दूर जाकर पता लगाने की सामथ्य नहीं । घर मे भगवान् की मुर्ति है, उसे छीड़कर कहीं जाना नहीं हो सकता । कान्तिचन्द्र ने कहा--नाव पर आप मुझसे अगर मिल्ल सके' ते में एक कुल्लीन अच्छा छडका बतला सकता हैँ ।
इधर कान्तिचन्द्र के भेजे दूतों ने नवीनचन्द्र बनर्जी की कन्या सुधा के बारे में गॉव मे जिससे पूछा उसी ने कन्या फे स्वभाव की बड़ो बडाई की । दूसरे दिन नवीनचन्द्र जब्र नाव पर आये तथ कान्तिचन्द्र ने उनको प्रणाम करके बिठलाया और बातो ही बातों में यह जताया कि वे उनकी कन्या से व्याह करना चाहते हैं | ब्राह्मण इस अचिन्तित असम्भव सौभाग्य की बात सुनकर बहुत विस्मित हुए । उन्हे जान पड़ा, कान्तिचन्द्र का कुछ भ्रम हो गया है ।
उन्होंने फिर कहा--तुम मेरी कन्या के साथ ब्याह करोगे ? कान्तिचन्द्र--अगर आपकी सम्मति हो ते में तैयार हैँ ।' नवीनचन्द्र ने फिर पूछा--सुधा के साथ ? े उत्तर मिल्ला-हों । | नवीनचन्द्र ने स्थिर भाव से प्रश्न किया--तुमने उसकी श्रभी देखा-सुना भी नहीं है--- कान्तिचन्द्र ने जेसे उसे स्भुच ही नहीं देखा, ऐसा ढड़ करके कहा--इसके लिए आप कुछ चिन्ता न करे | नवीन ने गद्गद द्वेकर कहा--मेरी सुधा बहुत ही सुशीज्' .. लडकी है, घर-गृहस्थी के काम करने मे श्रद्धितीय है।
तुम, जैसे बिना देखे ही उसे व्याहने के लिए तैयार हो। वैसे ही में भी आशीर्वाद देता हूँ कि मेरी सुधा सदा तुम्हारे मन के माफिक रहकर तुमकी सुखी करे | माघ के महीने में ब्याह होना पक्का हो गया | गॉव के रईस मजूमद्धार बाबू के पुराने घर मे व्याह का स्थान निर्दिष्ट हुआ। यथासमय पाल्की पर चढकर रोशनी ओर बाजे-गाजे के साथ वर आकर उपस्थित हुआ ।
विवाह के समय एक वार, मॉग में सेंदुर लगाने के अवसर पर, वर ने कन्या की ओर देखा। सिर क्रकाये क्ज्जा- शीला सुधा की कान्तिचन्द्र अच्छी तरह नहीं देख सके | आनन्द के मारे आँखों सें चकाचांघ सी लग गई । कुल्नरीति के अनुसार वर को घर के भीतर मुंह जुठालने के लिए जाना पड़ा । वहाँ एक स्लो ने ज़बदस्ती वर के द्वारा कन्या का घूघट खुलवाया। घूघट खेलते ही कान्तिचन्द्र मानों चौंक पड़े । यह ते वह लडकी नहीं है। एकाएक मानों उनके सिर पर वज गिर पड़ा।
दमभर से मानों वहाँ की सब रोशनी बुक गई और उस श्रन्धकार की बहिया ने मानों नव-वधू के मुख का भी अन्धकारसय बना दिया । कान्तिचन्द्र ने अपने सन में दुबारा ब्याह न करने की प्रतिज्ञा ऋकर'ली थी। भाग्य ने उस प्रतिज्ञा को इस वरह की दिल्लगी “करके चुटकी बजाते-बजाते नष्ट कर दिया ।
कितने ही अच्छे- अच्छे ब्याह आये, और उनकी कान्तिचन्द्र ने नामच्जुर कर दिया। ऊँचे घराने के सम्बन्ध का' खयाल, घन का प्रल्लोभन और रूप का मोच्द कान्तिचन्द्र का नहीं डिगा सका, किन्तु , अन्त की एक अपरिचित गॉब मे एक श्रज्ञात दरिद्र के घर ऐसी विडम्बना सहनी पड़ो । लोगो की मुंह किस तरह दिखावेगे पहले ससुर के ऊपर क्रोध हुआ।
ठग ने एक लड़की दिखाकर दूसरी लडकी मुझे ब्याह दी । किन्तु फिर उन्होसे से।चा कि नवीनचन्द्र ने ते! लडकी दिखाई नही | वह ते। ब्याह के पहले लडकी दिखाने के लिए राज़ो थे, किन्तु कान्तिचन्द्र ने खुद ही नाही कर दी | अपनी बुद्धि के दोष को किसी के आगे प्रकट न करना ही कान्तिचन्द्र ने अच्छा समझा । वे दवा की तरह उस वात को पी गये, किन्तु उनके मुख का भात्र बिगड गया । सुसरात्त की औरते| का मसखरापन उन्हे बुरा मालूम पडने लगा ।
अपने ओर सर्वंसाधारण के ऊपर उन्हें बडा क्रोध हो आया | इसी समय कान्तिचन्द्र के पास वेठी हुईं नव वधू एकाएक अव्यक्त भय का शब्द करक चोंक पडो | सहसा उसके पास से एक खरगोश का बच्चा दोौड़ता हुआ निकल्ल गया। उसी दस उस दिन की वही लड़की खरगोश के बच्चे के पीछे देड़ती हुई आई | खरगोश के वच्चे का पकड़कर उसके गाल पर गाल रखकर उसे वह दुलराने लगी । 'विह पगलली आ गई» यह कहकर सब पोरते' इशारे से, व॑ंद्दों से चन्ने जाने के लिए,उससे
कहने लगी । किन्तु उधर कुछ ध्यान न देकर वर ओर कन्या के सामने बैठकर बच्चों की तरह कौतूहल के साथ, क्या हे। रहा है, यह वह देखने लगी । एक स्त्री उसे ज़बरदेस्ती पकड़- कर वहा से हटाने की चेष्टा करने लगी। कान्तिचन्द्र नी कहा- क्यों, उसे बेठी रहने दे।। इसके बाद उस लड़की से कान्ति- चन्द्र ने पूछा--तुम्हारा नाम क्या है ? वह लड़की कुछ उत्तर न देकर वर की ओर ताकने लगी | जितनी श्रौरते' वद्दों बेठी थीं, सब हँसने लगी ।
कान्तिचन्द्र ने फिर पूछा--तुम्हारी बत्तखे' अच्छी हैं ? कुछ उत्तर न देकर, बिना किसी सड्लोच के, उसी तरह वह लडकी कान्तिचन्द्र के मुंह की ओर ताकती रही । कान्तिचन्द्र नं साहस करके फिर पूछा--तुम्हारा वह कवूतर अच्छा हो गया । फिर भी कुछ उत्तर न मिल्ला । सब औरते'इस तरह दँसने जगीं जेसे वर का बड़ा भारी घाखा हुआ | अन्त की पूछने पर कान्तिचन्द्र को मालूम हुभ्रा कि वह छडकी गूंगी और बहरी है ।
गांव के सब पशु-पत्तो ही उसके साथी हैं। उस दिन सुधा की घुकार सुनकर जे! वह घर के भीतर गई थी से उसका केवल्ल अनुमानसात्र था । यह सुनकर कान्तिचन्द्र अपने मन से चौंक पड़े | जिसको न पाकर वे पृथ्वों को सुख से शून्य समभने क्गे थे, भाग्य- वश उसी के हाथ से छुटकारा पाकर उन्होंने अपने का धन्य समझ्ता। कान्तिचन्द्र ने अपने सन में कहा--अगर, में इसी
लड़की के बाप के पास पहुँचता और वह मेरी प्राथना के अनु- सार कन्या का किसी तरह मेरे गले मढ़कर छुटकारा पाने की चेष्टा करता ते। ! जव तक अपने हाथ से निकल गई उस लड़की का मोह उनके मन में इलचल डाले हुए था तब तक वे अपनी स्यो के सम्बन्ध में बिल्कुल अ्रन्ध हा रहे थे। पास ही और कोई सानन्ता का कारण है या नहीं, यह देखने की प्रवृत्ति भी उन्हे नही थी ।
किन्तु ज्योही उन्हाने उस लड़की के गूगे ओर बहरे होने की बात सुनी त्योही उनकी दृष्टि के सामने मानों जगत् के ऊपर से एक काला पदों हट गया। कान्ति- चन्द्र ने मन ही मन ईश्वर का वन्यवाद देकर एक बार सुयोग पाकर अपनी स्त्री की ओर देखा। उस्र समय उन्हे अपनी नवविवाहिता स्त्री लक्ष्मी से बढ़कर सुन्दरी जान पड़ा। इतनी देर के बाद उन्होने समझता कि नवीनचन्द्र का आशीर्वाद व्यर्थ न होगा ।