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चंद्रकांता संतति भाग -1

11 जून 2022

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नौगढ़ के राजा सुरेंद्रसिंह के लड़के वीरेंद्रसिंह की शादी विजयगढ़ के महाराज जयसिंह की लड़की चंद्रकांता के साथ हो गई। बारात वाले दिन तेजसिंह की आखिरी दिल्लगी के सबब चुनार के महाराज शिवदत्त को मशालची बनना पड़ा। बहुतों की यह राय हुई कि महाराज शिवदत्त का दिल अभी तक साफ नहीं हुआ इसलिए अब इनको कैद ही में रखना मुनासिब है मगर महाराज सुरेंद्रसिंह ने इस बात को नापसंद करके कहा, कि ''महाराज शिवदत्त को हम छोड़ चुके हैं, इस वक्त जो तेजसिंह से उनकी लड़ाई हो गई यह हमारे साथ वैर रखने का सबूत नहीं हो सकता। आखिर महाराज शिवदत्त क्षत्रिय हैं, जब तेजसिंह उनकी सूरत बना बेइज्जती करने पर उतारू हो गए तो यह देखकर भी वह कैसे बर्दाश्त कर सकते थे? मैं यह भी नहीं कह सकता कि महाराज शिवदत्त का दिल हम लोगों की तरफ से बिल्कुल साफ हो गया क्योंकि उनका अगर दिल साफ ही हो जाता तो इस बात को छिपकर देखने के लिए आने की जरूरत क्या थी तो भी यह समझकर कि तेजसिंह के साथ इनकी यह लड़ाई हमारी दुश्मनी के सबब नहीं कही जा सकती, हम फिर इनको छोड़ देते हैं। अगर अब भी ये हमारे साथ दुश्मनी करेंगे तो क्या हर्ज है, ये भी मर्द हैं और हम भी मर्द हैं, देखा जायेगा।''

महाराज शिवदत्त फिर छूटकर न मालूम कहां चले गए। वीरेंद्रसिंह की शादी होने के बाद महाराज सुरेंद्रसिंह और जयसिंह की राय से चपला की शादी तेजसिंह के साथ और चंपा की शादी देवीसिंह के साथ की गई। चंपा दूर के नाते में चपला की बहिन होती थी।

बाकी सब ऐयारों की शादी हो चुकी थी। उन लोगों की घर-गृहस्थी चुनार ही में थी, अदल-बदल करने की जरूरत न पड़ी क्योंकि शादी होने के थोड़े ही दिन बाद बड़े धूमधाम के साथ कुंअर वीरेंद्रसिंह चुनार की गद्दी पर बैठाए गए और कुंअर छोड़ राजा कहलाने लगे। तेजसिंह उनके राजदीवान मुकर्रर हुए और इसलिए सब ऐयारों को भी चुनार में ही रहना पड़ा।

सुरेंद्रसिंह अपने लड़के को आंखों के सामने से हटाना नहीं चाहते थे, लाचार नौगढ़ की गद्दी फतहसिंह के सुपुर्द कर वे भी चुनार ही रहने लगे, मगर राज्य का काम बिल्कुल वीरेंद्रसिंह के जिम्मे था, हां कभी-कभी राय दे देते थे। तेजसिंह के साथ जीतसिंह भी बड़ी आजादी के साथ चुनार में रहने लगे। महाराज सुरेंद्रसिंह और जीतसिंह में बहुत मुहब्बत थी और वह मुहब्बत दिन-दिन बढ़ती गई। असल में जीतसिंह इसी लायक थे कि उनकी जितनी कदर की जाती थोड़ी थी। शादी के दो बरस बाद चंद्रकांता को लड़का पैदा हुआ। उसी साल चपला और चंपा को भी एक-एक लड़का पैदा हुआ। इसके तीन बरस बाद चंद्रकांता ने दूसरे लड़के का मुख देखा। चंद्रकांता के बड़े लड़के का नाम इंद्रजीतसिंह, छोटे का नाम आनंदसिंह, चपला के लड़के का नाम भैरोसिंह और चंपा के लड़के का नाम तारासिंह रखा गया।

जब ये चारों लड़के कुछ बड़े और बातचीत करने लायक हुए तब इनके लिखने-पढ़ने और तालीम का इंतजाम किया गया और राजा सुरेंद्रसिंह ने इन चारों लड़कों को जीतसिंह की शागिर्दी और हिफाजत में छोड़ दिया।

भैरोसिंह और तारासिंह ऐयारी के फन में बड़े तेज और चालाक निकले। इनकी ऐयारी का इम्तिहान बराबर लिया जाता था। जीतसिंह का हुक्म था कि भैरोसिंह और तारासिंह कुल ऐयारों को बल्कि अपने बाप तक को धोखा देने की कोशिश करें और इसी तरह पन्नालाल वगैरह ऐयार भी उन दोनों लड़कों को भुलावा दिया करें। धीरे-धीरे ये दोनों लड़के इतने तेज और चालाक हो गये कि पन्नालाल वगैरह की ऐयारी इनके सामने दब गई।

भैरोसिंह और तारासिंह, इन दोनों में चालाक ज्यादे कौन था इसके कहने की कोई जरूरत नहीं, आगे मौका पड़ने पर आप ही मालूम हो जायेगा, हां, इतना कह देना जरूरी है कि भैरोसिंह को इंद्रजीतसिंह के साथ और तारासिंह को आनंदसिंह के साथ ज्यादे मुहब्बत थी। चारों लड़के होशियार हुए अर्थात इंद्रजीतसिंह, भैरोसिंह और तारासिंह की उम्र अट्ठारह वर्ष की और आनंदसिंह की उम्र पंद्रह वर्ष की हुईं। इतने दिनों तक चुनार राज्य में बराबर शांति रही बल्कि पिछली तकलीफें और महाराज शिवदत्त की शैतानी एक स्वप्न की तरह सभी के दिल में रह गई।

इंद्रजीतसिंह को शिकार का बहुत शौक था, जहां तक बन पड़ता वे रोज शिकार खेला करते। एक दिन किसी बनरखे1 ने हाजिर होकर बयान किया कि इन दिनों फलाने जंगल की शोभा खूब बढ़ी-चढ़ी है और शिकार के जानवर भी इतने आये हुए हैं कि अगर वहां महीना भर टिककर शिकार खेला जाए तो भी न घटे और कोई दिन खाली न जाए। यह सुन दोनों भाई बहुत खुश हुए। अपने बाप राजा वीरेंद्रसिंह से शिकार खेलने की इजाजत मांगी और कहा कि ''हम लोगों का इरादा आठ दिन तक जंगल में रहकर शिकार खेलने का है।'' इसके जवाब में राजा वीरेंद्रसिंह ने कहा कि ''इतने दिनों तक जंगल में रहकर शिकार खेलने का हुक्म मैं नहीं दे सकता - अपने दादा से पूछो, अगर वे हुक्म दें तो कोई हर्ज नहीं।''

यह सुनकर इंद्रजीतसिंह और आनंदसिंह ने अपने दादा महाराज सुरेंद्रसिंह के पास जाकर अपना मतलब अर्ज किया। उन्होंने खुशी से मंजूर किया और हुक्म दिया कि शिकारगाह में इन दोनों के लिए खेमा खड़ा किया जाय और जब तक ये शिकारगाह में रहें पांच सौ फौज बराबर इनके साथ रहे।

1. जंगलों की हिफाजत के लिए जो नौकर रहते हैं उनको बनरखे कहते हैं। शिकार खेलने का काम बनरखों का ही है। ये लोग जंगल में घूम-घूमकर और शिकारी जानवरों के पैरों के निशान देख और उसी अंदाज पर जाकर पता लगाते हैं कि शेर इत्यादि कोई शिकारी जानवर इस जंगल में है या नहीं, अगर है तो कहां है। बनरखों का काम है कि अपनी आंखों से देख आंवें तब खबर करें कि फलानी जगह पर शेर, चीता या भालू है।

शिकार खेलने का हुक्म पा इंद्रजीतसिंह और आनंदसिंह बहुत खुश हुए और अपने दोनों ऐयारों भैरोसिंह और तारासिंह को साथ ले मय पांच सौ फौज के चुनार से रवाना हुए।

चुनार से पांच कोस दक्षिण एक घने और भयानक जंगल में पहुंचकर उन्होंने डेरा डाला। दिन थोड़ा बाकी रह गया इसलिए यह राय ठहरी कि आज आराम करें, कल सबेरे शिकार का बंदोबस्त किया जाय मगर बनरखों को शेर का पता लगाने के लिए आज ही कह दिया जायगा। भैंसा1 बांधने की जरूरत नहीं, शेर का शिकार पैदल ही किया जायगा।

दूसरे दिन सबेरे बनरखों ने हाजिर होकर उनसे अर्ज किया कि इस जंगल में शेर तो हैं मगर रात हो जाने के सबब हम लोग उन्हें अपनी आंखों से न देख सके, अगर आज के दिन शिकार न खेला जाय तो हम लोग देखकर उनका पता दे सकेंगे।

आज के दिन भी शिकार खेलना बंद किया गया। पहर भर दिन बाकी रहे इंद्रजीतसिंह और आनंदसिंह घोड़ों पर सवार हो अपने दोनों ऐयारों को साथ ले घूमने और दिल बहलाने के लिए डेरे से बाहर निकले और टहलते हुए दूर तक चले गए। दूसरे जब मचान बांधकर शेर का शिकार किया चाहते हैं या एक जंगल से दूसरे जंगल में अपने सुबीते के लिए उसे ले जाया चाहते हैं तब इसी तरह भैंसे बांधकर हटाते जाते हैं। इनको शिकारी लोग 'मरी' भी कहते हैं।

1. खास शेर के शिकार में भैंसा बांधा जाता है। भैंसा बांधने के दो कारण हैं। एक तो शिकार को अटकाने के लिए अर्थात जब बनरखा आकर खबर दे कि फलाने जंगल में शेर है उस वक्त या कई दिनों तक अगर शिकार खेलने वाले को किसी कारण शिकार खेलने की फुरसत न हुई और शेर को अटकाना चाहा तो भैंसा बांधने का हुक्म दिया जाता है। बनरखे भैंसा ले जाते हैं और जिस जगह शेर का पता लगता है, उसके पास ही किसी भयानक और सायेदार जंगल या नाले में मबजूत खूंटा गाड़कर भैंसे को बांध देते हैं। जब शेर भैंसे की बू पाता है तो वहीं आता है और भैंसे को खाकर उसी जंगल में कई दिनों तक मस्त और बेफिक्र पड़ा रहता है। इस तरकीब से दो-चार भैंसा देकर महीनों शेर को अटका लिया जाता है। शेर को जब तक खाने के लिए मिलता है वह दूसरे जंगल में नहीं जाता। शेर का पेट अगर एक दफे खूब भर जाए तो उसे सात-आठ दिनों तक खाने की परवाह नहीं रहती। खुले भैंसे को शेर जल्दी नहीं मार सकता।

ये लोग धीरे-धीरे टहलते और बातें करते जा रहे थे कि बाईं तरफ से शेर के गर्जने की आवाज आई जिसे सुनते ही चारों अटक गये और घूमकर उस तरफ देखने लगे जिधर से आवाज आई थी।

लगभग दो सौ गज की दूरी पर एक साधु शेर पर सवार जाता दिखाई पड़ा जिसकी लंबी-लंबी और घनी जटाएं पीछे की तरफ लटक रही थीं - एक हाथ में त्रिशूल, दूसरे में शंख लिए हुए था। इसकी सवारी का शेर बहुत बड़ा था और उसके गर्दन के बाल जमीन तक लटक रहे थे।

इसके आठ-दस हाथ पीछे एक शेर और जा रहा था जिसकी पीठ पर आदमी के बदले बोझ लदा हुआ नजर आया, शायद यह असबाब उन्हीं शेर-सवार महात्मा का हो।

शाम हो जाने के सबब साधु की सूरत साफ मालूम न पड़ी तो भी उसे देख इन चारों को बड़ा ही ताज्जुब हुआ और कई तरह की बातें सोचने लगे।

इंद्र - इस तरह शेर पर सवार होकर घूमना मुश्किल है।

आनंद - कोई अच्छे महात्मा मालूम होते हैं।

भैरो - पीछे वाले शेर को देखिए जिस पर असबाब लदा हुआ है, किस तरह भेड़ की तरह सिर नीचा किये जा रहा है।

तारा - शेरों को बस में कर लिया है।

इंद्र - जी चाहता है उनके पास चलकर दर्शन करें।

आनंद - अच्छी बात है, चलिए पास से देखें, कैसा शेर है।

तारा - बिना पास गए महात्मा और पाखण्डी में भेद न मालूम होगा।

भैरो - शाम तो हो गई है, खैर चलिए आगे से बढ़कर रोकें।

आनंद - आगे से चलकर रोकने से बुरा न मानें!

भैरो - हम ऐयारों का पेशा ही ऐसा है कि पहले तो उनका साधु होना ही विश्वास नहीं करते!

इंद्र - आप लोगों की क्या बात है जिनकी मूंछ हमेशा ही मुंड़ी रहती है, खैर चलिए तो सही।

भैरो - चलिए।

चारों आदमी आगे चलकर बाबाजी के सामने गए जो शेर पर सवार जा रहे थे। इन लोगों को अपने पास आते देखकर बाबाजी रुक गए। पहले तो इंद्रजीतसिंह और आनंदसिंह के घोड़े शेरों को देखकर अड़े मगर फिर ललकारने से आगे बढ़े। थोड़ी दूर जाकर दोनों भाई घोड़ों के ऊपर से उतर पड़े, भैरोसिंह और तारासिंह ने दोनों घोड़ों को पेड़ से बांध दिया, इसके बाद पैदल ही चारों आदमी महात्मा के पास पहुंचे।

बाबाजी - (दूर से ही) आओ राजकुमार इंद्रजीतसिंह और आनंदसिंह - कहो कुशल तो है!

इंद्र - (प्रणाम करके) आपकी कृपा से सब मंगल है।

बाबा - (भैरोसिंह और तारासिंह की तरफ देखकर) कहो भैरो और तारा, अच्छे हो

दोनों - (हाथ जोड़कर) आपकी दया से!

बाबा - राजकुमार, मैं खुद तुम लोगों के पास जाने को था क्योंकि तुमने शेर का शिकार करने के लिए इस जंगल में डेरा डाला है। मैं गिरनार जा रहा हूं, घूमता-फिरता इस जंगल में भी आ पहुंचा। यह जंगल अच्छा मालूम होता है इसलिए दो-तीन दिन तक यहां रहने का विचार है, कोई अच्छी जगह देखकर धूनी लगाऊंगा। मेरे साथ सवारी और असबाब लादने के कई शेर हैं, इसलिए कहता हूं कि धोखे में मेरे किसी शेर को मत मारना नहीं तो मुश्किल होगी, सैकड़ों शेर पहुंचकर तुम्हारे लश्कर में हलचल मचा डालेंगे और बहुतों की जान जायगी। तुम प्रतापी राजा सुरेंद्रसिंह1 के लड़के हो इसलिए तुम्हें पहले ही से समझा देना मुनासिब है जिससे किसी तरह का दुख न हो।

इंद्र - महाराज मैं कैसे जानूंगा कि यह आपका शेर है ऐसा ही है तो शिकार न खेलूंगा।

बाबा - नहीं, तुम शिकार खेलो, मगर मेरे शेरों को मत मारो!

इंद्र - मगर यह कैसे मालूम होगा कि फलाना शेर आपका है

बाबा - देखो मैं अपने शेरों को बुलाता हूं पहचान लो।

बाबाजी ने शंख बजाया। भारी शंख की आवाज चारों तरफ जंगल में गूंज गई और हर तरफ से गुर्राहट की आवाज आने लगी। थोड़ी ही देर में इधर-उधर से दौड़ते हुए पांच शेर और आ पहुंचे। ये चारों दिलावर और बहादुर थे, अगर कोई दूसरा होता तो डर से उसकी जान निकल जाती। इंद्रजीतसिंह और आनंदसिंह के घोड़े शेरों को देखकर उछलने-कूदने लगे मगर रेशम की मजबूत बागडोर से बंधे हुए थे इससे भाग न सके। इन शेरों ने आकर बड़ी ऊधम मचाई - इंद्रजीतसिंह वगैरह को देख गरजने-कूदने और उछलने लगे, मगर बाबाजी के डांटते ही सब ठंडे हो सिर नीचा कर भेड़-बकरी की तरह खड़े हो गए।

बाबा - देखो इन शेरों को पहचान लो, अभी दो-चार और हैं, मालूम होता है उन्होंने शंख की आवाज नहीं सुनी। खैर अभी तो मैं इसी जंगल में हूं, उन बाकी शेरों को भी दिखला दूंगा - कल भर शिकार और बंद रखो।

भैरो - फिर आपसे मुलाकात कहां होगी आपकी धूनी किस जगह लगेगी

बाबा - मुझे तो यही जगह आनंद की मालूम होती है, कल इसी जगह आना मुलाकात होगी।

बाबाजी शेर से नीचे उतर पड़े और जितने शेर उस जगह आए थे वे सब बाबाजी के चारों तरफ घूमने तथा मुहब्बत से उनके बदन को चाटने और सूंघने लगे। ये चारों आदमी थोड़ी देर तक वहां और अटकने के बाद बाबाजी से विदा हो खेमे में आये।

जब सन्नाटा हुआ तो भैरोसिंह ने इंद्रजीतसिंह से कहा, ''मेरे दिमाग में इस समय बहुत - सी बातें घूम रही हैं। मैं चाहता हूं कि हम लोग चारों आदमी एक जगह बैठ कुमेटी कर कुछ राय पक्की करें।''

इंद्रजीतसिंह ने कहा, ''अच्छा, आनंद और तारा को भी इसी जगह बुलाओ।''

1. साधु महाराज भूल गए, वीरेंद्रसिंह की जगह सुरेंद्रसिंह का नाम ले बैठे।

भैरोसिंह गये और आनंदसिंह तथा तारासिंह को उसी जगह बुला लाए। उस वक्त सिवाय इन चारों के उस खेमे में और कोई न रहा। भैरोसिंह ने अपने दिल का हाल कहा जिसे सभी ने बड़े गौर से सुना, इसके बाद पहर भर तक कुमेटी करके निश्चय कर लिया कि क्या करना चाहिए।

यह कुमेटी कैसी हुई, भैरोसिंह का क्या इरादा हुआ और उन्होंने क्या निश्चय किया तथा रात भर ये लोग क्या करते रहे इसके कहने की कोई जरूरत नहीं, समय पर सब खुल जायगा।

सबेरा होते ही चारों आदमी खेमे के बाहर हुए और अपनी फौज के सरदार कंचनसिंह को बुला कुछ समझा, बाबाजी की तरफ रवाना हुए। जब लश्कर से दूर निकल गए, आनंदसिंह, भैरोसिंह और तारासिंह तो तेजी के साथ चुनार की तरफ रवाना हुए और इंद्रजीतसिंह अकेले बाबाजी से मिलने गये।

बाबाजी शेरों के बीच धूनी रमाये बैठे थे। दो शेर उनके चारों तरफ घूम-घूमकर पहरा दे रहे थे। इंद्रजीतसिंह ने पहुंचकर प्रणाम किया और बाबाजी ने आशीर्वाद देकर बैठने के लिए कहा।

इंद्रजीतसिंह ने बनिस्बत कल के आज दो शेर और ज्यादे देखे। थोड़ी देर चुप रहने के बाद बातचीत होने लगी।

बाबा - कहो इंद्रजीतसिंह, तुम्हारे भाई और ऐयार कहां रह गए, वे नहीं आए

इंद्र - हमारे छोटे भाई आनंदसिंह को बुखार आ गया, इस सबब से वह नहीं आ सका। उसी की हिफाजत में दोनों ऐयारों को छोड़ मैं अकेला आपके दर्शन को आया हूं।

बाबा - अच्छा क्या हर्ज है, आज शाम तक वह अच्छे हो जायंगे, कहो आजकल तुम्हारे राज्य में कुशल तो है

इंद्र - आपकी कृपा से सब आनंद है।

बाबा - बेचारे वीरेंद्रसिंह ने भी बड़ा कष्ट पाया। खैर जो हो दुनिया में उनका नाम रह जायगा। इस हजार वर्ष के अंदर कोई ऐसा राजा नहीं हुआ जिसने तिलिस्म तोड़ा हो। एक और तिलिस्म है, असल में वही भारी और तारीफ के लायक है।

इंद्र - पिताजी तो कहते हैं कि वह तिलिस्म तेरे हाथ से टूटेगा।

बाबा - हां ऐसा ही होगा, वह जरूर तुम्हारे हाथ से फतह होगा इसमें कोई संदेह नहीं।

इंद्र - देखें कब तक ऐसा होता है, उसकी ताली का तो पता ही नहीं लगता।

बाबा - ईश्वर चाहेगा तो एक ही दो दिन में तुम उस तिलिस्म को तोड़ने में हाथ लगा दोगे, उस तिलिस्म की ताली मैं हूं, कई पुश्तों से हम लोग उस तिलिस्म के दारोगा होते चले आए हैं। मेरे परदादा, दादा और बाप उसी तिलिस्म के दारोगा थे, जब मेरे पिता का देहांत होने लगा तब उन्होंने उसकी ताली मेरे सुपुर्द कर मुझे उसका दारोगा मुकर्रर कर दिया। अब वक्त आ गया है कि मैं उसकी ताली तुम्हारे हवाले करूं क्योंकि वह तिलिस्म तुम्हारे नाम पर बांधा गया है और सिवाय तुम्हारे कोई दूसरा उसका मालिक नहीं बन सकता।

इंद्र - तो अब देर क्या है।

बाबा - कुछ नहीं, कल से तुम उसके तोड़ने में हाथ लगा दो, मगर एक बात तुम्हारे फायदे की हम कहते हैं।

इंद्र - वह क्या

बाबा - तुम उसके तोड़ने में अपने भाई आनंद को भी शरीक कर लो, ऐसा करने से दौलत भी दूनी मिलेगी और नाम भी दोनों भाइयों का दुनिया में हमेशा के लिए बना रहेगा।

इंद्र - उसकी तो तबियत ही ठीक नहीं!

बाबा - क्या हर्ज है! तुम अभी जाकर जिस तरह बने उसे मेरे पास ले आओ, मैं बात की बात में उसको चंगा कर दूंगा। आज ही तुम लोग मेरे साथ चलो जिससे कल तिलिस्म टूटने में हाथ लग जाय, नहीं तो साल भर फिर मौका न मिलेगा।

इंद्र - बाबाजी, असल तो यह है कि मैं अपने भाई की बढ़ती नहीं चाहता, मुझे यह मंजूर नहीं कि मेरे साथ उसका भी नाम हो।

बाबा - नहीं-नहीं, तुम्हें ऐसा न सोचना चाहिए, दुनिया में भाई से बढ़ के कोई रत्न नहीं है।

इंद्र - जी हां, दुनिया में भाई से बढ़ के रत्न नहीं तो भाई से बढ़ के कोई दुश्मन भी नहीं, यह बात मेरे दिल में ऐसी बैठ गई है कि उसके हटाने के लिए ब्रह्मा भी आकर समझावें-बुझावें तो भी कुछ नतीजा न निकलेगा।

बाबा - बिना उसको साथ लिये तुम तिलिस्म नहीं तोड़ सकते।

इंद्र - (हाथ जोड़कर) बस तो जाने दीजिये, माफ कीजिये, मुझे तिलिस्म तोड़ने की जरूरत नहीं1

बाबा - क्या तुम्हें इतनी जिद है

इंद्र - मैं कह जो चुका कि ब्रह्मा भी मेरी राय पलट नहीं सकते।

बाबा - खैर तब तुम्हीं चलो, मगर इसी वक्त चलना होगा।

इंद्र - हां, हां, मैं तैयार हूं, अभी चलिए।

बाबाजी उसी समय उठ खड़े हुए। अपनी गठड़ी-मुटड़ी बांध एक शेर पर लाद दिया तथा दूसरे पर आप सवार हो गए। इसके बाद एक शेर की तरफ देखकर कहा, ''बच्चा गंगाराम, यहां तो आओ!'' वह शेर तुरंत इनके पास आया। बाबाजी ने इंद्रजीतसिंह से कहा, ''तुम इस पर सवार हो लो।'' इंद्रजीतसिंह कूदकर सवार हो गये और बाबाजी के साथ-साथ दक्षिण का रास्ता लिया। बाबाजी के साथी शेर भी कोई आगे, कोई पीछे, कोई बायें, कोई दाहिने हो बाबाजी के साथ जाने लगे।

सब शेर तो पीछे रह गये मगर दो शेर जिन पर बाबाजी और इंद्रजीतसिंह सवार थे आगे निकल गये। दोपहर तक ये दोनों चलते गये। जब दिन ढलने लगा बाबाजी ने इंद्रजीतसिंह से कहा, ''यहां ठहरकर कुछ खा-पी लेना चाहिए।'' इसके जवाब में कुमार बोले, ''बाबाजी, खाने-पीने की कोई जरूरत नहीं। आप महात्मा ही ठहरे, मुझे कोई भूख नहीं लगी है, फिर अटकने की क्या जरूरत है जिस काम में पड़े उसमें सुस्ती करना ठीक नहीं!''

बाबाजी ने कहा, ''शाबाश! तुम बड़े बहादुर हो, अगर तुम्हारा दिल इतना मजबूत न होता तो तिलिस्म तुम्हारे ही हाथ से टूटेगा, ऐसा बड़े लोग न कह जाते, खैर चलो।''

कुछ दिन बाकी रहा जब ये दोनों एक पहाड़ी के नीचे पहुंचे। बाबाजी ने शंख बजाया, थोड़ी ही देर में चारों तरफ से सैकड़ों पहाड़ी लुटेरे हाथ में बरछे लिये आते दिखाई पड़े और ऐसे ही बीस-पचीस आदमियों को साथ लिए पूरब तरफ से आता हुआ राजा शिवदत्त नजर पड़ा जिसे देखते ही इंद्रजीतसिंह ने ऊंची आवाज में कहा, ''इनको मैं पहचान गया, यही महाराज शिवदत्त हैं। इनकी तस्वीर मेरे कमरे में लटकी हुई है। दादाजी ने इनकी तस्वीर मुझे दिखाकर कहा था कि हमारे सबसे भारी दुश्मन ही महाराज शिवदत्त हैं। ओफ ओह, हकीकत में बाबाजी ऐयार ही निकले, जो सोचा था वही हुआ! खैर क्या हर्ज है, इंद्रजीतसिंह को गिरफ्तार कर लेना जरा टेढ़ी खीर है!!''

शिवदत्त - (पास पहुंचकर) मेरा आधा कलेजा तो ठंडा हुआ, मगर अफसोस तुम दोनों भाई हाथ न आये।

इंद्र - जी इस भरोसे न रहियेगा कि इंद्रजीतसिंह को फंसा लिया। उनकी तरफ बुरी निगाह से देखना भी काम रखता है!

ग्रंथकर्ता - भला इसमें भी कोई शक है!! 

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रचनाएँ
सम्पूर्ण चंद्रकांता संतति
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इस शुद्ध लौकिक प्रेम कहानी को, दो दुश्मन राजघरानों, नवगढ और विजयगढ के बीच, प्रेम और घृणा का विरोधाभास आगे बढ़ाता है। विजयगढ की राजकुमारी चंद्रकांता और नवगढ के राजकुमार वीरेन्द्र विक्रम को आपस में प्रेम है। लेकिन राज परिवारों में दुश्मनी है। दुश्मनी का कारण है कि विजयगढ़ के महाराज नवगढ़ के राजा को अपने भाई की हत्या का जिम्मेदार मानते है।
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चंद्रकांता संतति भाग -1

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भाग 3

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चुनारगढ़ किले के अंदर एक कमरे में महाराज सुरेंद्रसिंह, वीरेंद्रसिंह, जीतसिंह, तेजसिंह, देवीसिंह, इंद्रजीतसिंह और आनंदसिंह बैठे हुए कुछ बातें कर रहे हैं। जीत - भैरो ने बड़ी होशियारी का काम किया कि अपन

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खिदमतगार ने किले में पहुंचकर और यह सुनकर कि इस समय दोनों राजा एक ही जगह बैठे हैं कुंअर इंद्रजीतसिंह के गायब होने का हाल और सबब जो कुंअर आनंदसिंह की जुबानी सुना था महाराज सुरेंद्रसिंह और वीरेंद्रसिंह क

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भाग 5

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भाग 6

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बहुत-सी तकलीफें उठाकर महाराज सुरेंद्रसिंह और वीरेंद्रसिंह तथा इन्हीं की बदौलत चंद्रकांता, चपला, चंपा, तेजसिंह और देवीसिंह वगैरह ने थोड़े दिन खूब सुख लूटा मगर अब वह जमाना न रहा। सच है, सुख और दुख का पह

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अपने भाई इंद्रजीतसिंह की जुदाई से व्याकुल हो उसी समय आनंदसिंह उस जंगल के बाहर हुए और मैदान में खड़े हो इधर - उधर निगाह दौड़ाने लगे। पश्चिम की तरफ दो औरतें घोड़ों पर सवार धीरे-धीरे जाती हुई दिखाई पड़ीं

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भाग 8

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अब थोड़ा-सा हाल शिवदत्तगढ़ का भी लिख देना मुनासिब मालूम होता है। यह हम पहले लिख चुके हैं कि महाराज शिवदत्त को एक लड़का और एक लड़की भी हुई थी। इस समय लड़के की उम्र जिसका नाम भीमसेन है अठारह वर्ष की हो

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भाग 9

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भीमसेन के साथियों ने बहुत खोजा मगर भीमसेन का पता न लगा, लाचार कुछ रात आते-आते लौट आये और उसी समय महाराज शिवदत्त के पास जाकर अर्ज किया कि आज शिकार खेलने के लिए कुमार जंगल में गये थे, एक बनैले सूअर के प

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भाग 11

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दूसरे दिन खा-पीकर निश्चिंत होने के बाद दोपहर को जब दोनों एकांत में बैठे तो इंद्रजीतसिंह ने माधवी से कहा - ''अब मुझसे सब्र नहीं हो सकता, आज तुम्हारा ठीक-ठीक हाल सुने बिना कभी न मानूंगा और इससे बढ़कर न

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भाग 14

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इंद्रजीतसिंह ने दूसरे दिन पुनः नियत समय पर माधवी को जाने न दिया, आधी रात तक हंसी-दिल्लगी ही में काटी, इसके बाद दोनों अपने-अपने पलंग पर सो रहे। कुमार को तो खुटका लगा ही हुआ था कि आज वह काली औरत आवेगी इ

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भाग 15

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अब इस जगह थोड़ा-सा हाल इस राज्य का और साथ ही इस माधवी का भी लिख देना जरूरी है। किशोरी की मां अर्थात शिवदत्त की रानी दो बहिनें थीं। एक जिसका नाम कलावती था शिवदत्त के साथ ब्याही थी और दूसरी मायावती गया

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चंद्रकांता संतति दूसरा भाग -1

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घंटा भर दिन बाकी है। किशोरी अपने उसी बाग में जिसका कुछ हाल पीछे लिख चुके हैं कमरे की छत पर सात-आठ सखियों के बीच में उदास तकिए के सहारे बैठी आसमान की तरफ देख रही है। सुगंधित हवा के झोंके उसे खुश किया च

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भाग 2

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किशोरी खुशी-खुशी रथ पर सवार हुई और रथ तेजी से जाने लगा। वह कमला भी उसके साथ थी, इंद्रजीतसिंह के विषय में तरह-तरह की बातें कहकर उसका दिल बहलाती जाती थी। किशोरी भी बड़े प्रेम से उन बातों को सुनने में ली

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भाग 3

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सुबह का सुहावना समय भी बड़ा ही मजेदार होता है। जबर्दस्त भी परले सिरे का है। क्या मजाल कि इसकी अमलदारी में कोई धूम तो मचावे, इसके आने की खबर दो घंटे पहले ही से हो जाती है। वह देखिए आसमान के जगमगाते हुए

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भाग 4

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हम ऊपर लिख आये हैं कि माधवी के यहां तीन आदमी अर्थात दीवान अग्निदत्त, कुबेरसिंह सेनापति और धर्मसिंह कोतवाल मुखिया थे और तीनों मिलकर माधवी के राज्य का आनंद लेते थे। इन तीनों में अग्निदत्त का दिन बहुत म

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भाग 5

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कमला को विश्वास हो गया कि किशोरी को कोई धोखा देकर ले भागा। वह उस बाग में बहुत देर तक न ठहरी, ऐयारी के सामान से दुरुस्त थी ही, एक लालटेन हाथ में लेकर वहां से चल पड़ी और बाग से बाहर हो चारों तरफ घूम-घूम

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भाग 6

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कुंअर इंद्रजीतसिंह अभी तक उस रमणीक स्थान में विराज रहे हैं। जी कितना ही बेचैन क्यों न हो मगर उन्हें लाचार माधवी के साथ दिन काटना ही पड़ता है। खैर जो होगा देखा जायगा मगर इस समय दो पहर दिन बाकी रहने पर

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भाग 7

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आपस में लड़ने वाले दोनों भाइयों के साथ जाकर सुबह की सफेदी निकलने के साथ ही कोतवाल ने माधवी की सूरत देखी और यह समझकर कि दीवान साहब को छोड़ महारानी अब मुझसे प्रेम रखा चाहती है बहुत खुश हुआ। कोतवाल साहब

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भाग 8

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इस जगह उस तालाब का हाल लिखते हैं, जिसका जिक्र कई दफे ऊपर-पीछे आ चुका है, जिसमें एक औरत को गिरफ्तार करने के लिए योगिनी और वनचरी कूदी थीं, या जिसके किनारे बैठ हमारे ऐयारों ने माधवी के दीवान, कोतवाल और स

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भाग 9

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कुंअर इंद्रजीतसिंह अब जबर्दस्ती करने पर उतारू हुए और इस ताक में लगे कि माधवी सुरंग का ताला खोले और दीवान से मिलने के लिए महल में जाय तो मैं अपना रंग दिखाऊं। तिलोत्तमा के होशियार कर देने से माधवी भी चे

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भाग 10

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जख्मी इंद्रजीतसिंह को लिए हुए उनके ऐयार लोग वहां से दूर निकल गये और बेचारी किशोरी को दुष्ट अग्निदत्त उठाकर अपने घर ले गया। यह सब हाल देख तिलोत्तमा वहां से चलती बनी और बाग के अंदर कमरे में पहुंची। देखा

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भाग 11

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हम ऊपर के बयान में सुबह का दृश्य लिखकर कह आये हैं कि राजा वीरेंद्रसिंह, कुंअर आनंदसिंह और तेजसिंह सेना सहित किसी तरफ को जा रहे हैं। पाठक तो समझ ही गये होंगे कि इन्होंने जरूर किसी तरफ चढ़ाई की है और बे

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भाग 12

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आज पांच दिन के बाद देवीसिंह लौटकर आये हैं। जिस कमरे का हाल हम ऊपर लिख आए हैं उसी में राजा वीरेंद्रसिंह, उनके दोनों लड़के, भैरोसिंह, तारासिंह और कई सरदार लोग बैठे हैं। इंद्रजीतसिंह की तबीयत अब बहुत अच्

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भाग 13

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कुंअर इंद्रजीतसिंह तो किशोरी पर जी-जान से आशिक हो चुके थे। इस बीमारी की हालत में भी उसकी याद इन्हें सता रह थी और यह जानने के लिए बेचैन हो रहे थे कि उस पर क्या बीती, वह किस अवस्था में कहां है और अब उसक

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भाग 14

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आधी रात से ज्यादे जा चुकी है। गयाजी में हर मुहल्ले के चौकीदार ‘जागते रहियो, होशियार रहियो’ कह-कहकर इधर से उधर घूम रहे हैं। रात अंधेरी है, चारों तरफ अंधेरा छाया हुआ है। यहां का मुख्य स्थान विष्णु-पादु

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भाग 15

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राजा वीरेंद्रसिंह के चुनार चले जाने के बाद दोनों भाइयों को अपनी-अपनी फिक्र पैदा हुई। क्रुंअर आनंदसिंह किन्नरी की फिक्र में पड़े और कुंअर इंद्रजीतसिंह को राजगृही की फिक्र पैदा हुई। राजगृही को फतह कर ले

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भाग 16

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भैरोसिंह को राजगृही गये आज तीसरा दिन है। यहां का हाल-चाल अभी तक कुछ मालूम नहीं हुआ, इसी सोच में आधी रात के समय अपने कमरे में पलंग पर लेटे हुए कुंअर इंद्रजीतसिंह को नींद नहीं आ रही है। किशोरी की खयाली

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भाग 17

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मकान के अंदर कमला, इंद्रजीतसिंह और तारासिंह के पहुंचने के पहले ही हम अपने पाठकों को इस मकान में ले चलकर यहां की कैफियत दिखाते हैं। इस मकान के अंदर छोटी-छोटी न मालूम कितनी कोठरियां हैं पर हमें उनसे को

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चंद्रकांता संतति तीसरा भाग - 1

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पाठक समझ ही गये होंगे कि रामशिला के सामने फलगू नदी के बीच में भयानक टीले के ऊपर रहने वाले बाबाजी के सामने जो दो औरतें गई थीं वे माधवी और उसकी सखी तिलोत्तमा थीं। बाबाजी ने उन दोनों से वादा किया था कि त

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भाग 2

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शिवदत्तगढ़ में महाराज शिवदत्त बैठा हुआ बेफिक्री का हलुआ नहीं उड़ाता। सच पूछिये तो तमाम जमाने की फिक्र ने उसको आ घेरा है। वह दिन-रात सोचा ही करता है और उसके ऐयारों और जासूसों का दिन दौड़ते ही बीतता है।

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भाग 3

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ऐयारों और थोड़े से लड़कों के सिवाय नाहरसिंह को साथ लिए हुए भीमसेन राजगृही की तरफ रवाना हुआ। उसका साथी नाहरसिंह बेशक लड़ाई के फन में बहुत ही जबर्दस्त था। उसे विश्वास था कि कोई अकेला आदमी लड़कर कभी मुझस

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भाग 4

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आधी रात का समय है और सन्नाटे की हवा चल रही है। बिल्लौर की तरह खूबी पैदा करने वाली चांदनी आशिकमिजाजों को सदा ही भली मालूम होती है लेकिन आज सर्दी ने उन्हें भी पस्त कर दिया, यह हिम्मत नहीं पड़ती कि जरा म

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भाग 5

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कुंअर इंद्रजीतसिंह नाहरसिंह और तारासिंह को साथ लिए घर आये और अपने छोटे भाई से सब हाल कहा। वे भी सुनकर बहुत उदास हुए और सोचने लगे कि अब क्या करना चाहिए। दोनों कुमार बड़े ही तरद्दुद में पड़े। अगर तारासि

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भाग 6

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इश्क भी क्या बुरी बला है! हाय, इस दुष्ट ने जिसका पीछा किया उसे खराब करके छोड़ दिया और उसके लिए दुनिया भर के अच्छे पदार्थ बेकाम और बुरे बना दिये। छिटकी हुई चांदनी उसके बदन में चिनगारियां पैदा करती है,

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भाग 7

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आधी रात से ज्यादे जा चुकी है, किशोरी अपने कमरे में मसहरी पर लेटी हुई न मालूम क्या-क्या सोच रही है, हां उसकी डबडबाई हुई आंखें जरूर इस बात की खबर देती हैं कि उसके दिल में किसी तरह का द्वंद्व मचा हुआ है।

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भाग 8

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रोहतासगढ़ किले के सामने पहाड़ी से कुछ दूर हटकर वीरेंद्रसिंह का लश्कर पड़ा हुआ है। चारों तरफ फौजी आदमी अपने-अपने काम में लगे हुए दिखाई देते हैं। कुछ फौज आ चुकी और बराबर चली ही आती है। बीच में राजा वीरे

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भाग 9

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आधी रात का समय है, चारों तरफ सन्नाटा छाया हुआ है, राजा वीरेंद्रसिंह के लश्कर में पहरा देने वालों के सिवाय सभी आराम की नींद सोये हुए हें, हां थोड़े से फौजी आदमियों का सोना कुछ विचित्र ढंग का है जिन्हें

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भाग 10

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कुछ रात जा चुकी है। रोहतासगढ़ किले के अंदर अपने मकान में बैसठी हुई बेचारी किशोरी न मालूम किस ध्यान में डूबी हुई है और क्या सोच रही है। कोई दूसरी औरत उसके पास नहीं है। आखिर किसी के पैर की आहट पा अपने ख

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भाग 11

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इसके बाद लाली ने दबी जुबान से किशोरी को कुछ समझाया और दो घंटे में फिर मिलने का वादा करके वहां से चली गयी। हम ऊपर कई दफे लिख आये हैं कि उस बाग में जिसमें किशोरी रहती थी एक तरफ ऐसी इमारत है जिसके दरवाज

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भाग 12

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कुंअर इंद्रजीतसिंह तालाब के किनारे खड़े उस विचित्र इमारत और हसीन औरत की तरफ देख रहे हैं। उनका इरादा हुआ कि तैरकर उस मकान में चले जायं जो इस तालाब के बीचोंबीच में बना हुआ है, मगर उस नौजवान औरत ने इन्हे

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भाग 13

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आधी रात के समय सुनसान मैदान में दो कमसिन औरतें आपस में कुछ बातें करती चली जा रही हैं। राह में छोटे-छोटे टीले पड़ते हैं जिन्हें तकलीफ के साथ लांघने और दम फूलने पर कभी ठहरकर फिर चलने से मालूम होता है कि

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भाग 14

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रोहतासगढ़ किले के चारों तरफ घना जंगल है जिसमें साखू, शीशम, तेंदू, आसन और सलई इत्यादि के बड़े-बड़े पेड़ों की घनी छाया से एक तरह को अंधकार-सा हो रहा है। रात की तो बात ही दूसरी है वहां दिन को भी रास्ते य

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चंद्रकांता संतति चौथा भाग -1

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अब हम अपने किस्से को फिर उसी जगह से शुरू करते हैं जब रोहतासगढ़ किले के अंदर लाली को साथ लेकर किशोरी सेंध की राह उस अजायबघर में घुसी जिसका ताला हमेशा बंद रहता था और दरवाजे पर बराबर पहरा पड़ा रहता था। ह

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भाग 2

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कंचनसिंह के मारे जाने और कुंअर इंद्रजीतसिंह के गायब हो जाने से लश्कर में बड़ी हलचल मच गई। पता लगाने के लिए चारों तरफ जासूस भेजे गये। ऐयार लोग भी इधर-उधर फैल गये और फसाद मिटाने के लिए दिलोजान से कोशिश

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भाग 3

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तेजसिंह के लौट आने से राजा वीरेंद्रसिंह बहुत खुश हुए और उस समय तो उनकी खुशी और भी ज्यादे हो गई जब तेजसिंह ने रोहतासगढ़ आकर अपनी कार्रवाई करने का खुलासा हाल कहा। रामानंद की गिरफ्तारी का हाल सुनकर हंसते

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भाग 4

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अपनी कार्रवाई पूरी करने के बाद तेजसिंह ने सोचा कि अब असली रामानंद को तहखाने से ऐसी खूबसूरती के साथ निकाल लेना चाहिए जिससे महाराज को किसी तरह का शक न हो और यह गुमान भी न हो कि तहखाने में वीरेंद्रसिंह क

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भाग 5

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ऊपर लिखी वारदात के तीसरे दिन दारोगा साहब अपनी गद्दी पर बैठे रोजनामचा देख रहे थे और उस तहखाने की पुरानी बातें पढ़-पढ़कर ताज्जुब कर रहे थे कि यकायक पीछे की कोठरी में खटके की आवाज आई। घबड़ाकर उठ खड़े हुए

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अब हम अपने किस्से के सिलसिले को मोड़कर दूसरी तरफ झुकते हैं और पाठकों को पुण्यधाम काशी में ले चलकर संध्या के साथ गंगा के किनारे बैठी हुई एक नौजवान औरत की अवस्था पर ध्यान दिलाते हैं। सूर्य भगवान अस्त ह

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लाल पोशाक वाली औरत की अद्भुत बातों ने नानक को हैरान कर दिया। वह घबड़ाकर चारों तरफ देखने लगा और डर के मारे उसकी अजब हालत हो गई। वह उस कुएं पर भी ठहर न सका और जल्दी-जल्दी कदम बढ़ाता हुआ इस उम्मीद में गं

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भाग 8

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अब हम फिर उस महारानी के दरबार का हाल लिखते हैं जहां से नानक निकाला जाकर गंगा के किनारे पहुंचाया गया था। नानक को कोठरी में ढकेलकर बाबाजी लौटे तो महारानी के पास न जाकर दूसरी ही तरफ रवाना हुए और एक बारह

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अब हम रोहतासगढ़ की तरफ चलते हैं और तहखाने में बेबस पड़ी हुई बेचारी किशोरी और कुंअर आनंदसिंह इत्यादि की सुध लेते हैं। जिस समय कुंअर आनंदसिंह, भैरोसिंह और तारासिंह तहखाने के अंदर गिरफ्तार हो गए और राजा

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भाग 10

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दूसरे दिन संध्या के समय राजा वीरेंद्रसिंह अपने खेमे में बैठे रोहतासगढ़ के बारे में बातचीत करने लगे। पंडित बद्रीनाथ, भैरोसिंह, तारासिंह, ज्योतिषीजी, कुंअर आनंदसिंह और तेजसिंह उनके पास बैठे हुए थे। अपने

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भाग 11

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अब तो कुंदन का हाल जरूर ही लिखना पड़ा, पाठक महाशय उसका हाल जानने के लिए उत्कंठित हो रहे होंगे। हमने कुंदन को रोहतासगढ़ महल के उसी बाग में छोड़ा है जिसमें किशोरी रहती थी। कुंदन इस फिक्र में लगी रहती थी

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भाग 12

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दूसरे दिन दो पहर दिन चढ़े बाद किशोरी की बेहोशी दूर हुई। उसने अपने को एक गहन वन के पेड़ों की झुरमुट में जमीन पर पड़े पाया और अपने पास कुंदन और कई आदमियों को देखा। बेचारी किशोरी इन थोड़े ही दिनों में तर

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चंद्रकांता संतति- पाँचवाँ भाग 1

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बेचारी किशोरी को चिता पर बैठाकर जिस समय दुष्टा धनपत ने आग लगाई, उसी समय बहुत-से आदमी, जो उसी जंगल में किसी जगह छिपे हुए थे, हाथों में नंगी तलवारें लिये 'मारो! मारो!' कहते हुए उन लोगों पर आ टूटे। उन लो

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भाग 2

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पाठक अभी भूले न होंगे कि कुंअर इन्द्रजीतसिंह कहां हैं। हम ऊपर लिख आए हैं कि उस मकान में जो तालाब के अन्दर बना हुआ था, कुंअर इन्द्रजीतसिंह दो औरतों को देखकर ताज्जुब में आ गए। कुमार उन औरतों का नाम नहीं

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भाग 3

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कुमार कई दिनों तक कमलिनी के यहां मेहमान रहे। उसने बड़ी खातिरदारी और नेकनीयती के साथ इन्हें रखा। इस मकान में कई लौंडियां भी थीं जो दिलोजान से कुमार की खिदमत किया करती थीं, मगर कभी-कभी वे सब दो-दो पहर क

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भाग 4

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हम ऊपर लिख आये हैं कि देवीसिंह को साथ लेकर शेरसिह कुंअर इन्द्रजीतसिंह को छुड़ाने के लिए रोहतासगढ़ से रवाना हुए। शेरसिंह इस बात को तो जानते थे कि कुंअर इन्द्रजीतसिंह फलां जगह हैं परन्तु उन्हें तालाब के

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भाग 5

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अब हम फिर रोहतासगढ़ की तरफ मुड़ते हैं और वहां राजा वीरेन्द्रसिंह के ऊपर जो-जो आफतें आईं, उन्हें लिखकर इस किस्से के बहुत से भेद, जो अभी तक छिपे पड़े हैं, खोलते हैं। हम ऊपर लिख आये हैं कि रोहतासगढ़ फतह

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भाग 6

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आज बहुत दिनों के बाद हम कमला को आधी रात के समय रोहतासगढ़ पहाड़ी के ऊपर पूरब तरफ वाले जंगल में घूमते देख रहे हैं। यहां से किले की दीवार बहुत दूर और ऊंचे पर है। कमला न मालूम किस फिक्र में है या क्या ढूं

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भाग 7

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रोहतासगढ़ फतह होने की खबर लेकर भैरोसिंह चुनार पहुंचे और उसके दो ही तीन दिन बाद राजा दिग्विजयसिंह की बेईमानी की खबर लेकर कई सवार भी जा पहुंचे। इस समाचार के पहुंचते ही चुनारगढ़ में खलबली पड़ गई। फौज के

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भाग 8

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बहुत दिनों से कामिनी का हाल कुछ भी मालूम न हुआ। आज उसकी सुध लेना भी मुनासिब है। आपको याद होगा कि जब कामिनी को साथ लेकर कमला अपने चाचा शेरसिंह से मिलने के लिए उजाड़ खंडहर और तहखाने में गई थी तो वहां से

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भाग 9

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गिल्लन को साथ लिये हुए बीबी गौहर रोहतासगढ़ किले के अन्दर जा पहुंची। किले के अन्दर जाने में किसी तरह का जाल न फैलाना पड़ा और न किसी तरह की कठिनाई हुई। वह बेधड़के किले के उस फाटक पर चली आई जो शिवालय के

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भाग 10

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वीरेन्द्रसिंह के तीनों ऐयारों ने रोहतासगढ़ के किले के अन्दर पहुंचकर अंधेर मचाना शुरू किया। उन लोगों ने निश्चय कर लिया कि अगर दिग्विजयसिंह हमारे मालिकों को नहीं छोड़ेगा तो ऐयारी के कायदे के बाहर काम कर

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भाग 11

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इस जगह मुख्तसर ही में यह भी लिख देना मुनासिब मालूम होता है कि रोहतासगढ़ तहखाने में से राजा वीरेन्द्रसिंह, कुंअर आनन्दसिंह और उनके ऐयार लोग क्योंकर छूटे और कहां गए। हम ऊपर लिख आए हैं कि जिस समय गौहर '

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भाग 12

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दो पहर दिन चढ़ने के पहले ही फौज लेकर नाहरसिंह रोहतासगढ़ पहाड़ी के ऊपर चढ़ गया। उस समय दुश्मनों ने लाचार होकर फाटक खोल दिया और लड़-भिड़कर जान देने पर तैयार हो गये। किले की कुल फौज फाटक पर उमड़ आई और फा

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भाग 13

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तहखाने में बैठी हुई कामिनी को जब किसी के आने की आहट मालूम हुई तब वह सीढ़ी की तरफ देखने लगी मगर जब उसे कई आदमियों के पैरों की धमधमाहट मालूम हुई तब वह घबड़ाई। उसका खयाल दुश्मनों की तरफ गया और वह अपने बच

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चंद्रकांता संतति छठवां भाग 1

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वे दोनों साधु, जो सन्दूक के अन्दर झांक न मालूम क्या देखकर बेहोश हो गए थे, थोड़ी देर बाद होश में आए और चीख-चीखकर रोने लगे। एक ने कहा, ''हाय-हाय इन्द्रजीतसिंह, तुम्हें क्या हो गया! तुमने तो किसी के साथ

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भाग 2

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इस समय शिवदत्त की खुशी का अन्दाज करना मुश्किल है और यह कोई ताज्जुब की बात भी नहीं है, क्योंकि लड़ाकों और दोस्त ऐयारों के सहित राजा वीरेन्द्रसिंह को उसने ऐसा बेबस कर दिया कि उन लोगों को जान बचाना कठिन

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भाग 3

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अब हम अपने पाठकों को फिर उस मैदान के बीच वाले अद्भुत मकान के पास ले चलते हैं जिसके अन्दर इन्द्रजीतसिंह, देवीसिंह, शेरसिंह और कमलिनी के सिपाही लोग जा फंसे थे अर्थात् कमन्द के सहारे दीवार पर चढ़कर अन्दर

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भाग 4

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अब तो मौसम में फर्क पड़ गया। ठंडी-ठंडी हवा जो कलेजे को दहला देती थी और बदन में कंपकंपी पैदा करती थी अब भली मालूम पड़ती है। वह धूप भी, जिसे देख चित्त प्रसन्न होता था और जो बदन में लगकर रग-रग से सर्दी न

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भाग 5

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रात आधी से कुछ ज्यादा जा चुकी है। चारों तरफ सन्नाटा छाया हुआ है, कभी-कभी कुत्तों के भौंकने की आवाज के सिवाय और किसी तरह की आवाज सुनाई नहीं देती। ऐसे समय में काशी की तंग गलियों में दो आदमी, जिनमें एक औ

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भाग 6

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दूसरे दिन कुछ रात बीते कमलिनी फिर मनोरमा के मकान पर पहुंची। बाग के फाटक पर उसी दरबान को टहलते पाया जिससे कल बातचीत कर चुकी थी। इस समय बाग का फाटक खुला हुआ था और उस दरबान के अतिरिक्त और भी कई सिपाही वह

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भाग 7

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आधी रात जा चुकी है। कमलिनी उस कमरे में, जो उसके सोने के लिए मुकर्रर किया गया था, चारपाई पर लेटी हुई करवटें बदल रही है क्योंकि उसकी आंखों में नींद का नामो-निशान नहीं है। उसके दिल में तरह-तरह की बातें प

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चंद्रकांता संतति सातवाँ भाग 1

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नागर थोड़ी दूर पश्चिम जाकर घूमी और फिर उस सड़क पर चलने लगी जो रोहतासगढ़ की तरफ गई थी। पाठक स्वयं समझ सकते हैं कि नागर का दिल कितना मजबूत और कठोर था। उन दिनों जो रास्ता काशी से रोहतासगढ़ को जाता था, व

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भाग 2

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हम ऊपर लिख आए हैं कि राजा वीरेन्द्रसिंह तिलिस्मी खंडहर से (जिसमें दोनों कुमार और तारासिंह इत्यादि गिरफ्तार हो गए थे) निकलकर रोहतासगढ़ की तरफ रवाना हुए तो तेजसिंह उनसे कुछ कह-सुनकर अलग हो गए और उनके सा

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भाग 3

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रात पहर भर से ज्यादा जा चुकी है। तेजसिंह उसी दो नम्बर वाले कमरे के बाहर सहन में तकिया लगाये सो रहे हैं। चिराग बालने का कोई सामान यहां मौजूद नहीं जिससे रोशनी करते, पास में कोई आदमी नहीं जिससे दिल बहलात

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भाग 4

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शाम का वक्त है। सूर्य भगवान अस्त हो चुके हैं तथापि पश्चिम तरफ आसमान पर कुछ-कुछ लाली अभी तक दिखाई दे रही है। ठण्डी हवा मन्द गति से चल रही है। गरमी तो नहीं मालूम होती लेकिन इस समय की हवा बदन में कंपकंपी

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भाग 5

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पाठकों को याद होगा कि भूतनाथ को नागर ने एक पेड़ के साथ बांध रखा है। यद्यपि भूतनाथ ने अपनी चालाकी और तिलिस्मी खंजर की मदद से नागर को बेहोश कर दिया मगर देर तक उसके चिल्लाने पर भी वहां कोई उसका मददगार न

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भाग 6

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मायारानी का डेरा अभी तक खास बाग (तिलिस्मी बाग) में है। रात आधी से ज्यादा जा चुकी है, चारों तरफ सन्नाटा छाया हुआ है। पहरे वालों के सिवाय सभी को निद्रादेवी ने बेहोश करके डाल रखा है, मगर उस बाग में दो और

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चंद्रकांता संतति - आठवाँ भाग 1

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मायारानी की कमर में से ताली लेकर जब लाडिली चली गई तो उसके घंटे भर बाद मायारानी होश में आकर उठ बैठी। उसके बदन में कुछ-कुछ दर्द हो रहा था जिसका सबब वह समझ नहीं सकती थी। उसे फिर उन्हीं खयालों ने आकर घेर

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भाग 2

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कैदखाने का हाल हम ऊपर लिख चुके हैं, पुनः लिखने की कोई आवश्यकता नहीं। उस कैदखाने में कई कोठरियां थीं जिनमें से आठ कोठरियों में तो हमारे बहादुर लोग कैद थे और बाकी कोठरियां खाली थीं। कोई आश्चर्य नहीं, यद

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भाग 3

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मायारानी उस बेचारे मुसीबत के मारे कैदी को रंज, डर और तरद्दुद की निगाहों से देख रही थी जबकि यह आवाज उसने सुनी, ''बेशक मायारानी की मौत आ गई!'' इस आवाज ने मायारानी को हद्द से ज्यादा बेचैन कर दिया। वह घबड

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भाग 4

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कमलिनी की आज्ञानुसार बेहोश नागर की गठरी पीठ पर लादे हुए भूतनाथ कमलिनी के उस तिलिस्मी मकान की तरफ रवाना हुआ जो एक तालाब के बीचोंबीच में था। इस समय उसकी चाल तेज थी और वह खुशी के मारे बहुत ही उमंग और लाप

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भाग 5

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दिन दो पहर से कुछ ज्यादा चढ़ चुका है मगर मायारानी को खाने-पीने की कुछ भी सुध नहीं है। पल-पल में उसकी परेशानी बढ़ती ही जाती है। यद्यपि बिहारीसिंह, हरनामसिंह और धनपत ये तीनों उसके पास मौजूद हैं परन्तु स

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भाग 6

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रात आधी जा चुकी है, चारों तरफ सन्नाटा छाया हुआ है, हवा भी एकदम बन्द है, यहां तक कि किसी पेड़ की एक पत्ती भी नहीं हिलती। आसमान में चांद तो नहीं दिखाई देता, मगर जंगल मैदान में चलने वाले मुसाफिरों को तार

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भाग 7

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राजा गोपालसिंह और देवीसिंह को काशी की तरफ और भैरोसिंह को रोहतासगढ़ की तरफ रवाना करके कमलिनी अपने साथियों को साथ लिए हुए मायारानी के तिलिस्मी बाग की तरफ रवाना हुई। इस समय रात नाममात्र को बाकी थी। प्राय

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भाग 8

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अपनी बहिन लाडिली, ऐयारों और दोनों कुमारों को साथ लेकर कमलिनी राजा गोपालसिंह के कहे अनुसार मायारानी के तिलिस्मी बाग के चौथे दर्जे में जाकर देवमन्दिर में कुछ दिन रहेगी। वहां रहकर ये लोग जो कुछ करेंगे, उ

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भाग 9

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रात पहर भर से ज्यादा जा चुकी है। काशी में मनोरमा के मकान के अन्दर फर्श पर नागर बैठी हुई और उसके पास ही एक खूबसूरत नौजवान आदमी छोटे-छोटे तीन-चार तकियों का सहारा लगाये अधलेटा-सा पड़ा जमीन की तरफ देखता ह

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भाग 10

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दूसरे दिन आधी रात जाते-जाते भूतनाथ फिर उसी मकान में नागर के पास पहुंचा। इस समय नागर आराम से सोई न थी बल्कि न मालूम किस धुन और फिक्र में मकान की पिछली तरफ नजरबाग में टहल रही थी। भूतनाथ को देखते ही वह ह

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भाग 11

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ऊपर के बयान में जो कुछ लिख आये हैं उस बात को कई दिन बीत गये, आज भूतनाथ को हम फिर मायारानी के पास बैठे हुए देखते हैं। रंग-ढंग से जाना जाता है कि भूतनाथ की कार्रवाइयों से मायारानी बहुत ही प्रसन्न है और

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भाग 12

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आज से कुल आठ-दस दिन पहले मायारानी इतनी परेशान और घबड़ाई हुई थी कि जिसका कुछ हिसाब नहीं। वह जीते जी अपने को मुर्दा समझने लगी थी। राजा गोपालसिंह के छूट जाने के डर, चिन्ता, बेचैनी और घबड़ाहट ने चारों तरफ

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