राजा वीरेंद्रसिंह के चुनार चले जाने के बाद दोनों भाइयों को अपनी-अपनी फिक्र पैदा हुई। क्रुंअर आनंदसिंह किन्नरी की फिक्र में पड़े और कुंअर इंद्रजीतसिंह को राजगृही की फिक्र पैदा हुई। राजगृही को फतह कर लेना उनके लिए एक अदना काम था मगर इस विचार से कि किशोरी वहां फंसी हुई है, हमें सताने के लिए अग्निदत्त उसे तकलीफ न दे, धावा करने का जल्दी साहस नहीं कर सकते थे। जिस समय वह आजाद हुए अर्थात वीरेंद्रसिंह के मौजूद रहने का खयाल जाता रहा, उसी समय से किशोरी की मुहब्बत ने जोर बांधा और तरद्दुद के साथ मिली हुई बेचैनी बढ़ने लगी। आखिर अपने मित्र भैरोसिंह से बोले, ‘‘अब मैं बिना राजगृही गए नहीं रह सकता। जिस जगह हमारे देखते-देखते बेचारी किशोरी हम लोगों से छीन ली गई उस जगह अर्थात उस अमलदारी को बिना तहस-नहस किये और किशोरी को पाये मेरा जी ठिकाने न होगा और न मुझे दुनिया की कोई चीज भली मालूम होगी।
भैरो - आपका कहना ठीक है मगर आप अकेले वहां क्या करेंगे?
इंद्र - दुष्ट अग्निदत्त के लिये मैं अकेला ही बहुत हूं।
भैरो - दुष्ट अग्निदत्त के लिए आप अकेले बहुत हैं। मगर शहर भर के लिये नहीं।
इंद्र - शहर भर से मुझे कोई मतलब नहीं।
भैरो - आखिर शहर वाले उसकी तरफदारी करेंगे या नहीं!
इंद्र - इसका अंदाजा तो गयाजी पर कब्जा करने से ही तुम्हें मालूम हो गया होगा।
भैरो - ठीक है मगर अपनी तरफ से मजबूती रखना मुनासिब है।
इंद्र - अच्छा तो मैं आनंद को समझा दूंगा कि फलाने दिन एक सरदार को थोड़ी फौज देकर हमारी मदद के लिए भेज देना।
भैरो - यह हो सकता है, मगर उत्तम तो यही था कि दो-चार दिन और ठहर जाते तब तक मैं राजगृही से घूम आता।
इंद्र - नहीं अब इस किस्म की नसीहत सुनने लायक मैं नहीं रहा।
भैरो - (कुछ सोचकर) खैर जैसी आपकी मर्जी।
शाम के वक्त दोनों भाई घोड़ों पर सवार हो अपने दोनों ऐयारों और बहुत से मुसाहबों और सरदारों को साथ ले घूमने और हवा खाने के लिए महल के बाहर निकले। कायदे के मुताबिक सरदार और मुसाहब लोग अपने-अपने घोड़े उन दोनों भाइयों के घोड़ों से लगभग पच्चीस कदम पीछे लिए जाते थे, जब इंद्रजीतसिंह या आनंदसिंह घूमकर उनकी तरफ देखते तब ये लोग झट आगे बढ़ जाते और बात सुनकर पीछे हट जाते, हां दोनों ऐयार घोड़ों की रकाब थामे पैदल साथ जा रहे थे। जब ये दोनों भाई घूमने के लिए बाहर निकलते तब शहर के मर्द-औरत बल्कि छोटे-छोटे बच्चे भी इनको देखकर खुश होते थे। जिसके मुंह से सुनिये यही आवाज निकलती थी, ‘‘ईश्वर ने हम लोगों की सुन ली जो ऐसे राजकुमारों के चरण यहां आये और उस खुदगर्ज नमकहराम बेईमान का साया हमारे सिर से हटा।’’
जब घूमते हुए ये दोनों भाई शहर से बाहर हुए इंद्रजीतसिंह ने आनंदसिंह से कहा, ‘‘मैं किसी काम के लिए भैरोसिंह को साथ लेकर राजगृही जाता हूं, आज से ठीक आठवें दिन अर्थात रविवार को किसी सरदार के साथ थोड़ी-सी फौज हमारी मदद को भेज देना।’’
आनंद - (थोड़ी देर चुप रहने के बाद) जो हुक्म, मगर...
इंद्र - तुम किसी तरह की चिंता मत करो, मैं अपने को हर तरह से सम्भाले रहूंगा।
आनंद - ठीक है लेकिन...
इंद्र - गयाजी पहुंचने से ही तुम्हें मालूम हो गया होगा कि माधवी की रियाया हमारे खिलाफ न होगी।
आनंद - ईश्वर करे ऐसा ही हो, परंतु...
इंद्र - जब तक तुम्हारी फौज वहां न पहुंच जायगी हम लोगों को जो कुछ करना होगा छिपकर करेंगे।
आनंद - ऐसा करने पर भी...
इंद्र - खैर जो कुछ तुम्हें कहना हो साफ-साफ कहो!
आनंद - आपका अकेले जाना मुनासिब नहीं, दुश्मन के घर में जाकर अपने को सम्हाले रहना भी कठिन है, राजा की मौजूदगी में रियाया को हर तरह उसका डर बना ही रहता है, आप दुश्मन के घर में किसी तरह निश्चिंत नहीं रह सकते और आपके इस तरह चले जाने के बाद मेरा जी यहां कभी नहीं लग सकता।
राजगृही जाने पर कुंअर इंद्रजीतसिंह कैसे ही मुस्तैद क्यों न हों लेकिन छोटे भाई की आखिरी बात ने उन्हें हर तरह से मजबूर कर दिया। कुंअर इंद्रजीतसिंह बड़े ही समझदार और बुद्धिमान थे, मगर मुहब्बत का भूत जब किसी के सिर पर सवार होता है तो वह पहले उसकी बुद्धि की ही मिट्टी पलीद करता है।
छोटे भाई की बात सुन इंद्रजीतसिंह ने भैरोसिंह की तरफ देखा।
भैरो - मैं भी यही चाहता था कि आप दो-चार रोज यहीं और सब्र करें और तब तक मुझे राजगृही से घूम आने दें।
आनंद - (भैरोसिंह की तरफ देखकर) वादा कर जाओ कि तुम कब लौटोगे?
भैरो - चार दिन के अंदर ही मैं यहां पहुंच जाऊंगा।
आनंद - (भैरो की तरफ देखकर इंद्रजीतसिंह से) यदि आज्ञा हो जाय तो ये इधर ही से चले जायें, घर जाने की जरूरत ही क्या?
भैरो - मैं तैयार हूं।
इंद्र - घर जाकर अपना सामान तो इन्हें दुरुस्त करना ही होगा, हां, मुझसे चाहे इसी समय विदा हो जायें।