कादम्बिनी के कपड़े मे कीचड भरा हुआ था। अद- भुत भाव के आवेश श्रोर रात के जागने से वह पागल सी हे। रही थी । उसका चेहरा देखकर लोग सचमुच ही डर सकते थे।
शायद गॉव के लडके उसे देखकर पागतव समझकर दूर से ढेले भी मारते | किन्तु साभाग्यवश सबसे पहले एक राह- चलते भले आदमी मे उसे इस' अवस्था में देखा । उस भले गआ्रादमी ने पास आकर कादम्बिनी से कहा--- आप किसी भले घर की वेटी-बहू जान पडती हैं; इस' अवस्था मे इस तरह अकेले कहाँ जा रही हैं ? कादम्बिनी ने पहले कुछ उत्तर नहीं दिया, उसक्की आर ताकने लगी ।
एकाएक वह कुछ नहीं समझ सकी। वह संसार में है, वह भल्ने आदमी की बेटी-बहू जान पडती हे, राहगीर उससे यह प्रश्न करता है, ये सब बाते' उसे स्त्री के समान मिथ्या जान पड़ने लगी |
पथिक ने फिर उससे कहा---चलो बेटी, में तुमके तुम्हारे घर पहुँचा दूं । तुम्हारा घर कहों है ? कादम्बिनी सोचने लगी । सुसराल जाना ते हो नहीं सकता, और मायके मे कोई है ही नही । तब उसे अपने लड़कपन को सखी का स्मरण हुआ । सखी योगमाया के साथ यद्यपि लडकपन से ही वह बिछुड चुकी है तथापि बीच-बीच मे वह कादम्बिनी को चिट्ठी लिखती थी और कादम्बिनी भी उसे चिट्टो लिखती थी । कभी- कभी चिट्ठो-पत्नो के द्वारा प्रेम की लड़ाई भी हुआ करती थो |
कादम्बिनी यह जताना चाहती थो कि वह येगमाया को बहुत चाहती है ओर योगमाया यह जताना चाहती थी कि वह कादम्बिनी का बहुत चाहती है । इसमे किसी को रक्तो भर भी सन्देह न था कि किसी साक पर देनें का मिलन होने पर कोई भी किसी का घटी भर के लिए आँख-ओ्रेट नहो कर सकेगा। कादम्बिनी ने उस भद्र पुरुष से कहा--निशिन्दापुर में श्रापतिचरणश बाबू के धर जाऊँगी | बह पथिक कलकत्ते जा रहे थे। निशिन्दापुर यद्यपि निकट न था,
तथापि उनकी राह में ही पढ़ता था । उस भक्त आदमी ने स्वयं प्रबन्ध करके कादसम्बिनी को श्रोपतिचरण बाबू के घर पहुँचा दिया | दाने सखियाँ बहुत दिनेा के बाद सिल्लों। पहले पह- चानने से कुछ देर हुई, किन्तु थोड़ो ही देर मे दोनों ने दोने। की अच्छी तरह पहचान लिया |
योगमाया ने कहा---अआज हमारे बड़े भाग्य हैं | तुम्हारे दशनद पाने की ते मुझे काई भाशा ही न थो। लेकिन तुम यहाँ किस तरह आई तुम्हारी सुसराल के लोगो ने कया तुम की छोड़ दिया कादसम्बिनी चुप रही; सांत का कद्दा--बहन, सुसरात की कुछ बात तुम मुझसे न पूछे । मुझे दासी की तरह अपने यहाँ रहने दे, में तुम्हारा सब काम करूँगी ।
योगमाया ने कहा --वाहजी, यह क्या बात हे ! दासी की तरह क्यों रहेगी ! तुम मेरी सखी द्वो, तुम मेरी--इत्यादि । इसी समय श्रोपति बाबू घर से आये। काहम्बिनी दमभर उनके चेहरे की ओर ताककर धीरे-धीरे वहाँ से दूसरी दालान में चली गई। उसने न ते घूंघट काढ़ा ओर न किसी तरह् के सट्ठटीच या लज्जा का लक्षण दिखाया |
कही उसकी सखी फी विरुद्ध श्रीपत्ति कुछ ख़याल न कर बैठें, इसलिए व्यस्त होकर योगमाया ने वरह-वरद्द से उन्हे समभाव ना शुरू किया। किन्तु इतना कम सम्राना पडा और आपति ने इतने सहज मे योगमाया की सब बातों को मान लिया कि उससे योगमाया प्रपने मन में विशेष सन्तुष्ट नही हुई । '
कादम्बिनी सखी के घर ते आईं, ज्ञेकिन उससे अच्छो तरह्द हिल्ल-मसिल्ल नहो सकी, बीच मे मृत्यु का व्यवधान था । अपने सम्बन्ध मे सदा एक अकार का सन्देह ओर खयात्त रहने से दूसरे के साथ हिलना-मिलना अमम्भव हो जाता हे | - कादम्बिनी योगमाया के मुँह की ओर ताकती है ओर न जाने क्या सोचती दै--वदह समझती है कि खामी और ग्रहस्थों को लेकर योगसाया माने बहुत दूर पर दूसरे जगत् से है । स्नेह, ममता और कत्तव्य से युक्त वह माने प्रथ्वी पर का जीव है । श्रौर कादम्बिनी मानों शून्य छाया है। योगमाया सानें अस्तित्व का देश है ओर कादम्बिनी माने अनन्त में लीन है ।
योगमाया को भी कादम्बिनी का रहना न जाने केसा लगा। वह ख़ुद भी उसे कुछ नहीं समझ सकी। बछियों का स्वभाव होता है कि वे किसी बात का छिपाना नहीं सह सकतों ।
क्योंकि अनिश्चित को ल्लेकर कविता की जा सकती है, वद्दादुरी दिखलाई जा सकती है, पाण्डित्य प्रकट किया जा सकता है, किन्तु गृहस्थी नही की जा सकती | इसी लिए सी जाति जिसे समझ नहीं १ती उसके अखित्व को लुप्त करके या ते!
उसके साथ कोई सम्बन्ध नहीं रखती ओर या उसे अपने हाथ से नया रूप देकर अपने उयवहार के योग्य वस्तु बना लेती है। यदि इन दो बातों में से कोई बात नहीं कर सकती ते उसके ऊपर खीम उठती है। कादम्बिनी जितना ही योगमाया के ज्लिए एक पहेली के समान दुर्बोध होने लगी उतना ही योगमाया की खीर भी उसके ऊपर बढ़ने लगी । उसने सोचा, यह कान बला मेंने ध्यपने सिर पर ने ली |
इस पर एक और आफत यह थो कि कादम्बिनी आप ही अपने को डरती थी। वह अपने पास से आप ही माना भागना चाहती है, पर भागकर जा नहों सकती । जो भूत को डरते हैं उन्हे अपने पीछे भय जान पडता है--जहोँ टृष्टि नहीं पहुँचती वही भय होता है। किन्तु, काद- म्बिनी मानों अपने को ही डरती थी, बाहर से उसे कुछ भय न था |