क़रीब २ सारे दिन राजा की लड़की अपनी कोठड़ी ही मैं रही, कभी तोते से बात चीत कर लेती थी, कभी सीने लगती थी, और कभी एक किताब जो अपने साथ ले गई थी पढ़ने लगती थी। अख़ीर को उसने एक उकसा हुआ सा पत्थर कोठड़ी की दीवार में देखा, और उसको जो अपनी तरफ़ खींचा तो वह गिर पड़ा और उसकी जगह एक चौकोर छेद हो गया जिसमें से वह कोतवाल के मकान का बाग़ देख सकती थी, इससे वह निहायत खुश हुई और इस बात को जान कर उसे और भी ज़ियादा खुशी हुई कि वह उस सूराख़ से उस कमरे की खिड़की को देख सकती थी जिसमें दयादेई और वह सोया करती थीं-रात आने तक वक्त बहुत बड़ा मालूम पड़ा, लेकिन अख़ीर को शाम का अंधेरा शुरू हुआ और तोता, बड़े मियां उल्लू और दोनों कौओं को खंडहर के चारों तरफ़ ख़बर्दारी रखने का हुक्म देकर, दयादेई के लेने को जो कि अपनी मां के साथ बाग़ में टीले पर खड़ी हुई थी उड़ कर उनके पास पहुंचा। तब दयादेई से उसकी मां ने कहा-"मैं तेरे लिए यहीं ठहरी रहूंगी-तोते को अभी मेरे पास भेज दीजो, जब तेरे लौटने का वक्त होगा मैं उसे तेरे बुलाने को भेज दूंगी"-दयादेई अब उस सिड्ढी से बाग़ के पार उतर गई और मीनार के नीचे जा पहुंची। तोते के इशारे पर रेशमी सिड्ढी तले गिरा दी गई और दयादेई उस पर चढ़ के ऊपर पहुंच गई; सब तरह की खाने की चीजें एक टोकरी में लिये हुए थी। दोनों लड़कियां एक दूसरे से गले लिपट के खूब मिलीं-बाद थोड़ी देर के टोकरी खोली गई और दोनों ने खूब खाने को खाया, उन्हें भूख भी खूब लग रही थी क्योंकि एक दूसरे से मिलने की खुशी में एक ने भी शाम का खाना नहीं खाया था-तोता कोतवाल की बीबी के पास उड़ गया और राजा की लड़की ने दयादेई को दीवार का सूराख़ दिखाया और उससे अपने सोने के कमरे की खिड़की पर अक्सर पाने के लिये कहा ताकि वह उसे देख सके और उसकी तरफ इशारे कर सके। इतने में तोता वापस आया और बोला कि "अब चलने का वक्त है”। दयादेई राजा की लड़की के बहुत से बोसे लेकर अपनी मां के पास लौट आई।
ख़िराज जो उस शहर से मांगा गया था इतना ज़ियादा था कि उस के वसूल होने में बहुत रोज़ लग गये, क्योंकि बहुत लोगों ने अपनी क़ीमती चीज़े छिपाने की कोशिश की और राजा के अफ़सरों को तमाम मकानों की तलाशी में बहुत वक्त लगा।