सुन्दर निहायत मामूली ढंग का था। उसमें काव्यरस, की गन्ध तक न थी। उसके मन में कभी यह बात नहीं आई कि जीवन में उक्त रस की कुछ आवश्यकता होती है। जैसे परिचित पुराने जूते के भीतर पेर बिलकुल् निश्चिन्तः भाव से प्रवेश करते हैं वेसे ही पुरातन प्रथ्वी के भीवर सुन्दर अपने चिराभ्यर्त स्थान पर दखल जमाये हुए था।
इस सम्बन्ध में कमी पूछ कर भी उस्नने अपने मन में किसी प्रकार की चिन्ता, तक या तत्वाह्योचना की स्थान नहीं दिया | सुन्दर सबेरे उठऋर गली के किनारे घर के द्वार पर नड्ढे बदन बेठकर नारियल हाथ में लिये तमाखू पिया करता है। राह में लोग आते-जाते हैं, गाड़ो-घाड़े चल्नते हैं, फ़्कोर गीत गाते भी ख मॉगते फिरते हैं।
इन सब उज्वल दृश्यों में बह अपने मन की बहलाये रखता है। उसके बाद यथासमय तेल लगाकर, नहाकर, भेजन के पश्चात् कोट पहनकर, एक चिल्षम तमाखू जल्लाकर और एक पान खाकर वह दफ्तर जाता है। आफिस से लौट आकर शाम को परोसी शिवनाथ की बैठक से गम्भीर भाव से सायड्डाल विताकर भेजन के उपरान्त सो रहता है। उस समय स्रोपावेती का सामना होता है ।
उस समय पङोसी के लङके ब्याह में निमन्त्रितों के आदर की कमी, नव नियुक्त दासी की बदमाशी आदि बातें की प्रतियोगिता के सम्बन्ध में जो समालेोचना होती है, आज तक किसी कवि ने उसे छन्देबद्ध नहीं किया और उसके लिए सुन्दर का कभी भी नहीं हुआ | इसी बीच मे फागुन के महीने मे मे पार्वती बहुत बीमार पड़ गई।
ज्वर किसी तरह पीछा न छोडता था। डाक्टर जितना ही कुनाइन देता था, बाधा को प्राप्त प्रबल खोत की तरह, उतना द्वी ज्वर की मात्रा बढ़ती जाती थी। इस' तरह चालीस दिन तक पावेती बोमार रही ।
सुन्दर का आफिस जाना बन्द था। शिवनाथ के बैठक- खाने से भी बहुत दिनों से जाना नही हुआ | सुन्दर की कोई उपाय नहीं सूझता था। वह एक बार शयन-गृह मे जाकर रोगी अवस्था पुछ आता है और फिर बाहर के बरामदे । में बैठकर चिन्तित मुख लिये तमाखू पीने लगता है । नित्य नये डाक्टर बैद्य की दवा बदली जाती है ओर और जो जो । कुछ बताता है बही रोगी का दिया जाता है।
स्नेह की ऐसी अव्यवस्थित शुश्रूषा होने पर भी पार्व॑ती आराम है! गई। किन्तु ऐसी दुबेश और शीर्ण हे! गई कि शरीर जेसे बहुत दूर से अत्यन्त क्षीण खर से कह रहा दे कि में हेँ।? '
उस समय वसन्त ऋतु का दक्षिण पवन चल्लने लगा था और गरमियों की चॉदनी भी ज्यों के खुले हुए सोने के कमरों में चुपचाप प्रवेश करने का अधिकार पा चुकी थी ।
पार्वेती के कमरे के नीचे ही परोसी के घर का बाग था | वह कुछ विशेष रमणीय सुदृश्य स्थान नही कहा जा सकता | किसी समय किसी ने शोक करके कई 'करोटन' के पेड़ लगा दिये थे, तब से उसने उनकी ओर विशेष ध्यान नही दिया । एक ओर मचान पर कुँमड़े की बेले फेली हुई थीं। बड़े भारी बेर के पेंड के नीचे घास-फूस का जड़ल सा लगा हुआ था। रसोघर के पास दीवार टूटी हुई थी और वहाँ कुछ इंटे' ढेर थी। उसी जगह पर कोयले और राख का ढेर दिन- दिन ऊँचा होता जाता था ।
किन्तु इन दिने कमरे से खिड़की के पास लेटकर, उसी बाग की ओर देखकर, पावेती जे! एक प्रकार का आनन्द पाती थी बैसा आनन्द इस ज़िन्दगी में उसे और कभी नहीं मि्ला । गर्मियों मे स्रोत का प्रवाह धोमा पड़ने पर छोटी नदी जब बालूकी शब्या पर दुबल शीर्ण होकर पड़ो रहती है तब वह जेसे अत्यन्त स्वछता प्राप्त करती है---तब जैसे प्रातःकाल की धूप उसके स्वर्ग मे व्याप्त हो रहती है, वायु का स्पशे उसके सब अशों का पुलकित बना देता है ओर आकाश के तारागण उसके स्फटिक-दर्पण के ऊपर सुख-स्मृति की तरह अत्यन्त स्पष्ट भाव से प्रतिबिम्बित होते हैं,