मकान के अंदर कमला, इंद्रजीतसिंह और तारासिंह के पहुंचने के पहले ही हम अपने पाठकों को इस मकान में ले चलकर यहां की कैफियत दिखाते हैं।
इस मकान के अंदर छोटी-छोटी न मालूम कितनी कोठरियां हैं पर हमें उनसे कोई मतलब नहीं, हम तो उस दालान के पास जाकर खड़े होते हैं जिसके दोनों तरफ दो कोठरियां और सामने लंबा-चौड़ा सहन है। इस दालान में किसी तरह की कोई सजावट नहीं, सिर्फ एक दरी बिछी हुई है और खूंटियों पर कुछ कपड़े लटक रहे हैं। आधी रात का समय होने पर भी दालान में चिराग की रोशनी नहीं है। यह दालान ऊपर के दर्जे में है, इसके ऊपर कोई इमारत नहीं। सामने का सहन बिल्कुल खुला हुआ है, चंद्रमा की फैली हुई सफेद चांदनी सहन से घुसती हुई धीरे-धीरे दालान में आ रही है, जिसकी रोशनी उस दालान की हर चीज को दिखलाने के लिए काफी है। एक तरफ की कोठरी तो बंद है मगर दूसरी बगल वाली कोठरी का दरवाजा खुला हुआ है। यह कोठरी बहुत बड़ी नहीं है और इसके भीतर सफेद फर्श पर दो औरतें बैठी हुई धीरे-धीरे कुछ बातें कर रही हैं।
हमारे पाठक इन दोनों को बखूबी पहचानते हैं इनमें से एक तो किशोरी और दूसरी वही किन्नरी है जिस पर कुंअर आनंदसिंह रीझे हुए हैं, जो कई दफे आनंदसिंह के कमरे में कोठरी के अंदर से निकल अपने चितवनों से उन्हें घायल कर चुकी है और साथ-साथ आप भी आशिक हो चुकी है।
किशोरी - बहिन, तुमने जो कुछ नेकी मेरे साथ की है उसे मैं किसी तरह भूल नहीं सकती। मुझसे यह कभी न होगा कि तुम्हें ऐसी हालत में छोड़ इंद्रजीतसिंह के पास चली जाऊं।
किन्नरी - फिर क्या किया जाय, किस तरह उम्मीद हो कि मुझे कोई पूछेगा।
किशोरी - कमला ने मुझसे कसम खाकर कहा है कि आनंदसिंह किन्नरी की चाह में डूबे हैं। इसे भी जाने दो, आखिर तुम्हारा अहसान कुछ उनके ऊपर है या नहीं इतने बदमाशों को जो वहां फसाद मचा रहे थे सिवाय तुम्हारे कौन मार सकता था!
किन्नरी - खैर जो होगा देखा जायेगा, अब तो यह सोचना चाहिए कि हम लोग कहां जायं और क्या करें?
किशोरी - कमला आ जाय तो उससे राय मिलाकर जो मुनासिब मालूम हो किया जाय। ओह, यहां बैठे-बैठे जी घबड़ा गया, चलो बाहर चलें, चांदनी खूब निकली हुई है।
दोनों औरतें कोठरी के बाहर निकलीं और सहन में आकर टहलने लगीं। मौसम के मुताबिक कुछ सर्दी पड़ रही थी इसलिए दोनों ज्यादे देर तक सहन में टहल न सकीं, दालान में आकर दरी पर बैठ गईं और बातचीत करने लगीं।
इस मकान के बगल में एक छोटा-सा नजरबाग था मगर उसकी हालत ऐसी खराब हो रही थी कि उसे नजरबाग की जगह खंडहर या जंगल ही कहना मुनासिब है। नजरबाग में जाने के लिए इस मकान में एक रास्ता था, बाकी चारों तरफ उसके ऊंची-ऊंची दीवारें थीं, इस मकान में बिना भीतर वाले की मदद के कोई कमंद लगाकर चढ़ नहीं सकता था क्योंकि इसकी ऊपर की दीवारें इस खूबी से बनी हुई थीं कि किसी तरह कमंद अड़ नहीं सकती थी। हां अगर कोई चाहे तो कमंद के जरिए उस नजरबाग में जरूर जा सकता था, मगर इस मकान में आने के लिए वहां से भी वही दिक्कत होती।
थोड़ी देर किन्नरी और किशोरी बातें करती रहीं, इसके बाद नीचे से किवाड़ खटखटाने की आवाज आई। किशोरी ने कहा, ‘‘लो बहिन कमला भी आ पहुंची।’’
किन्नरी - खटखटाने की आवाज से तो मालूम होता है कि कमला ही है, मगर तो भी खिड़की से झांककर मामूली सवाल कर लेना मुनासिब है।
किशोरी - ऐसा जरूर करना चाहिए क्योंकि हम लोगों को धोखा देने के लिए दुश्मन लोग पचासों रंग लाया करते हैं।
‘‘तुम ठहरो मैं कुछ पूछती हूं!’’ इतना कहकर किशोरी ने दरवाजे की तरफ वाली खिड़की में से झांककर पूछा, ‘‘गिनती पूरी हुई’ इसके जवाब में किसी ने कहा, ‘‘हां पचासी तक।’’
किशोरी - अच्छा मैं नीचे आकर दरवाजा खोलती हूं।
दरवाजा खोलने के लिए खुशी-खुशी किशोरी नीचे उतरी मगर चौखट के पास पहुंचने के पहले ही नीचे के अंधेरे दालान में एक मोटे और कद्दावर आदमी को खड़ा देख डर के मारे चिल्ला उठी तथा उस समय तो एक चीख मारकर बिल्कुल ही बेहोश हो गई जब वह शैतान इस बेचारी की तरफ झपटा और हाथ तथा कमर पकड़कर बेदर्दी के साथ एक तरफ खींच ले गया।
किशोरी के चिल्लाने की आवाज सुनते ही हाथ में नंगी तलवार लिए किन्नरी बड़बड़ाती हुई नीचे पहुंची मगर चारों तरफ घूम-घूमकर देखने पर भी उसने किसी को न पाया बल्कि किशोरी का भी पता न लगा।
किन्नरी दरवाजा तो खोलना भूल गई और किशोरी को न पाने से घबड़ाकर इधर-उधर ढूंढ़ने लगी। उस भयानक अंधेरे में दालान और कोठरियों में घूमती हुई किन्नरी को इस बात का जरा भी खौफ न मालूम हुआ कि किशोरी की तरह कहीं मुझ पर आफत न आ जाय।
बेचारी किशोरी चीख मारकर बेहोश हो गई मगर जब वह होश में आई तो उसने अपने को मौत के पंजे में गिरफ्तार पाया। उसने देखा कि झाड़ियों के बीच में जबर्दस्ती जमीन पर गिराई हुई है, एक आदमी नकाब से अपनी सूरत छिपाये उसकी छाती पर सवार है और खंजर उसके कलेजे के पार किया ही चाहता है।
(दूसरा भाग समाप्त)