दोनों लड़कियों को इस मुसीबत में सिर्फ़ यह एक तसल्ली का बाइस था कि दोनों एक ही कोठड़ी में रक्खी गई थीं। कोठड़ी बहुत छोटी थी और उसमें सिर्फ़ एक खिड़की थी जिसमें होकर तोता आ जा सकता था। इस खिड़की से तोता शहर की ख़बरें दर्याफ़्त करने को गया और दयादेई की एक चिट्ठी उसको मां के पास ले गया। जब वह शहर से लौटा तो राजा की लड़की से उसने कहा कि दयादेई के छुड़ाने के वास्ते कोतवाल काफ़ी रुपया इकट्ठा न कर सका और एक दो दिन में सारे लौंडी गुलाम कश्मीरी लशकर में भेज दिये जायेंगे और वहां से उन्हें दुशमन की फ़ौज के साथ फ़ौरन कश्मीर को रवाना होना होगा। इस लिये राजा की लड़की को कश्मीर की खुंखार रानी के पंजे में फिर फसने का ख़ौफ़ है। "मगर,” तोता बोला "मुसीबत से छुटकारा पाने की एक सूरत है, या उमेद है-मुझे अपनी अंगूठी दे दे मैं उसे लेकर कौओं को तेरे नाना के पास भेजता हूं वह उससे सब हाल कह देंगे और वह बड़ा अक्लमन्द है, अगर कुछ हो सकेगा तो ज़रूर करेगा। लेकिन बग़ैर तिलिस्माती अंगूठी के वह कुछ नहीं कर सकेगा। क्योंकि उसके ज़रिये से वह आस्मान के तमाम परिन्दों पर हुक्म चला सकता है। राजा की लड़की ने अंगूठी तोते को दें दी-उसे लेकर वह खंडहर में पहुंचा और वहां दोनों कोओं को बुला कर अंगूठी एक के सपुर्द की और हुक्म दिया कि वह उसे लेकर जितनी जल्दी हो सके गंगोत्री के नज़दीक उस बुड्ढे योगी के पास जावे और उसको देकर उससे सारा हाल बयान करे। दूसरे कौए से उसने कहा कि वह अभी खंडहर ही में रहे और जब फ़ौज लाहौर से रवाना हो उसके साथ साथ उड़े। दोनों कौओं को हुक्म देने के बाद तोता राजा की लड़की के पास वापस आया।
दूसरे रोज़ सुबह को सब लौंडी गुलाम कश्मीरी लशकर को भेज दिये गये और वहां पर सिपहसालार के सपुर्द कर दिये गये और फ़ौज का फ़ौरन कूच हो गया। वह दोनों लड़कियां एक बांसों की खुली डोली में साथ बैठाई गई। तोता उनके साथ रहा, लेकिन अंगूठी के न होने से राजा की लड़की से अब वह बात नहीं कर सकता था, और इसका दोनों का बड़ा अफ़सोस था।
श्रीधर पाठक की अन्य किताबें
श्रीधर पाठक (११ जनवरी १८५८ - १३ सितंबर १९२८) प्राकृतिक सौंदर्य, स्वदेश प्रेम तथा समाजसुधार की भावनाओ के हिन्दी कवि थे। वे प्रकृतिप्रेमी, सरल, उदार, नम्र, सहृदय, स्वच्छंद तथा विनोदी थे। वे हिंदी साहित्य सम्मेलन के पाँचवें अधिवेशन (1915, लखनऊ) के सभापति हुए और 'कविभूषण' की उपाधि से विभूषित भी। उनका जन्म उत्तर प्रदेश में जौंवरी नाम गांव, तहसील-फ़िरोजाबाद, जिला- आगरा में पंडित लीलाधर के घर हुआ। श्रीधर पाठक सारस्वत ब्राह्मणों के उस परिवार में से थे जो 8 वीं शती में पंजाब के सिरसा से आकर आगरा जिले के जोंधरी गाँव में बसा था। एक सुसंस्कृत परिवार में उत्पन्न होने के कारण आरंभ से ही इनकी रूचि विद्यार्जन में थी। छोटी अवस्था में ही इन्होंने घर पर संस्कृत और फ़ारसी का अच्छा ज्ञान प्राप्त कर लिया। तदुपरांत औपचारिक रूप से विद्यालयी शिक्षा लेते हुए ये हिन्दी प्रवेशिका (१८७५) और 'अंग्रेजी मिडिल' (१८७९) परीक्षाओं में सर्वप्रथम रहे। फिर 'ऐंट्रेंस परीक्षा' (१८८०-८१) में भी प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण हुए। उन दिनों भारत में ऐंट्रेंस तक की शिक्षा पर्याप्त उच्च मानी जाती थी। उनकी नियुक्ति राजकीय सेवा में हो गई। सर्वप्रथम उन्होंने जनगणना आयुक्त रूप में कलकत्ता के कार्यालय में कार्य किया ।
उन्होंने काव्य को अपेक्षाकृत अधिक स्वच्छंद, वैयक्तिक और यथार्थभरी दृष्टि से देखने का सफल प्रयास किया जिससे आगामी छायावादी भावभूमि को बड़ा बल मिला और पूर्वागत परंपरित रूढ़ काव्यढाँचा टूट गया। सफल काव्यानुवादों द्वारा उन्होंने हिंदी को नई दृष्टि देने का प्रयत्न किया। यद्यपि उन्होंने ब्रजभाषा और खड़ीबोली दोनों में रचनाएँ कीं तथापि समर्थक वे खड़ीबोली के ही थे। थोड़े में, उनके काव्य की विशेषताएँ हैं - सहज प्रकृतिचित्रण, वैयक्तिक अनुभूति, राष्ट्रीयता, नए छंदों, लयों और बंदिशों की खोज, विषयप्रधान दृष्टि, नवीन भावप्रकाशन की क्षमता से भरकर नवीन भाषाप्रयोग, प्राच्य और पाश्चात्य तथा पुराने और नए का समन्वय था।D