को सम्हाले, झुककर उसके कान में न मालूम क्या कह दिया कि उसकी अवस्था बिल्कुल ही बदल गई। बिहारीसिंह और हरनामसिंह तो बात सुनने के बाद इस लायक भी रहे थे कि किसी की बात सुनें और उसका जवाब दें। मगर, मायारानी इस लायक भी न रही। उसके चेहरे पर मुर्दनी छा गई तथा वह घूमकर जमीन पर गिर पड़ी और बेहोश हो गई। बिहारीसिंह और हरनामसिंह को छोड़कर बाकी जितने आदमी उसके साथ आये थे सभी में खलबली मच गई और सभी को इस बात का डर बैठ गया कि चण्डूल उनके कान में भी कोई ऐसी बात न कह दे जिससे मायारानी की-सी अवस्था हो जाय।
घण्टा भर बीत गया पर मायारानी होश में न आई। चण्डूल, तेजसिंह के पास गया और उनके कान में भी कोई बात कही, जिसके जवाब में तेजसिंह ने केवल इतना ही कहा, ''मैं तैयार हूं!''
तेजसिंह का हाथ पकड़े हुए चण्डूल उसी कोठरी में चला गया जिसमें से बाहर निकला था। अन्दर जाने के बाद दरवाजा बखूबी बन्द कर लिया। मायारानी के साथियों में से किसी की भी हिम्मत न पड़ी कि चण्डूल को या तेजसिंह को जाने से रोके। जिस समय चण्डूल यकायक कोठरी का दरवाजा खोलकर बाहर निकला था, उस समय मालूम होता था कि उस कोठरी के अन्दर और भी कई आदमी हैं। मगर, उस समय तेजसिंह ने वहां सिवाय अपने और चण्डूल के और किसी को भी न पाया। उधर मायारानी जब होश में आई तो बिहारीसिंह, हरनामसिंह तथा अपने और साथियों को लेकर खास महल में चली गई। उसके दोनों ऐयार बिहारीसिंह और हरनामसिंह अपने मालिक के वैसे ही ताबेदार और खैरख्वाह बने रहे जैसे थे। मगर, चण्डूल की कही हुई बात वे दोनों अपने मुंह से कभी भी निकाल नहीं सकते थे। जब-जब चण्डूल का ध्यान आता बदन के रोंगटे खड़े हो जाते थे और ठीक यही अवस्था मायारानी की भी थी। मायारानी को यह भी निश्चय हो गया कि चण्डूल नकली बिहारीसिंह अर्थात् तेजसिंह को छुड़ा ले गया।