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भाग 4

11 जून 2022

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हम ऊपर लिख आये हैं कि देवीसिंह को साथ लेकर शेरसिह कुंअर इन्द्रजीतसिंह को छुड़ाने के लिए रोहतासगढ़ से रवाना हुए। शेरसिंह इस बात को तो जानते थे कि कुंअर इन्द्रजीतसिंह फलां जगह हैं परन्तु उन्हें तालाब के गुप्त भेदों की कुछ भी खबर न थी। राह में आपस में बातचीत होने लगी।

देवीसिंह - लाली का भेद कुछ मालूम हुआ?

शेरसिंह - अफसोस, उसके और कुन्दन के बारे में मुझसे बड़ी भारी भूल हुई। ऐसा धोखा खाया कि शर्म के मारे कुछ कह नहीं सकता।

देवीसिंह - इसमें शर्म की क्या बात है। ऐसा कोई ऐयार दुनिया में न होगा जिसने कभी धोखा न खाया हो। हम लोग कभी धोखा देते हैं, कभी स्वयं धोखे में आ जाते हैं, फिर इसका अफसोस कहां तक किया जाय!

शेरसिंह - आपका कहना बहुत ठीक है, खैर, इस बारे में मैंने जो कुछ मालूम किया है उसे कहता हूं! यद्यपि थोड़े दिनों तक मैंने रोहतासगढ़ से अपना सम्बन्ध छोड़ दिया था, तथापि मैं कभी-कभी वहां जाया करता और गुप्त राहों से महल के अन्दर जाकर वहां की खबर भी लिया करता था। जब किशोरी वहां फंस गयी तो अपनी भतीजी कमला के कहने से मैं वहां दूसरे-तीसरे बराबर जाने लगा। लाली और कुन्दन को मैंने महल में देखा। यह न मालूम हुआ कि ये दोनों कौन हैं। बहुत कुछ पता लगाया मगर कुछ काम न चला। परन्तु कुन्दन के चेहरे पर जब मैं गौर करता तो मुझे शक होता कि वह सरला है।

देवीसिंह - सरला कौन?

शेरसिंह - वही सरला जिसे तुम्हारी चम्पा ने चेली बनाकर रखा था और जो उस समय चम्पा के साथ थी जब उसने एक खोह के अन्दर माधवी के ऐयार की लाश काटी थी।

देवीसिंह - हां वह छोकरी, मुझे अब याद आया। मालूम नहीं कि आजकल वह कहां है। खैर, तब क्या हुआ तुमने समझा कि वह सरला है मगर उस खोह का और लाश काटने का हाल तुम्हें कैसे मालूम हुआ?

शेरसिंह - वह हाल स्वयं सरला ने कहा था। वह मेरे आपस वालों में से है। इत्तिफाक से एक दिन मुझसे मिलने के लिए रोहतासगढ़ आयी थी, तब सब हाल मैंने सुना था। मगर मुझे यह नहीं मालूम कि आजकल वह कहां है।

शेरसिंह - एक यही भेद खोलने की नीयत से मैं रात के समय रोहतासगढ़ महल के अन्दर गया और छिपकर सरला के सामने जाकर बोला, ''मैं पहचान गया कि तू सरला है, फिर अपना भेद मुझसे क्यों छिपाती है' इसके जवाब में कुन्दन ने पूछा, ''तुम कौन हो'?

मैं - शेरसिंह।

सरला - मुझे जब तक निश्चय न हो कि तुम शेरसिंह ही हो, मैं अपना भेद कैसे कहूं?

मैं - क्या तू मुझे नहीं पहचानती?

सरला - क्या जाने, कोई ऐयार सूरत बदल के आया हो। अगर तुम पहचान गए कि मैं सरला हूं तो कोई ऐसी छिपी हुई बात कहो जो मैंने तुमसे कही हो।

इसके जवाब में मैं वही खोह वाला अर्थात् लाश काटने वाला किस्सा कह गया और अन्त में मैं बोला कि यह हाल स्वयं तूने मुझसे बयान किया था।

उस किस्से को सुनकर कुन्दन हंसी और बोली, ''हां, अब मैं समझ गयी। मैं चम्पा के हुक्म से यहां का हाल-चाल लेने आयी थी और अब किशोरी को छुड़ाने की फिक्र में हूं। मगर लाली मेरे काम में बाधा डालती है। कोई ऐसी तरकीब बताइये जिसमें लाली मुझसे दबे और डरे।''

मैं उस समय यह कहकर वहां से चला आया कि अच्छा, मैं सोचकर इसका जवाब दूंगा।

देवीसिंह - तब क्या हुआ?

शेरसिंह - मैं वहां से रवाना हुआ और पहाड़ी के नीचे उतरते समय एक विचित्र बात मेरे देखने और सुनने में आई।

देवीसिंह - वह क्या?

शेरसिंह - जब मैं अंधेरी रात में पहाड़ी के नीचे उतर रहा था तो जंगल में मालूम हुआ कि दो - तीन आदमी जो पगडण्डी के पास ही थे, आपस में बातें कर रहे हैं। मैं पैर दबाता हुआ उनके पास गया और छिपकर बातें सुनने लगा, मगर उस समय उनकी बातें समाप्त हो चुकी थीं, केवल एक आखिरी बात सुनने में आई।

देवीसिंह - वह क्या थी?

शेरसिंह - एक ने कहा - 'भरसक तो लाली और कुन्दन दोनों उन्हीं में से हैं, नहीं तो लाली तो जरूर इन्द्रजीतसिंह की दुश्मन है! मगर इसकी पहचान तो सहज ही में हो सकती है। केवल 'किसी के खून से लिखी हुई किताब' और 'आंचल पर गुलामी की दस्तावेज' इन दोनों जुमलों से अगर वह डर जाय, तो हम समझ जायंगे कि वीरेन्द्रसिंह की दुश्मन है। खैर, बूझा जायगा, पहले महल में जाने का मौका भी तो मिले।' इसके बाद और कुछ सुनने में न आया और वे लोग वहां से न मालूम कहां चले गए। दूसरे दिन मैं फिर कुन्दन के पास गया और उससे बोला कि ''तू लाली के सामने 'किसी के खून से लिखी हुई किताब' और 'आंचल पर गुलामी की दस्तावेज' का जिक्र करके देख, क्या होता है!''

देवीसिंह - फिर क्या हुआ?

शेरसिंह - तीन-चार दिन बाद मैं कुन्दन के पास गया तो उसकी जुबानी मालूम हुआ कि कुन्दन के मुंह से वे बातें सुनकर लाली बहुत डरी और उसने कुन्दन का मुकाबला करना छोड़ दिया। मगर मुझे थोड़े ही दिनों में मालूम हो गया कि कुन्दन सरला न थी, उसने मुझे धोखा दिया और चालाकी से मेरी जुबानी कई भेद मालूम करके अपना काम निकाल लिया। मुझे इस बात की बड़ी शर्म है कि मैंने अपने दुश्मन को दोस्त समझा और धोखा खाया।

देवीसिंह - अक्सर ऐसा धोखा हो जाता है। खैर, लाली तो अभी हम लोगों के कैद ही में है, कहीं जाती नहीं, रही कुन्दन, सो इन्द्रजीतसिंह को लेकर लौटने पर कोई तरकीब ऐसी जरूर निकाली जायगी, जिसमें बाकी लोगों का असल हाल मालूम हो।

इसी तरह की बातें करते हुए दोनों ऐयार चलते गये। रात को एक जगह दो-तीन घण्टे आराम किया और फिर चल पड़े। सबेरा होते-होते एक ऐसी जगह पहुंचे जहां एक छोटा-सा टीला ऐसा था जिस पर चढ़ने से दूर-दूर तक की जमीन दिखाई देती थी तथा वहां से कमलिनी का तालाब वाला मकान भी बहुत दूर न था। दोनों ऐयार उस टीले पर चढ़ गये और मैदान की तरफ देखने लगे। यकायक शेरसिंह ने चौंककर कहा, ''अहा, हम लोग क्या अच्छे मौके पर आये हैं! देखो, वह कुंअर इन्द्रजीतसिंह और वह औरत, जिसने उन्हें फंसा रखा है, घोड़े पर सवार इसी तरफ चले आ रहे हैं!''

देवीसिंह - हां, ठीक तो है, उनके साथ और भी कई सवार हैं।

शेरसिंह - मालूम होता है, उस औरत ने उन्हें अच्छी तरह अपने वश में कर लिया है। बेचारे इन्द्रजीतसिंह क्या जानें कि यह उनकी दुश्मन है। चाहे जो हो, इस समय इन लोगों को आगे न बढ़ने देना चाहिए।

देवीसिंह - सबके आगे एक औरत घोड़े पर सवार आ रही है। मालूम होता है कि उन लोगों को रास्ता दिखाने वाली यही है।

शेरसिंह - बेशक ऐसा ही है, तभी तो सब कोई उसके पीछे-पीछे चल रहे हैं। पहले उसी को रोकना चाहिए, मगर घोड़ों की चाल बहुत तेज है।

देवीसिंह - कोई हर्ज नहीं, हम दोनों आदमी घोड़े की राह पर अड़कर खड़े हो जायं और अपने को घोड़े से बचाने के लिए मुस्तैद रहें। अच्छी नस्ल का घोड़ा यकायक आदमी के ऊपर टाप न रखेगा, वह लोगों को राह में देख जरूर अड़ेगा या झिझकेगा, बस, उसी समय घोड़े की बाग थाम लेंगे।

दोनों ऐयारों ने बहुत जल्द अपनी राय ठीक कर ली और दोनों आदमी एक साथ घोड़ों की राह में अड़ के खड़े हो गये। बात-की-बात में वे लोग भी आ पहुंचे। तारा का घोड़ा रास्ते में आदमियों को खड़ा देखकर झिझका और आड़ देकर बगल की तरफ घूमना चाहा, उसी समय देवीसिंह ने फुर्ती से लगाम पकड़ ली। इस समय तारा का घोड़ा लाचार रुक गया और उसके पीछे आने वालों को भी रुकना पड़ा। कुंअर इन्द्रजीतसिंह शेरसिंह को तो नहीं जानते थे, मगर देवीसिंह को उन्होंने पहचान लिया और समझ गये कि ये लोग मेरी ही खोज में घूम रहे हैं। आखिर वे देवीसिंह के पास आये और बोले -

कुमार - यद्यपि आप सब काम मेरी भलाई ही के लिए करते होंगे, परन्तु इस समय हम लोगों को रोका सो अच्छा न किया।

देवीसिंह - क्या मामला है, कुछ कहिए तो!

कुमार - (जल्दी में घबड़ाए हुए ढंग से) बेचारी किशोरी एक आफत में फंसी हुई है उसी को बचाने जा रहे हैं।

देवीसिंह - किस आफत में फंसी है?

कुमार - इतना कहने का मौका नहीं है।

देवीसिंह - यह औरत आपको अवश्य धोखा देगी जिसके साथ आप जा रहे हैं।

कुमार - ऐसा नहीं हो सकता, यह बड़ी ही नेक और मेरी हमदर्द है।

इतना सुनते ही कमलिनी आगे बढ़ आई और देवीसिंह से बोली -

कमलिनी - मैं खूब जानती हूं कि आप लोगों को मेरी तरफ से शक है, तथापि मुझे कहना ही पड़ता है कि इस समय आप हम लोगों को न रोकें, नहीं तो पछताना पड़ेगा। यदि आप लोगों को मेरी और कुमार की बात का विश्वास न हो तो मेरे सवारों में से दो आदमी घोड़ों पर से उतर पड़ते हैं, उनके बदले में आप दोनों आदमी घोड़ों पर सवार होकर साथ चलें और देख लें कि हम आपके खैरख्वाह हैं या बदख्वाह।

देवीसिंह - बेशक यह अच्छी बात है और मैं इसे मंजूर करता हूं।

कमलिनी के इशारा करते ही दो सवारों ने घोड़ों की पीठ खाली कर दी। उनके बदले में देवीसिंह और शेरसिंह सवार हो गए और फिर उसी तरह सफर शुरू हुआ। इस समय कुछ-कुछ सूरज निकल चुका था और सुनहरी धूप ऊंचे पेड़ों के ऊपर वाले हिस्सों पर फैल चुकी थी।

आधे घण्टे और सफर करने के बाद वे लोग उस जगह पहुंचे जहां धनपत ने किशोरी को जलाकर खाक कर डालने के लिए चिता तैयार की थी और जहां से दीवान अग्निदत्त लड़-भिड़कर किशोरी को ले गया था। इस समय भी वह चिता कुछ बिगड़ी हुई सूरत में तैयार थी और इधर-उधर बहुत-सी लाशें पड़ी हुई थीं। उस जगह पहुंचकर तारा ने घोड़ा रोका और इसके साथ ही सब लोग रुक गये। तारा ने कमलिनी की तरफ देखकर कहा -

तारा - बस, इसी जगह मैं आप लोगों को लाने वाली थी, क्योंकि इसी जगह धनपत के बहुत-से आदमी मौजूद थे और यहीं वह किशोरी को लेकर आने वाली थी। (लाशों की तरफ देखकर) मालूम होता है, यहां बहुत खून-खराबा हुआ है!

कमलिनी - तूने कैसे जाना कि किशोरी को लेकर धनपत इसी जगह आने वाली थी और धनपति को तूने कहां छोड़ा था?

तारा - रात के समय खूब छिपकर धनपत के आदमियों की बात मैंने सुनी थी जिससे बहुत कुछ हाल मालूम हुआ था और धनपत को मैंने उसी खोह के मुहाने पर छोड़ा था जो रोहतासगढ़ तहखाने से बाहर निकलने का रास्ता है और जहां सलई के दो पेड़ लगे हैं। उस समय बेहोश किशोरी धनपत के कब्जे में थी और धनपत के कई आदमी वहां मौजूद थे। उन लोगों की बातें सुनने से मुझे विश्वास हो गया था कि वे लोग किशोरी को लिए हुए इसी जगह आवेंगे। (एक लाश की तरफ देखके और चौंकके) देखिए, पहिचानिए।

कमलिनी - बेशक यह धनपत का नौकर है। (और लाशों को भी अच्छी तरह देखकर) बेशक धनपत यहां तक आई थी, पर किसी से लड़ाई हो गई जो इन लाशों को देखने से जाना जाता है। मगर इनमें बहुत-सी लाशें ऐसी हैं जिन्हें मैं नहीं पहचानती। न मालूम इस लड़ाई का क्या नतीजा हुआ, धनपत गिरफ्तार हो गई या भाग गई, और किशोरी किसके कब्जे में पड़ गई! (कुमार की तरफ देखकर) शायद आपके सिपाही या ऐयार लोग यहां आए हों।

कुमार - नहीं। (देवीसिंह की तरफ देखकर) आप क्या खयाल करते हैं?

देवीसिंह - खयाल तो मैं बहुत-कुछ करता हूं, इसका हाल कहां तक पूछिएगा, मगर इन लाशों में हमारी तरफ वालों की कोई लाश नहीं है जिससे यह मालूम हो कि वे लोग यहां आये होंगे।

सब लोग इधर-उधर घूमकर उन लाशों को देखने लगे। यकायक देवीसिंह एक ऐसी लाश के पास पहुंचे जिसमें जान बाकी थी और वह धीरे-धीरे कराह रहा था। उसके बदन में कई जगह जख्म लगे हुए थे और कपड़े खून से तर थे। देवीसिंह ने कुमार की तरफ देखके कहा, ''इसमें जान बाकी है, अगर बच जाय और कुछ बातचीत कर सके, तो बहुत-कुछ हाल मालूम होगा।''

कई आदमी उस लाश के पास जा मौजूद हुए और उसे होश में लाने की फिक्र करने लगे। उसके जख्मों पर पट्टी बांधी गई और ताकत देने वाली दवा भी पिलाई गई। घोड़े नंगी पीठ करके दम लेने, हरारत मिटाने और चरने के लिए लम्बी बागडोरों से बांधकर छोड़ दिए गए।

आधे घण्टे बाद उस आदमी को होश आया और उसने कुछ बोलने का इरादा किया, मगर जैसे ही उसकी निगाह कमलिनी पर पड़ी, वह कांप उठा और उसके चेहरे पर मुर्दनी छा गई। उसके दिल का हाल कमलिनी समझ गई और उसके पास जाकर मुलायम आवाज में बोली, ''बांकेसिंह, डरो मत, मैं वादा करती हूं कि तुम्हें किसी तरह की तकलीफ न दूंगी। हां, होश में आओ और मेरी बात का जवाब दो।''

कमलिनी की बात सुनकर उसके चेहरे की रंगत बदल गई, डर की निशानी जाती रही, और यह भी जाना गया कि वह कमलिनी की बातों का जवाब देने के लिए तैयार है।

कमलिनी - किशोरी को लेकर धनपत यहां आई थी?

बांकेसिंह - (सिर हिलाकर धीरे से) हां, मगर...।

कमलिनी - मगर क्या?

बांकेसिंह - उसने किशोरी को जला देना चाहा था, मगर एकाएक अग्निदत्त और उसके साथी लोग आ पहुंचे और लड़-भिड़कर किशोरी को ले गये। हम लोग उन्हीं के हाथ से जख्मी..।

बांकेसिंह ने इतनी बातें धीरे-धीरे रुक-रुककर कहीं क्योंकि जख्मों से ज्यादे खून निकल जाने के कारण वह बहुत ही कमजोर हो रहा था, यहां तक कि बात पूरी न कर सका और गश में आ गया। इन लोगों ने उसे होश में लाने के लिए बहुत-कुछ उद्योग किया मगर दो घण्टे तक होश न आया। इस बीच में देवीसिंह ने कई दफे दवा पिलाई।

देवीसिंह - इसमें कोई शक नहीं कि यह बच जायगा।

शेरसिंह - (देवीसिंह की तरफ देखकर) हमने (कमलिनी की तरफ इशारा करके) इनके बारे में भी धोखा खाया, वास्तव में यह कुमार के साथ नेकी कर रही हैं।

देवीसिंह - बेशक यह कुमार की दोस्त हैं, मगर तुमने इनके बारे में कई बातें ऐसी कही थीं कि अब भी..॥

कुमार - नहीं-नहीं देवीसिंहजी, मैं इन्हें अच्छी तरह आजमा चुका हूं; सच तो यह है कि इन्हीं की बदौलत आज आप लोगों ने मेरी सूरत देखी।

इसके बाद कुमार ने शुरू से अपना पूरा किस्सा देवीसिंह से कह सुनाया और कमलिनी की बड़ी तारीफ की।

कमलिनी - आप लोगों ने मेरे बारे में बहुत-सी बातें सुनी होंगी और वास्तव में मैंने जैसे काम किये हैं वे ऐसे नहीं कि कोई मुझ पर विश्वास कर सके। हां, जब आप लोग मेरा असल भेद जान जायेंगे तो अवश्य कहेंगे कि तुम्हारे हाथ से कभी कोई बुरा काम नहीं हुआ। अभी कुमार को भी मेरा कुछ हाल मालूम नहीं। समय मिलने पर मैं अपना विचित्र हाल आप लोगों से कहूंगी और उस समय आप लोग भी कहेंगे कि बेशक शेरसिंह और उनकी भतीजी कमला ने मेरे बारे में धोखा खाया।

शेरसिंह - (ताज्जुब में आकर) आप मुझे और मेरी भतीजी कमला को कैसे जानती हैं?

कमलिनी - मैं आप लोगों को बहुत अच्छी तरह से जानती हूं। हां, आप लोग मुझे नहीं जानते और जब तक मैं स्वयं अपना हाल न कहूं, जान भी नहीं सकते।

इसके बाद कुमार ने देवीसिंह से शेरसिंह का हाल पूछा और उन्होंने सब हाल कहा। इसी समय उस जख्मी ने फिर आंखें खोलीं और पीने के लिए पानी मांगा जिसका इलाज ये लोग कर रहे थे।

अबकी दफे बांकेसिंह अच्छी तरह होश में आ गया और कमलिनी के पूछने पर उसने इस तरह बयान किया -

''इसमें कोई सन्देह नहीं कि अग्निदत्त किशोरी को ले गया क्योंकि मैं उसे बखूबी पहचानता हूं। मगर यह नहीं मालूम कि किशोरी की तरह धनपत भी उसके पंजे में फंस गई या निकल भागी, क्योंकि लड़ाई खतम होने के पहले ही मैं जख्मी होकर गिर पड़ा था। मैं जानता था कि अग्निदत्त बहुत-से बदमाशों और लुटेरों के साथ यहां से थोड़ी दूर एक पहाड़ी पर रहता है और इसी सबब से धनपत को मैंने कहा भी था कि इस जगह आपका अटकना मुनासिब नहीं, मगर होनहार को क्या किया जाय। (हाथ जोड़कर) महारानी, न मालूम क्यों आपने हम लोगों को त्याग दिया आज तक इसका ठीक पता हम लोगों को न लगा।''

बांकेसिंह की आखिरी बात का जवाब कमलिनी ने कुछ न दिया और उससे उस पहाड़ी का पूरा पता पूछा जहां अग्निदत्त रहता था। बांकेसिंह ने अच्छी तरह वहां का पता दिया। कमलिनी ने अपने सवारों में से एक को बांकेसिंह के पास छोड़ा और बाकी सबको साथ ले वहां से रवाना हुई। इस समय कुंअर इन्द्रजीतसिंह की क्या अवस्था थी इसे अच्छी तरह समझना जरा कठिन था। कमलिनी की नेकी, किशोरी की दशा, इश्क की खिंचाखिंची और अग्निदत्त की कार्रवाई के सोच-विचार में ऐसे मग्न हुए कि थोड़ी देर के लिए तन-बदन की सुध भुला दी। केवल इतना जानते रहे कि कमलिनी के पीछे-पीछे किसी काम के लिए कहीं जा रहे हैं। सूर्य अस्त होने के बाद ये लोग उस पहाड़ी के नीचे पहुंचे जिस पर अग्निदत्त रहता था और जहां खोह के अन्दर किशोरी की अन्तिम अवस्था ऊपर के बयान में लिख आये हैं।

इन लोगों का दिल इस समय ऐसा न था कि इस पहाड़ी के नीचे पहुंचकर किसी जरूरी काम के लिए भी कुछ देर तक अटकते। घोड़ों को पेड़ों से बांध तुरत चढ़ने लगे और बात-की-बात में पहाड़ी के ऊपर जा पहुंचे। सबसे पहले जिस चीज पर इन लोगों की निगाह पड़ी, वह एक लाश थी जिसे इन लोगों में से कोई भी नहीं पहचानता था और इसके बाद भी बहुत-सी लाशें देखने में आईं, जिससे इन लोगों का दिल छोटा हो गया और सोचने लगे कि देखें, किशोरी से मुलाकात होती है या नहीं।

इस पहाड़ी के ऊपर एक छोटी-सी मढ़ी बनी हुई थी जिसमें बीस-पच्चीस आदमी रह सकते थे और इसी की बगल में एक गुफा थी जो बहुत लम्बी और अंधेरी थी। पाठक, यह वही गुफा थी जिसमें बेचारी किशोरी दुष्ट अग्निदत्त के हाथ से बेबस होकर जमीन पर गिर पड़ी थी।

इस पहाड़ी के ऊपर बहुत-सी लाशें पड़ी हुई थीं, किसी का सिर कटा हुआ था, किसी का तलवार ने जनेवा काट गिराया था, कोई कमर से दो टुकड़े था, किसी का हाथ कटकर अलग हो गया था, किसी के पेट को खंजर ने फाड़ डाला था और आंत बाहर निकल पड़ी थी, मगर किसी जीते आदमी का नाम-निशान वहां न था। ऐसी अवस्था देखकर कुंअर इन्द्रजीतसिंह बहुत घबड़ाये और उन्हें किसी के मिलने से नाउम्मीदी हो गई। ऐयारों ने बटुए से सामान निकालकर बत्ती जलाई और खोह के अन्दर घुसकर देखा तो वहां भी एक लाश के सिवाय और कुछ न दिखाई पड़ा। निगाह पड़ते ही देवीसिंह ने पहचान लिया कि यह अग्निदत्त की लाश है। एक खंजर उसके कलेजे में अभी तक चुभा हुआ मौजूद था, केवल उसका कब्जा बाहर दिखाई दे रहा था, उसके पास ही एक लपेटा हुआ कागज पड़ा था। देवीसिंह ने वह कागज उठा लिया और दोनों ऐयार उस लाश को बाहर लाये।

सभी ने अग्निदत्त की लाश को देखा और ताज्जुब किया।

शेरसिंह - इस हरामजादे को इसके कुकर्मों की सजा न मालूम किसने दी!

कमलिनी - हाय, इस कम्बख्त की बदौलत बेचारी किशोरी पर न मालूम क्या-क्या आफतें आईं और वह कहां या किस अवस्था में है!

देवीसिंह - (चीठी दिखाकर) इसकी लाश के पास से यह चीठी भी मिली है, शायद इससे कुछ पता चले।

कमलिनी - हां-हां, इसे पढ़ो तो सही, देखें, क्या लिखा है।

सभी का ध्यान उस चीठी पर गया। कुंअर इन्द्रजीतसिंह ने वह चीठी देवीसिंह के हाथ से ले ली और पढ़कर सभी को सुनायी। यह लिखा था -

''आखिर हरामजादी किशोरी मेरे हाथ लगी! इसमें कोई शक नहीं कि अब यह अपने किये का फल भोगेगी। इसकी शैतानी ने मुझे जीते-जी मार ही डाला था मगर मैंने भी पीछा न छोड़ा। कम्बख्त अग्निदत्त की क्या हकीकत थी जो मेरे हाथ से अपनी जान बचा ले जाता। मैं उन लोगों को ललकारता हूं जो अपने को बहादुर, दिलेर और राजा मानते हैं! कहां हैं वीरेन्द्रसिंह, इन्द्रजीतसिंह और आनन्दसिंह, जो अपनी बहादुरी का दावा रखते हैं आवें और मेरा चरण छूकर माफी मांगें। कहां हैं उनके ऐयार, जो अपने को विधाता ही समझ बैठे हैं आवें और मेरे ऐयारों के सामने सिर झुकावें। मुझे विश्वास है कि उन लोगों में से कोई-न-कोई किशोरी को खोजता यहां जरूर आवेगा और इसलिए मैं यह चीठी लिखकर यहां रखे जाता हूं कि ऊपर लिखे व्यक्ति या उनके साथी और मददगार लोग, चाहे जो कोई भी हों, अपनी-अपनी जान बचावें, क्योंकि उनकी मौत आ चुकी है और अब वे लोग मेरे हाथ से किसी तरह बच नहीं सकते। कोई यह न कहे कि मैं छिपकर अपना काम करता हूं और किसी को अपनी सूरत नहीं दिखाता। जिसको मेरी सूरत देखनी हो मेरे घर चला आवे, मगर होशियार रहे क्योंकि मेरे सामने आने वाले की भी वही दशा होगी जो यहां वालों की हुई। लो, मैं अपना पता भी बताये देता हूं, जिसको आना हो, मेरे पास चला आवे। यहां से पांच कोस पूरब एक नाला है उसी के किनारे दक्खिन रुख दो कोस तक चले जाने के बाद मेरा मकान दिखाई पड़ेगा।

- बहादुरों का दादागुरु।''

इस चीठी ने सबको अपने आपसे बाहर कर दिया। मारे क्रोध के कुंअर इन्द्रजीतसिंह की आंखें कबूतर के खून की तरह सुर्ख हो गईं। देवीसिंह और शेरसिंह दांत पीसने लगे।

कुमार - चाहे जो हो, मगर इस हरामजादे से मुकाबला किये बिना मैं किसी तरह आराम नहीं कर सकता।

देवीसिंह - बेशक इसको इस ढिठाई की सजा दी जायगी।

कुमार - अब यहां ठहरना व्यर्थ है, चलकर उसे ढूंढ़ना चाहिए।

कमलिनी - बेशक उसने बड़ी बेअदबी की है, उसे जरूर सजा देनी चाहिए। मगर आप लोग बुद्धिमान हैं, मुझे विश्वास है कि बिना समझे-बूझे किसी काम में जल्दी न करेंगे।

कुमार - ऐसे समय में विलम्ब करना अपनी बहादुरी में बट्टा लगाना है।

कमलिनी - आप इस समय क्रोध में हैं इसलिए ऐसा कहते हैं, नहीं तो आप स्वयं पहले किसी ऐयार को भेजना मुनासिब समझते। इतनी बड़ी शेखी के साथ पत्र लिखने वाले को मैं सच्चा नहीं समझ सकती। खुल्लमखुल्ला आप लोगों का मुकाबला करना हंसी-खेल है क्या यह केवल उन्हीं आदमियों का काम है जो दगाबाज नहीं, बल्कि सच्चे बहादुर हैं कभी नहीं, कभी नहीं, बेशक यह कोई पूरा बेईमान और हरामजादा आदमी है। इसके अतिरिक्त आप जरा इस रात के समय और अपने घोड़ों की हालत पर तो ध्यान दीजिये कि अब वे एक कदम भी चलने लायक नहीं रहे।

यद्यपि कुमार और उनके ऐयार इस समय बड़े क्रोध में थे परन्तु कमलिनी की सच्ची हमदर्दी के साथ मीठी-मीठी बातों ने उन्हें ठंडा किया और इस लायक बनाया कि वे नेक और बद को सोच सकें। कमलिनी के आदमियों के साथ और ऐयारों के बटुए में बहुत-कुछ खाने का सामान था। पहाड़ी के नीचे एक छोटा-सा चश्मा बह रहा था, वहां से जल मंगवाया गया और सभी ने कुछ खाकर जल पीया, इसके बाद फिर सोचने लगे कि अब क्या करना चाहिए।

देवीसिंह - जिस मकान का इस चीठी में पता दिया गया है यदि वहां न जाना चाहिए तो यहां रहना भी मुनासिब नहीं, क्योंकि वे दगाबाज लोग इस जगह से भी बेफिक्र न होंगे। मेरी राय तो यही है कि शेरसिंह के साथ कुमार विजयगढ़ जायं और मैं उस मकान की खोज में जाकर देखूं कि वहां क्या है।

कमलिनी - आपका कहना बहुत ठीक है, मैं भी यही मुनासिब समझती हूं, इस बीच में मुझे भी दो-एक दुश्मनों का पता लगा लेने का मौका मिलेगा, क्योंकि जहां तक मैं समझती हूं, यह एक ऐसे आदमी का काम है जिसे सिवाय मेरे आप लोग नहीं जानते और न इस समय उसका नाम आप लोगों के सामने लेना ही मैं मुनासिब समझती हूं।

कुमार - क्या नाम बताने में कोई हर्ज है?

कमलिनी - बेशक हर्ज है। हां, यदि मेरा अन्दाज ठीक निकला तो अवश्य उन लोगों का नाम बताऊंगी और पता भी दूंगी।

कुमार - खैर, मगर जो कुछ राय आप लोगों ने दी है उसके अनुसार चलने में तो कई दिन व्यर्थ लग जायंगे, इसलिए मेरी राय कुछ दूसरी ही है।

देवीसिंह - वह क्या?

कुमार - मैं खुद आपके साथ उस मकान की तरफ चलता हूं जिसका पता इस चीठी में दिया गया है। यदि केवल उस मकान के अन्दर रहने वाले हमारे दुश्मन हैं तो हिम्मत हारने की कोई जरूरत नहीं। इसी समय उन्हें जीतकर किशोरी को छुड़ा लाऊंगा। और यदि उन लोगों के पास फौज होगी तो जरूर मकान के बाहर टिकी हुई होगी जिसका पता लगाना कुछ कठिन न होगा। उस समय जो कुछ आप लोग राय देंगे, किया जायगा।

इसी तरह की बातचीत करने में पहर रात बीत गई। आखिर वही निश्चय ठहरा जो कुमार ने सोचा था, अर्थात् इसी समय सब कोई उस मकान की तरफ जाने के लिए मुस्तैद हुए और पहाड़ी के नीचे उतर आये। पेड़ों के साथ बागडोर से बंधे हुए घोड़े वहीं पर चर रहे थे जो अपने सवारों को देखकर हिनहिनाने लगे, जिससे जाना गया कि वे इस समय फिर सफर को तैयार हैं और पहर भर चरने और आराम करने से उनकी थकावट कम हो चुकी है। सब लोग घोड़ों पर सवार होकर वहां से रवाना हुए।

जो कुछ उस चीठी में लिखा था, वह ठीक मालूम होने लगा, अर्थात् पूरब पांच कोस चले जाने के बाद एक नाला मिला और उसी के किनारे-किनारे दो कोस दक्खिन जाने के बाद एक मकान की सफेदी दिखाई पड़ी। साफ मालूम होता था कि यह मकान अभी नया बना है या आज ही कल में इसके ऊपर चूना फेरा गया है। रात दो पहर से ज्यादा जा चुकी थी, चन्द्रमा अपनी पूर्ण कला से आकाश के बीच में दिखाई दे रहे थे, शीतल किरणें चारों तरफ फैली हुई थीं और मालूम होता था कि जमीन पर चांदी का पत्र जड़ा हुआ है। ये लोग घना जंगल पीछे छोड़ आये थे और इस जगह पेड़ बहुत कम और छोटे-छोटे थे, उस मकान के चारों तरफ दो सौ बीघे के लगभग साफ मैदान था।

अच्छी तरह जांच करने और खयाल दौड़ाने से मालूम हो गया कि इस जगह पर फौज नहीं है और न लड़ाई का कुछ सामान ही है, अगर कुछ है तो उसी मकान के अन्दर होगा। आखिर थोड़ी देर तक सोच-विचार कर ये लोग मकान के पास पहुंचे।

यह मकान बहुत बड़ा न था, लगभग पचास गज लम्बा और इसी कदर चौड़ा होगा। इसकी ऊंचाई भी पैंतीस गज से ज्यादा न होगी। चारों तरफ की दीवारें साफ थीं, न तो किसी तरफ कोई दरवाजा था और न कोई खिड़की। ये लोग चारों तरफ घूमे, मगर अन्दर जाने का रास्ता न मिला, आखिर सब लोग घोड़ों पर से उतरकर एक तरफ खड़े हो गये। देवीसिंह ने कमन्द फेंका और उसके सहारे से दीवार पर चढ़कर देखना चाहा कि अन्दर क्या है।

ऊपर की दीवार बहुत चौड़ी थी। सभी ने देखा कि देवीसिंह दीवार पर खड़े होकर अन्दर की तरफ बड़े गौर से देख रहे हैं। यकायक देवीसिंह खिलखिलाकर हंसे और बिना कुछ कहे उस मकान के अन्दर कूद पड़े।

यह देख सभी को ताज्जुब हुआ। कमलिनी ने तारा के कान में कुछ कहा जिसके जवाब में उसने सिर हिला दिया। थोड़ी देर तक देवीसिंह की राह देखी गई, आखिर उसी कमन्द के सहारे शेरसिंह चढ़ गये और उनकी भी वही अवस्था देखने में आई अर्थात् कुछ देर तक गौर से देखने के बाद देवीसिंह की तरह हंसकर शेरसिंह भी उस मकान के अन्दर कूद गए।

अब तो कुमार के आश्चर्य की कोई हद न रही। वे ताज्जुब में आकर सोचने लगे कि यह क्या मामला है और इस मकान के अन्दर क्या है जिसे देख दोनों ऐयारों ने ऐसा किया ''जो हो, अब मैं भी ऊपर चढूंगा और देखूंगा कि क्या है!'' कहकर कुमार भी उसी कमन्द के सहारे ऊपर चढ़ने को तैयार हुए, मगर कमलिनी ने हाथ पकड़ लिया और कहा, ''ऐसा नहीं हो सकता, अभी हमारे कई आदमी मौजूद हैं, पहले इन्हें जा लेने दीजिए।'' लाचार कुमार को रुकना पड़ा। कमलिनी ने अपने उन सवारों की तरफ देखा जो उसके साथ आये थे और कहा, ''तुम लोगों में से एक आदमी ऊपर जाकर देखो कि क्या है'?

हुक्म पाकर उसी कमन्द के सहारे एक आदमी ऊपर गया और उसकी भी वही दशा हुई, दूसरा गया वह भी कूद पड़ा, फिर तीसरा गया वह भी न लौटा, यहां तक कि कमलिनी के कुल आदमी इसी तरह उस मकान के अन्दर जा दाखिल हुए। कमलिनी ने बहुत रोका और मना किया मगर कुमार ने उसकी बात पर ध्यान न दिया। वे भी उसी कमन्द के सहारे ऊपर चढ़ गये और अपने साथियों की तरह गौर से थोड़ी देर तक देखने के बाद हंसते हुए मकान के अन्दर कूछ पड़े।

अब सबेरा हो गया, आसमान पर पूरब तरफ सूर्य की लालिमा दिखाई देने लगी, कमलिनी ने हंसकर अपनी ऐयारा तारा की तरफ देखा, वह गर्दन हिलाकर हंसी और बोली, ''चलिए, अब देर करने की कोई जरूरत नहीं।''

बाकी घोड़े उसी तरह उसी जगह छोड़ दिये गये। दो घोड़ों पर कमलिनी और तारा सवार हुईं और हंसती हुई एक तरफ को चली गईं। 

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रचनाएँ
सम्पूर्ण चंद्रकांता संतति
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इस शुद्ध लौकिक प्रेम कहानी को, दो दुश्मन राजघरानों, नवगढ और विजयगढ के बीच, प्रेम और घृणा का विरोधाभास आगे बढ़ाता है। विजयगढ की राजकुमारी चंद्रकांता और नवगढ के राजकुमार वीरेन्द्र विक्रम को आपस में प्रेम है। लेकिन राज परिवारों में दुश्मनी है। दुश्मनी का कारण है कि विजयगढ़ के महाराज नवगढ़ के राजा को अपने भाई की हत्या का जिम्मेदार मानते है।
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चंद्रकांता संतति भाग -1

11 जून 2022
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नौगढ़ के राजा सुरेंद्रसिंह के लड़के वीरेंद्रसिंह की शादी विजयगढ़ के महाराज जयसिंह की लड़की चंद्रकांता के साथ हो गई। बारात वाले दिन तेजसिंह की आखिरी दिल्लगी के सबब चुनार के महाराज शिवदत्त को मशालची बनन

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भाग 2

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इस जगह पर थोड़ा-सा हाल महाराज शिवदत्त का भी बयान करना मुनासिब मालूम होता है। महाराज शिवदत्त को हर तरह से कुंअर वीरेंद्रसिंह के मुकाबिले में हार माननी पड़ी। लाचार उसने शहर छोड़ दिया और अपने कई पुराने ख

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भाग 3

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चुनारगढ़ किले के अंदर एक कमरे में महाराज सुरेंद्रसिंह, वीरेंद्रसिंह, जीतसिंह, तेजसिंह, देवीसिंह, इंद्रजीतसिंह और आनंदसिंह बैठे हुए कुछ बातें कर रहे हैं। जीत - भैरो ने बड़ी होशियारी का काम किया कि अपन

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भाग 4

11 जून 2022
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खिदमतगार ने किले में पहुंचकर और यह सुनकर कि इस समय दोनों राजा एक ही जगह बैठे हैं कुंअर इंद्रजीतसिंह के गायब होने का हाल और सबब जो कुंअर आनंदसिंह की जुबानी सुना था महाराज सुरेंद्रसिंह और वीरेंद्रसिंह क

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भाग 5

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पंडित बद्रीनाथ, पन्नालाल, रामनारायण, चुन्नीलाल और जगन्नाथ ज्योतिषी भैरोसिंह ऐयार को छुड़ाने के लिए शिवदत्तगढ़ की तरफ गए। हुक्म के मुताबिक कंचनसिंह सेनापति ने शेर वाले बाबाजी के पीछे जासूस भेजकर पता लग

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भाग 6

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बहुत-सी तकलीफें उठाकर महाराज सुरेंद्रसिंह और वीरेंद्रसिंह तथा इन्हीं की बदौलत चंद्रकांता, चपला, चंपा, तेजसिंह और देवीसिंह वगैरह ने थोड़े दिन खूब सुख लूटा मगर अब वह जमाना न रहा। सच है, सुख और दुख का पह

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भाग 7

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अपने भाई इंद्रजीतसिंह की जुदाई से व्याकुल हो उसी समय आनंदसिंह उस जंगल के बाहर हुए और मैदान में खड़े हो इधर - उधर निगाह दौड़ाने लगे। पश्चिम की तरफ दो औरतें घोड़ों पर सवार धीरे-धीरे जाती हुई दिखाई पड़ीं

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भाग 8

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अब थोड़ा-सा हाल शिवदत्तगढ़ का भी लिख देना मुनासिब मालूम होता है। यह हम पहले लिख चुके हैं कि महाराज शिवदत्त को एक लड़का और एक लड़की भी हुई थी। इस समय लड़के की उम्र जिसका नाम भीमसेन है अठारह वर्ष की हो

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भाग 9

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भीमसेन के साथियों ने बहुत खोजा मगर भीमसेन का पता न लगा, लाचार कुछ रात आते-आते लौट आये और उसी समय महाराज शिवदत्त के पास जाकर अर्ज किया कि आज शिकार खेलने के लिए कुमार जंगल में गये थे, एक बनैले सूअर के प

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भाग 10

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अब हम अपने पाठकों को फिर उसी खोह में ले चलते हैं जिसमें कुंअर आनंदसिंह को बेहोश छोड़ आये हैं अथवा जिस खोह में जान बचाने वाले सिपाही के साथ पहुंचकर उन्होंने एक औरत को छुरे से लाश काटते देखा था और योगिन

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भाग 11

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सूर्य भगवान अस्त होने के लिए जल्दी कर रहे हैं, शाम की ठंडी हवा अपनी चाल दिखा रही है। आसमान साफ है क्योंकि अभी-अभी पानी बरस चुका है और पछुआ हवा ने रुई के पहल की तरह जमे हुए बादलों को तूम-तूमकर उड़ा दिय

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भाग 12

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अब हम आपको एक दूसरी सरजमीन में ले चलकर एक दूसरे ही रमणीक स्थान की सैर करा तथा इसके साथ-ही-साथ बड़े-बड़े ताज्जुब के खेल और अद्भुत बातों को दिखाकर अपने किस्से का सिलसिला दुरुस्त किया चाहते हैं। मगर यहां

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भाग 13

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दूसरे दिन खा-पीकर निश्चिंत होने के बाद दोपहर को जब दोनों एकांत में बैठे तो इंद्रजीतसिंह ने माधवी से कहा - ''अब मुझसे सब्र नहीं हो सकता, आज तुम्हारा ठीक-ठीक हाल सुने बिना कभी न मानूंगा और इससे बढ़कर न

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भाग 14

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इंद्रजीतसिंह ने दूसरे दिन पुनः नियत समय पर माधवी को जाने न दिया, आधी रात तक हंसी-दिल्लगी ही में काटी, इसके बाद दोनों अपने-अपने पलंग पर सो रहे। कुमार को तो खुटका लगा ही हुआ था कि आज वह काली औरत आवेगी इ

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भाग 15

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अब इस जगह थोड़ा-सा हाल इस राज्य का और साथ ही इस माधवी का भी लिख देना जरूरी है। किशोरी की मां अर्थात शिवदत्त की रानी दो बहिनें थीं। एक जिसका नाम कलावती था शिवदत्त के साथ ब्याही थी और दूसरी मायावती गया

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चंद्रकांता संतति दूसरा भाग -1

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घंटा भर दिन बाकी है। किशोरी अपने उसी बाग में जिसका कुछ हाल पीछे लिख चुके हैं कमरे की छत पर सात-आठ सखियों के बीच में उदास तकिए के सहारे बैठी आसमान की तरफ देख रही है। सुगंधित हवा के झोंके उसे खुश किया च

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भाग 2

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किशोरी खुशी-खुशी रथ पर सवार हुई और रथ तेजी से जाने लगा। वह कमला भी उसके साथ थी, इंद्रजीतसिंह के विषय में तरह-तरह की बातें कहकर उसका दिल बहलाती जाती थी। किशोरी भी बड़े प्रेम से उन बातों को सुनने में ली

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भाग 3

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सुबह का सुहावना समय भी बड़ा ही मजेदार होता है। जबर्दस्त भी परले सिरे का है। क्या मजाल कि इसकी अमलदारी में कोई धूम तो मचावे, इसके आने की खबर दो घंटे पहले ही से हो जाती है। वह देखिए आसमान के जगमगाते हुए

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भाग 4

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हम ऊपर लिख आये हैं कि माधवी के यहां तीन आदमी अर्थात दीवान अग्निदत्त, कुबेरसिंह सेनापति और धर्मसिंह कोतवाल मुखिया थे और तीनों मिलकर माधवी के राज्य का आनंद लेते थे। इन तीनों में अग्निदत्त का दिन बहुत म

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भाग 5

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कमला को विश्वास हो गया कि किशोरी को कोई धोखा देकर ले भागा। वह उस बाग में बहुत देर तक न ठहरी, ऐयारी के सामान से दुरुस्त थी ही, एक लालटेन हाथ में लेकर वहां से चल पड़ी और बाग से बाहर हो चारों तरफ घूम-घूम

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भाग 6

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कुंअर इंद्रजीतसिंह अभी तक उस रमणीक स्थान में विराज रहे हैं। जी कितना ही बेचैन क्यों न हो मगर उन्हें लाचार माधवी के साथ दिन काटना ही पड़ता है। खैर जो होगा देखा जायगा मगर इस समय दो पहर दिन बाकी रहने पर

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भाग 7

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आपस में लड़ने वाले दोनों भाइयों के साथ जाकर सुबह की सफेदी निकलने के साथ ही कोतवाल ने माधवी की सूरत देखी और यह समझकर कि दीवान साहब को छोड़ महारानी अब मुझसे प्रेम रखा चाहती है बहुत खुश हुआ। कोतवाल साहब

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भाग 8

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इस जगह उस तालाब का हाल लिखते हैं, जिसका जिक्र कई दफे ऊपर-पीछे आ चुका है, जिसमें एक औरत को गिरफ्तार करने के लिए योगिनी और वनचरी कूदी थीं, या जिसके किनारे बैठ हमारे ऐयारों ने माधवी के दीवान, कोतवाल और स

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भाग 9

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कुंअर इंद्रजीतसिंह अब जबर्दस्ती करने पर उतारू हुए और इस ताक में लगे कि माधवी सुरंग का ताला खोले और दीवान से मिलने के लिए महल में जाय तो मैं अपना रंग दिखाऊं। तिलोत्तमा के होशियार कर देने से माधवी भी चे

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भाग 10

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जख्मी इंद्रजीतसिंह को लिए हुए उनके ऐयार लोग वहां से दूर निकल गये और बेचारी किशोरी को दुष्ट अग्निदत्त उठाकर अपने घर ले गया। यह सब हाल देख तिलोत्तमा वहां से चलती बनी और बाग के अंदर कमरे में पहुंची। देखा

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भाग 11

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हम ऊपर के बयान में सुबह का दृश्य लिखकर कह आये हैं कि राजा वीरेंद्रसिंह, कुंअर आनंदसिंह और तेजसिंह सेना सहित किसी तरफ को जा रहे हैं। पाठक तो समझ ही गये होंगे कि इन्होंने जरूर किसी तरफ चढ़ाई की है और बे

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भाग 12

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आज पांच दिन के बाद देवीसिंह लौटकर आये हैं। जिस कमरे का हाल हम ऊपर लिख आए हैं उसी में राजा वीरेंद्रसिंह, उनके दोनों लड़के, भैरोसिंह, तारासिंह और कई सरदार लोग बैठे हैं। इंद्रजीतसिंह की तबीयत अब बहुत अच्

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भाग 13

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कुंअर इंद्रजीतसिंह तो किशोरी पर जी-जान से आशिक हो चुके थे। इस बीमारी की हालत में भी उसकी याद इन्हें सता रह थी और यह जानने के लिए बेचैन हो रहे थे कि उस पर क्या बीती, वह किस अवस्था में कहां है और अब उसक

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भाग 14

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आधी रात से ज्यादे जा चुकी है। गयाजी में हर मुहल्ले के चौकीदार ‘जागते रहियो, होशियार रहियो’ कह-कहकर इधर से उधर घूम रहे हैं। रात अंधेरी है, चारों तरफ अंधेरा छाया हुआ है। यहां का मुख्य स्थान विष्णु-पादु

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भाग 15

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राजा वीरेंद्रसिंह के चुनार चले जाने के बाद दोनों भाइयों को अपनी-अपनी फिक्र पैदा हुई। क्रुंअर आनंदसिंह किन्नरी की फिक्र में पड़े और कुंअर इंद्रजीतसिंह को राजगृही की फिक्र पैदा हुई। राजगृही को फतह कर ले

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भाग 16

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भैरोसिंह को राजगृही गये आज तीसरा दिन है। यहां का हाल-चाल अभी तक कुछ मालूम नहीं हुआ, इसी सोच में आधी रात के समय अपने कमरे में पलंग पर लेटे हुए कुंअर इंद्रजीतसिंह को नींद नहीं आ रही है। किशोरी की खयाली

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भाग 17

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मकान के अंदर कमला, इंद्रजीतसिंह और तारासिंह के पहुंचने के पहले ही हम अपने पाठकों को इस मकान में ले चलकर यहां की कैफियत दिखाते हैं। इस मकान के अंदर छोटी-छोटी न मालूम कितनी कोठरियां हैं पर हमें उनसे को

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चंद्रकांता संतति तीसरा भाग - 1

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पाठक समझ ही गये होंगे कि रामशिला के सामने फलगू नदी के बीच में भयानक टीले के ऊपर रहने वाले बाबाजी के सामने जो दो औरतें गई थीं वे माधवी और उसकी सखी तिलोत्तमा थीं। बाबाजी ने उन दोनों से वादा किया था कि त

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भाग 2

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शिवदत्तगढ़ में महाराज शिवदत्त बैठा हुआ बेफिक्री का हलुआ नहीं उड़ाता। सच पूछिये तो तमाम जमाने की फिक्र ने उसको आ घेरा है। वह दिन-रात सोचा ही करता है और उसके ऐयारों और जासूसों का दिन दौड़ते ही बीतता है।

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भाग 3

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ऐयारों और थोड़े से लड़कों के सिवाय नाहरसिंह को साथ लिए हुए भीमसेन राजगृही की तरफ रवाना हुआ। उसका साथी नाहरसिंह बेशक लड़ाई के फन में बहुत ही जबर्दस्त था। उसे विश्वास था कि कोई अकेला आदमी लड़कर कभी मुझस

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भाग 4

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आधी रात का समय है और सन्नाटे की हवा चल रही है। बिल्लौर की तरह खूबी पैदा करने वाली चांदनी आशिकमिजाजों को सदा ही भली मालूम होती है लेकिन आज सर्दी ने उन्हें भी पस्त कर दिया, यह हिम्मत नहीं पड़ती कि जरा म

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भाग 5

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कुंअर इंद्रजीतसिंह नाहरसिंह और तारासिंह को साथ लिए घर आये और अपने छोटे भाई से सब हाल कहा। वे भी सुनकर बहुत उदास हुए और सोचने लगे कि अब क्या करना चाहिए। दोनों कुमार बड़े ही तरद्दुद में पड़े। अगर तारासि

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भाग 6

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इश्क भी क्या बुरी बला है! हाय, इस दुष्ट ने जिसका पीछा किया उसे खराब करके छोड़ दिया और उसके लिए दुनिया भर के अच्छे पदार्थ बेकाम और बुरे बना दिये। छिटकी हुई चांदनी उसके बदन में चिनगारियां पैदा करती है,

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भाग 7

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आधी रात से ज्यादे जा चुकी है, किशोरी अपने कमरे में मसहरी पर लेटी हुई न मालूम क्या-क्या सोच रही है, हां उसकी डबडबाई हुई आंखें जरूर इस बात की खबर देती हैं कि उसके दिल में किसी तरह का द्वंद्व मचा हुआ है।

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भाग 8

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रोहतासगढ़ किले के सामने पहाड़ी से कुछ दूर हटकर वीरेंद्रसिंह का लश्कर पड़ा हुआ है। चारों तरफ फौजी आदमी अपने-अपने काम में लगे हुए दिखाई देते हैं। कुछ फौज आ चुकी और बराबर चली ही आती है। बीच में राजा वीरे

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भाग 9

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आधी रात का समय है, चारों तरफ सन्नाटा छाया हुआ है, राजा वीरेंद्रसिंह के लश्कर में पहरा देने वालों के सिवाय सभी आराम की नींद सोये हुए हें, हां थोड़े से फौजी आदमियों का सोना कुछ विचित्र ढंग का है जिन्हें

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भाग 10

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कुछ रात जा चुकी है। रोहतासगढ़ किले के अंदर अपने मकान में बैसठी हुई बेचारी किशोरी न मालूम किस ध्यान में डूबी हुई है और क्या सोच रही है। कोई दूसरी औरत उसके पास नहीं है। आखिर किसी के पैर की आहट पा अपने ख

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भाग 11

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इसके बाद लाली ने दबी जुबान से किशोरी को कुछ समझाया और दो घंटे में फिर मिलने का वादा करके वहां से चली गयी। हम ऊपर कई दफे लिख आये हैं कि उस बाग में जिसमें किशोरी रहती थी एक तरफ ऐसी इमारत है जिसके दरवाज

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भाग 12

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कुंअर इंद्रजीतसिंह तालाब के किनारे खड़े उस विचित्र इमारत और हसीन औरत की तरफ देख रहे हैं। उनका इरादा हुआ कि तैरकर उस मकान में चले जायं जो इस तालाब के बीचोंबीच में बना हुआ है, मगर उस नौजवान औरत ने इन्हे

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भाग 13

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आधी रात के समय सुनसान मैदान में दो कमसिन औरतें आपस में कुछ बातें करती चली जा रही हैं। राह में छोटे-छोटे टीले पड़ते हैं जिन्हें तकलीफ के साथ लांघने और दम फूलने पर कभी ठहरकर फिर चलने से मालूम होता है कि

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भाग 14

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रोहतासगढ़ किले के चारों तरफ घना जंगल है जिसमें साखू, शीशम, तेंदू, आसन और सलई इत्यादि के बड़े-बड़े पेड़ों की घनी छाया से एक तरह को अंधकार-सा हो रहा है। रात की तो बात ही दूसरी है वहां दिन को भी रास्ते य

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चंद्रकांता संतति चौथा भाग -1

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अब हम अपने किस्से को फिर उसी जगह से शुरू करते हैं जब रोहतासगढ़ किले के अंदर लाली को साथ लेकर किशोरी सेंध की राह उस अजायबघर में घुसी जिसका ताला हमेशा बंद रहता था और दरवाजे पर बराबर पहरा पड़ा रहता था। ह

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भाग 2

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कंचनसिंह के मारे जाने और कुंअर इंद्रजीतसिंह के गायब हो जाने से लश्कर में बड़ी हलचल मच गई। पता लगाने के लिए चारों तरफ जासूस भेजे गये। ऐयार लोग भी इधर-उधर फैल गये और फसाद मिटाने के लिए दिलोजान से कोशिश

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भाग 3

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तेजसिंह के लौट आने से राजा वीरेंद्रसिंह बहुत खुश हुए और उस समय तो उनकी खुशी और भी ज्यादे हो गई जब तेजसिंह ने रोहतासगढ़ आकर अपनी कार्रवाई करने का खुलासा हाल कहा। रामानंद की गिरफ्तारी का हाल सुनकर हंसते

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भाग 4

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अपनी कार्रवाई पूरी करने के बाद तेजसिंह ने सोचा कि अब असली रामानंद को तहखाने से ऐसी खूबसूरती के साथ निकाल लेना चाहिए जिससे महाराज को किसी तरह का शक न हो और यह गुमान भी न हो कि तहखाने में वीरेंद्रसिंह क

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भाग 5

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ऊपर लिखी वारदात के तीसरे दिन दारोगा साहब अपनी गद्दी पर बैठे रोजनामचा देख रहे थे और उस तहखाने की पुरानी बातें पढ़-पढ़कर ताज्जुब कर रहे थे कि यकायक पीछे की कोठरी में खटके की आवाज आई। घबड़ाकर उठ खड़े हुए

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भाग 6

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अब हम अपने किस्से के सिलसिले को मोड़कर दूसरी तरफ झुकते हैं और पाठकों को पुण्यधाम काशी में ले चलकर संध्या के साथ गंगा के किनारे बैठी हुई एक नौजवान औरत की अवस्था पर ध्यान दिलाते हैं। सूर्य भगवान अस्त ह

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भाग 7

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लाल पोशाक वाली औरत की अद्भुत बातों ने नानक को हैरान कर दिया। वह घबड़ाकर चारों तरफ देखने लगा और डर के मारे उसकी अजब हालत हो गई। वह उस कुएं पर भी ठहर न सका और जल्दी-जल्दी कदम बढ़ाता हुआ इस उम्मीद में गं

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भाग 8

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अब हम फिर उस महारानी के दरबार का हाल लिखते हैं जहां से नानक निकाला जाकर गंगा के किनारे पहुंचाया गया था। नानक को कोठरी में ढकेलकर बाबाजी लौटे तो महारानी के पास न जाकर दूसरी ही तरफ रवाना हुए और एक बारह

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भाग 9

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अब हम रोहतासगढ़ की तरफ चलते हैं और तहखाने में बेबस पड़ी हुई बेचारी किशोरी और कुंअर आनंदसिंह इत्यादि की सुध लेते हैं। जिस समय कुंअर आनंदसिंह, भैरोसिंह और तारासिंह तहखाने के अंदर गिरफ्तार हो गए और राजा

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भाग 10

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दूसरे दिन संध्या के समय राजा वीरेंद्रसिंह अपने खेमे में बैठे रोहतासगढ़ के बारे में बातचीत करने लगे। पंडित बद्रीनाथ, भैरोसिंह, तारासिंह, ज्योतिषीजी, कुंअर आनंदसिंह और तेजसिंह उनके पास बैठे हुए थे। अपने

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भाग 11

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अब तो कुंदन का हाल जरूर ही लिखना पड़ा, पाठक महाशय उसका हाल जानने के लिए उत्कंठित हो रहे होंगे। हमने कुंदन को रोहतासगढ़ महल के उसी बाग में छोड़ा है जिसमें किशोरी रहती थी। कुंदन इस फिक्र में लगी रहती थी

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भाग 12

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दूसरे दिन दो पहर दिन चढ़े बाद किशोरी की बेहोशी दूर हुई। उसने अपने को एक गहन वन के पेड़ों की झुरमुट में जमीन पर पड़े पाया और अपने पास कुंदन और कई आदमियों को देखा। बेचारी किशोरी इन थोड़े ही दिनों में तर

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चंद्रकांता संतति- पाँचवाँ भाग 1

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बेचारी किशोरी को चिता पर बैठाकर जिस समय दुष्टा धनपत ने आग लगाई, उसी समय बहुत-से आदमी, जो उसी जंगल में किसी जगह छिपे हुए थे, हाथों में नंगी तलवारें लिये 'मारो! मारो!' कहते हुए उन लोगों पर आ टूटे। उन लो

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भाग 2

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पाठक अभी भूले न होंगे कि कुंअर इन्द्रजीतसिंह कहां हैं। हम ऊपर लिख आए हैं कि उस मकान में जो तालाब के अन्दर बना हुआ था, कुंअर इन्द्रजीतसिंह दो औरतों को देखकर ताज्जुब में आ गए। कुमार उन औरतों का नाम नहीं

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भाग 3

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कुमार कई दिनों तक कमलिनी के यहां मेहमान रहे। उसने बड़ी खातिरदारी और नेकनीयती के साथ इन्हें रखा। इस मकान में कई लौंडियां भी थीं जो दिलोजान से कुमार की खिदमत किया करती थीं, मगर कभी-कभी वे सब दो-दो पहर क

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भाग 4

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हम ऊपर लिख आये हैं कि देवीसिंह को साथ लेकर शेरसिह कुंअर इन्द्रजीतसिंह को छुड़ाने के लिए रोहतासगढ़ से रवाना हुए। शेरसिंह इस बात को तो जानते थे कि कुंअर इन्द्रजीतसिंह फलां जगह हैं परन्तु उन्हें तालाब के

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भाग 5

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अब हम फिर रोहतासगढ़ की तरफ मुड़ते हैं और वहां राजा वीरेन्द्रसिंह के ऊपर जो-जो आफतें आईं, उन्हें लिखकर इस किस्से के बहुत से भेद, जो अभी तक छिपे पड़े हैं, खोलते हैं। हम ऊपर लिख आये हैं कि रोहतासगढ़ फतह

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भाग 6

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आज बहुत दिनों के बाद हम कमला को आधी रात के समय रोहतासगढ़ पहाड़ी के ऊपर पूरब तरफ वाले जंगल में घूमते देख रहे हैं। यहां से किले की दीवार बहुत दूर और ऊंचे पर है। कमला न मालूम किस फिक्र में है या क्या ढूं

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भाग 7

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रोहतासगढ़ फतह होने की खबर लेकर भैरोसिंह चुनार पहुंचे और उसके दो ही तीन दिन बाद राजा दिग्विजयसिंह की बेईमानी की खबर लेकर कई सवार भी जा पहुंचे। इस समाचार के पहुंचते ही चुनारगढ़ में खलबली पड़ गई। फौज के

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भाग 8

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बहुत दिनों से कामिनी का हाल कुछ भी मालूम न हुआ। आज उसकी सुध लेना भी मुनासिब है। आपको याद होगा कि जब कामिनी को साथ लेकर कमला अपने चाचा शेरसिंह से मिलने के लिए उजाड़ खंडहर और तहखाने में गई थी तो वहां से

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भाग 9

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गिल्लन को साथ लिये हुए बीबी गौहर रोहतासगढ़ किले के अन्दर जा पहुंची। किले के अन्दर जाने में किसी तरह का जाल न फैलाना पड़ा और न किसी तरह की कठिनाई हुई। वह बेधड़के किले के उस फाटक पर चली आई जो शिवालय के

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भाग 10

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वीरेन्द्रसिंह के तीनों ऐयारों ने रोहतासगढ़ के किले के अन्दर पहुंचकर अंधेर मचाना शुरू किया। उन लोगों ने निश्चय कर लिया कि अगर दिग्विजयसिंह हमारे मालिकों को नहीं छोड़ेगा तो ऐयारी के कायदे के बाहर काम कर

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भाग 11

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इस जगह मुख्तसर ही में यह भी लिख देना मुनासिब मालूम होता है कि रोहतासगढ़ तहखाने में से राजा वीरेन्द्रसिंह, कुंअर आनन्दसिंह और उनके ऐयार लोग क्योंकर छूटे और कहां गए। हम ऊपर लिख आए हैं कि जिस समय गौहर '

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भाग 12

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दो पहर दिन चढ़ने के पहले ही फौज लेकर नाहरसिंह रोहतासगढ़ पहाड़ी के ऊपर चढ़ गया। उस समय दुश्मनों ने लाचार होकर फाटक खोल दिया और लड़-भिड़कर जान देने पर तैयार हो गये। किले की कुल फौज फाटक पर उमड़ आई और फा

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भाग 13

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तहखाने में बैठी हुई कामिनी को जब किसी के आने की आहट मालूम हुई तब वह सीढ़ी की तरफ देखने लगी मगर जब उसे कई आदमियों के पैरों की धमधमाहट मालूम हुई तब वह घबड़ाई। उसका खयाल दुश्मनों की तरफ गया और वह अपने बच

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चंद्रकांता संतति छठवां भाग 1

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वे दोनों साधु, जो सन्दूक के अन्दर झांक न मालूम क्या देखकर बेहोश हो गए थे, थोड़ी देर बाद होश में आए और चीख-चीखकर रोने लगे। एक ने कहा, ''हाय-हाय इन्द्रजीतसिंह, तुम्हें क्या हो गया! तुमने तो किसी के साथ

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भाग 2

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इस समय शिवदत्त की खुशी का अन्दाज करना मुश्किल है और यह कोई ताज्जुब की बात भी नहीं है, क्योंकि लड़ाकों और दोस्त ऐयारों के सहित राजा वीरेन्द्रसिंह को उसने ऐसा बेबस कर दिया कि उन लोगों को जान बचाना कठिन

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भाग 3

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अब हम अपने पाठकों को फिर उस मैदान के बीच वाले अद्भुत मकान के पास ले चलते हैं जिसके अन्दर इन्द्रजीतसिंह, देवीसिंह, शेरसिंह और कमलिनी के सिपाही लोग जा फंसे थे अर्थात् कमन्द के सहारे दीवार पर चढ़कर अन्दर

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भाग 4

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अब तो मौसम में फर्क पड़ गया। ठंडी-ठंडी हवा जो कलेजे को दहला देती थी और बदन में कंपकंपी पैदा करती थी अब भली मालूम पड़ती है। वह धूप भी, जिसे देख चित्त प्रसन्न होता था और जो बदन में लगकर रग-रग से सर्दी न

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भाग 5

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रात आधी से कुछ ज्यादा जा चुकी है। चारों तरफ सन्नाटा छाया हुआ है, कभी-कभी कुत्तों के भौंकने की आवाज के सिवाय और किसी तरह की आवाज सुनाई नहीं देती। ऐसे समय में काशी की तंग गलियों में दो आदमी, जिनमें एक औ

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भाग 6

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दूसरे दिन कुछ रात बीते कमलिनी फिर मनोरमा के मकान पर पहुंची। बाग के फाटक पर उसी दरबान को टहलते पाया जिससे कल बातचीत कर चुकी थी। इस समय बाग का फाटक खुला हुआ था और उस दरबान के अतिरिक्त और भी कई सिपाही वह

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भाग 7

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आधी रात जा चुकी है। कमलिनी उस कमरे में, जो उसके सोने के लिए मुकर्रर किया गया था, चारपाई पर लेटी हुई करवटें बदल रही है क्योंकि उसकी आंखों में नींद का नामो-निशान नहीं है। उसके दिल में तरह-तरह की बातें प

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चंद्रकांता संतति सातवाँ भाग 1

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नागर थोड़ी दूर पश्चिम जाकर घूमी और फिर उस सड़क पर चलने लगी जो रोहतासगढ़ की तरफ गई थी। पाठक स्वयं समझ सकते हैं कि नागर का दिल कितना मजबूत और कठोर था। उन दिनों जो रास्ता काशी से रोहतासगढ़ को जाता था, व

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भाग 2

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हम ऊपर लिख आए हैं कि राजा वीरेन्द्रसिंह तिलिस्मी खंडहर से (जिसमें दोनों कुमार और तारासिंह इत्यादि गिरफ्तार हो गए थे) निकलकर रोहतासगढ़ की तरफ रवाना हुए तो तेजसिंह उनसे कुछ कह-सुनकर अलग हो गए और उनके सा

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भाग 3

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रात पहर भर से ज्यादा जा चुकी है। तेजसिंह उसी दो नम्बर वाले कमरे के बाहर सहन में तकिया लगाये सो रहे हैं। चिराग बालने का कोई सामान यहां मौजूद नहीं जिससे रोशनी करते, पास में कोई आदमी नहीं जिससे दिल बहलात

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भाग 4

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शाम का वक्त है। सूर्य भगवान अस्त हो चुके हैं तथापि पश्चिम तरफ आसमान पर कुछ-कुछ लाली अभी तक दिखाई दे रही है। ठण्डी हवा मन्द गति से चल रही है। गरमी तो नहीं मालूम होती लेकिन इस समय की हवा बदन में कंपकंपी

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पाठकों को याद होगा कि भूतनाथ को नागर ने एक पेड़ के साथ बांध रखा है। यद्यपि भूतनाथ ने अपनी चालाकी और तिलिस्मी खंजर की मदद से नागर को बेहोश कर दिया मगर देर तक उसके चिल्लाने पर भी वहां कोई उसका मददगार न

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मायारानी का डेरा अभी तक खास बाग (तिलिस्मी बाग) में है। रात आधी से ज्यादा जा चुकी है, चारों तरफ सन्नाटा छाया हुआ है। पहरे वालों के सिवाय सभी को निद्रादेवी ने बेहोश करके डाल रखा है, मगर उस बाग में दो और

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चंद्रकांता संतति - आठवाँ भाग 1

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मायारानी की कमर में से ताली लेकर जब लाडिली चली गई तो उसके घंटे भर बाद मायारानी होश में आकर उठ बैठी। उसके बदन में कुछ-कुछ दर्द हो रहा था जिसका सबब वह समझ नहीं सकती थी। उसे फिर उन्हीं खयालों ने आकर घेर

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भाग 2

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कैदखाने का हाल हम ऊपर लिख चुके हैं, पुनः लिखने की कोई आवश्यकता नहीं। उस कैदखाने में कई कोठरियां थीं जिनमें से आठ कोठरियों में तो हमारे बहादुर लोग कैद थे और बाकी कोठरियां खाली थीं। कोई आश्चर्य नहीं, यद

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भाग 3

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मायारानी उस बेचारे मुसीबत के मारे कैदी को रंज, डर और तरद्दुद की निगाहों से देख रही थी जबकि यह आवाज उसने सुनी, ''बेशक मायारानी की मौत आ गई!'' इस आवाज ने मायारानी को हद्द से ज्यादा बेचैन कर दिया। वह घबड

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भाग 4

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कमलिनी की आज्ञानुसार बेहोश नागर की गठरी पीठ पर लादे हुए भूतनाथ कमलिनी के उस तिलिस्मी मकान की तरफ रवाना हुआ जो एक तालाब के बीचोंबीच में था। इस समय उसकी चाल तेज थी और वह खुशी के मारे बहुत ही उमंग और लाप

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भाग 5

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दिन दो पहर से कुछ ज्यादा चढ़ चुका है मगर मायारानी को खाने-पीने की कुछ भी सुध नहीं है। पल-पल में उसकी परेशानी बढ़ती ही जाती है। यद्यपि बिहारीसिंह, हरनामसिंह और धनपत ये तीनों उसके पास मौजूद हैं परन्तु स

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भाग 6

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रात आधी जा चुकी है, चारों तरफ सन्नाटा छाया हुआ है, हवा भी एकदम बन्द है, यहां तक कि किसी पेड़ की एक पत्ती भी नहीं हिलती। आसमान में चांद तो नहीं दिखाई देता, मगर जंगल मैदान में चलने वाले मुसाफिरों को तार

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राजा गोपालसिंह और देवीसिंह को काशी की तरफ और भैरोसिंह को रोहतासगढ़ की तरफ रवाना करके कमलिनी अपने साथियों को साथ लिए हुए मायारानी के तिलिस्मी बाग की तरफ रवाना हुई। इस समय रात नाममात्र को बाकी थी। प्राय

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भाग 8

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अपनी बहिन लाडिली, ऐयारों और दोनों कुमारों को साथ लेकर कमलिनी राजा गोपालसिंह के कहे अनुसार मायारानी के तिलिस्मी बाग के चौथे दर्जे में जाकर देवमन्दिर में कुछ दिन रहेगी। वहां रहकर ये लोग जो कुछ करेंगे, उ

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भाग 9

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रात पहर भर से ज्यादा जा चुकी है। काशी में मनोरमा के मकान के अन्दर फर्श पर नागर बैठी हुई और उसके पास ही एक खूबसूरत नौजवान आदमी छोटे-छोटे तीन-चार तकियों का सहारा लगाये अधलेटा-सा पड़ा जमीन की तरफ देखता ह

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भाग 10

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दूसरे दिन आधी रात जाते-जाते भूतनाथ फिर उसी मकान में नागर के पास पहुंचा। इस समय नागर आराम से सोई न थी बल्कि न मालूम किस धुन और फिक्र में मकान की पिछली तरफ नजरबाग में टहल रही थी। भूतनाथ को देखते ही वह ह

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भाग 11

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ऊपर के बयान में जो कुछ लिख आये हैं उस बात को कई दिन बीत गये, आज भूतनाथ को हम फिर मायारानी के पास बैठे हुए देखते हैं। रंग-ढंग से जाना जाता है कि भूतनाथ की कार्रवाइयों से मायारानी बहुत ही प्रसन्न है और

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भाग 12

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आज से कुल आठ-दस दिन पहले मायारानी इतनी परेशान और घबड़ाई हुई थी कि जिसका कुछ हिसाब नहीं। वह जीते जी अपने को मुर्दा समझने लगी थी। राजा गोपालसिंह के छूट जाने के डर, चिन्ता, बेचैनी और घबड़ाहट ने चारों तरफ

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