उस रात को सोने के पेश्तर वह कंजरी जंगल में से कुछ पत्ते तोड़ लाई और उन्हें एक बरतन में उबाल डाला और उनके अर्क़ से राजा को लड़की का चिहरा और बाहे और टांगे धो दी जिससे कि उसका रंग ठीक कंजरों का सा गंदुसी यानी गेहुआं हो गया और कहने लगी-"बस मेरी प्यारी, अब तू कंजरी समझी जायगी-अगर लोग तेरा खूबसूरत गोरा चिहरा देखते तो वह शायद ख़याल करते कि तू हम में से नहीं है और हमें तुझको अपने साथ न रखने देते"-जब राजा को लड़की बिस्तर पर गई तोता उसके पास सोया और सोने के पेश्तर उसने उसे दिलासा दी और समझाया कि कंजरों से उसे डरना न चाहिये क्योंकि वह जरूर उसके साथ ख़ातिर से पेश आवेंगे ताकि वह बिकने के वक्त अच्छी मालूम हो और उन्हें उसकी अच्छी क़ीमत मिले।
और ऐसा ही हुआ। कंजर उससे बड़ी मिहर्बानी से पेश आये और उसे बड़ी ख़ातिर से रक्खा। वह कई रोज़ तक सफर करते रहे- रात को अपना देरा किसी अलहदा जगह में कर लिया करें कि जहां आम लोगों का आना जाना बहुत न होता हो। राजा की लड़की अक्सर दोनों कौओं को ऊपर उड़ते देखती थी पर कुछ ध्यान नहीं देती थी, क्येंकि डर था कि कंजर लोग ताड़ न जायं। एक दिन दोपहर के बाद जब कि वह सब छांह में सो रहे थे राजा की लड़की को तोते ने कान में अपनी चोंच से नोच कर जगा दिया। जैसे ही उसने आंखे खोली देखा कि दोनों कौए पास ही झाड़ी में ज़ोर से कांव कांव कर गुल मचा रहे हैं कि “शेर शेर, जागो जागो!" तोते ने कहा-"कंजरों को जगा दे, नहीं तो शेर अभी हम सब के ऊपर आ जायगा"। राजा की लड़की झट उठ खड़ी हुई और जितने ज़ोर से उससे हो सका चिल्लाने लगी-"शेर शेर, जागो जागो!" और कंजर जल्द जाग गये।
इस वक्त राजा की लड़की ने शेर की आंखों को एक झाड़ी के नीचे से चमकते हुए देखा, मगर जैसे ही वह उसके ऊपर झपटने को हुआ, एक कंजर ने एक झूठा सूखे सरकंडों का चूल्हे से जला कर शेर के मुंह पर फेंक दिया जिससे कि वह ऐसा डर गया कि बड़ी आवाज़ से गरजता हुआ उलटा भाग गया और मैदान में कुलांच मारता हुआ थोड़ी ही देर में नज़रों से गायब हो गया।
श्रीधर पाठक की अन्य किताबें
श्रीधर पाठक (११ जनवरी १८५८ - १३ सितंबर १९२८) प्राकृतिक सौंदर्य, स्वदेश प्रेम तथा समाजसुधार की भावनाओ के हिन्दी कवि थे। वे प्रकृतिप्रेमी, सरल, उदार, नम्र, सहृदय, स्वच्छंद तथा विनोदी थे। वे हिंदी साहित्य सम्मेलन के पाँचवें अधिवेशन (1915, लखनऊ) के सभापति हुए और 'कविभूषण' की उपाधि से विभूषित भी। उनका जन्म उत्तर प्रदेश में जौंवरी नाम गांव, तहसील-फ़िरोजाबाद, जिला- आगरा में पंडित लीलाधर के घर हुआ। श्रीधर पाठक सारस्वत ब्राह्मणों के उस परिवार में से थे जो 8 वीं शती में पंजाब के सिरसा से आकर आगरा जिले के जोंधरी गाँव में बसा था। एक सुसंस्कृत परिवार में उत्पन्न होने के कारण आरंभ से ही इनकी रूचि विद्यार्जन में थी। छोटी अवस्था में ही इन्होंने घर पर संस्कृत और फ़ारसी का अच्छा ज्ञान प्राप्त कर लिया। तदुपरांत औपचारिक रूप से विद्यालयी शिक्षा लेते हुए ये हिन्दी प्रवेशिका (१८७५) और 'अंग्रेजी मिडिल' (१८७९) परीक्षाओं में सर्वप्रथम रहे। फिर 'ऐंट्रेंस परीक्षा' (१८८०-८१) में भी प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण हुए। उन दिनों भारत में ऐंट्रेंस तक की शिक्षा पर्याप्त उच्च मानी जाती थी। उनकी नियुक्ति राजकीय सेवा में हो गई। सर्वप्रथम उन्होंने जनगणना आयुक्त रूप में कलकत्ता के कार्यालय में कार्य किया ।
उन्होंने काव्य को अपेक्षाकृत अधिक स्वच्छंद, वैयक्तिक और यथार्थभरी दृष्टि से देखने का सफल प्रयास किया जिससे आगामी छायावादी भावभूमि को बड़ा बल मिला और पूर्वागत परंपरित रूढ़ काव्यढाँचा टूट गया। सफल काव्यानुवादों द्वारा उन्होंने हिंदी को नई दृष्टि देने का प्रयत्न किया। यद्यपि उन्होंने ब्रजभाषा और खड़ीबोली दोनों में रचनाएँ कीं तथापि समर्थक वे खड़ीबोली के ही थे। थोड़े में, उनके काव्य की विशेषताएँ हैं - सहज प्रकृतिचित्रण, वैयक्तिक अनुभूति, राष्ट्रीयता, नए छंदों, लयों और बंदिशों की खोज, विषयप्रधान दृष्टि, नवीन भावप्रकाशन की क्षमता से भरकर नवीन भाषाप्रयोग, प्राच्य और पाश्चात्य तथा पुराने और नए का समन्वय था।D