कौओ ने उसे उसके नाना मे जो कहला भेजा था सब सुना दिया और तोते ने जिस तरह उसका राज छिन गया था सब बयान किया। राजा की लड़की सुन कर बहुत रोई और बोली-“ऐ परिन्दो, मुझे जैसे बने मेरे नाना के पास ले चलो, क्योंकि रानी मुझ पर इतना कड़ापन रखती है कि बाप के साथ सिवा अपने सामने के मुझे बात तक नहीं करने देती, इस से मैं उसकी बातें बाप से नहीं कह सकती-अलावा इस के वह हर एक को मेरे ख़िलाफ़ बनाये रहती है और सिवा इस प्यारे तोते के कोई मुझे नहीं चाहता और न मेरी ख़बर लेता है।
इस पर तोता अपनी बैठक से झुक, चेांच से लड़की के हाथ को चूम, कहने लगा-"मेरी प्यारी बच्ची, तू पूरा यक़ीन रख कि जो कुछ मैं तेरे लिये कर सकूंगा उससे कभी बाहर न हूंगा, क्योंकि मैं तुझे अपने बच्चे के बराबर मानता हूं-मैंने तेरा और तेरी मां दोनों का पैदा होना अपनी आंखों से देखा है। रही तेरे नाना के पास तेरे जाने की बात, मेरी समझ में यह काम मुशकिल और ख़तरे का है, पर साथ ही यह भी अंदेशा है कि राजा के शिकार को चले जाने के बाद, इस सखदिल रानी के पास रहने में हमारे राजा की प्यारी लड़की का किसी तरह बचाव नहीं"।
इसके बाद यह तै हुआ कि दोनों कौए तो महल के बाग़ में बसेरा करें और हमेशा ऐसी जगह रहे कि काम पड़ने पर झट बुला लिये जा सके और तोते ने महलों के भीतर ख़बरदारी रखने का काम लिया और यह मालूम करने की कोशिश में रहा कि रानी लड़की को तकलीफ़ पहुंचाने की कोई तदबीर तो नहीं करती।
श्रीधर पाठक की अन्य किताबें
श्रीधर पाठक (११ जनवरी १८५८ - १३ सितंबर १९२८) प्राकृतिक सौंदर्य, स्वदेश प्रेम तथा समाजसुधार की भावनाओ के हिन्दी कवि थे। वे प्रकृतिप्रेमी, सरल, उदार, नम्र, सहृदय, स्वच्छंद तथा विनोदी थे। वे हिंदी साहित्य सम्मेलन के पाँचवें अधिवेशन (1915, लखनऊ) के सभापति हुए और 'कविभूषण' की उपाधि से विभूषित भी। उनका जन्म उत्तर प्रदेश में जौंवरी नाम गांव, तहसील-फ़िरोजाबाद, जिला- आगरा में पंडित लीलाधर के घर हुआ। श्रीधर पाठक सारस्वत ब्राह्मणों के उस परिवार में से थे जो 8 वीं शती में पंजाब के सिरसा से आकर आगरा जिले के जोंधरी गाँव में बसा था। एक सुसंस्कृत परिवार में उत्पन्न होने के कारण आरंभ से ही इनकी रूचि विद्यार्जन में थी। छोटी अवस्था में ही इन्होंने घर पर संस्कृत और फ़ारसी का अच्छा ज्ञान प्राप्त कर लिया। तदुपरांत औपचारिक रूप से विद्यालयी शिक्षा लेते हुए ये हिन्दी प्रवेशिका (१८७५) और 'अंग्रेजी मिडिल' (१८७९) परीक्षाओं में सर्वप्रथम रहे। फिर 'ऐंट्रेंस परीक्षा' (१८८०-८१) में भी प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण हुए। उन दिनों भारत में ऐंट्रेंस तक की शिक्षा पर्याप्त उच्च मानी जाती थी। उनकी नियुक्ति राजकीय सेवा में हो गई। सर्वप्रथम उन्होंने जनगणना आयुक्त रूप में कलकत्ता के कार्यालय में कार्य किया ।
उन्होंने काव्य को अपेक्षाकृत अधिक स्वच्छंद, वैयक्तिक और यथार्थभरी दृष्टि से देखने का सफल प्रयास किया जिससे आगामी छायावादी भावभूमि को बड़ा बल मिला और पूर्वागत परंपरित रूढ़ काव्यढाँचा टूट गया। सफल काव्यानुवादों द्वारा उन्होंने हिंदी को नई दृष्टि देने का प्रयत्न किया। यद्यपि उन्होंने ब्रजभाषा और खड़ीबोली दोनों में रचनाएँ कीं तथापि समर्थक वे खड़ीबोली के ही थे। थोड़े में, उनके काव्य की विशेषताएँ हैं - सहज प्रकृतिचित्रण, वैयक्तिक अनुभूति, राष्ट्रीयता, नए छंदों, लयों और बंदिशों की खोज, विषयप्रधान दृष्टि, नवीन भावप्रकाशन की क्षमता से भरकर नवीन भाषाप्रयोग, प्राच्य और पाश्चात्य तथा पुराने और नए का समन्वय था।D