समुद्र के भीतर से, वृत्तपंक्ति से श्यामल तट-भूमि जैसे रम-णीय स्वप्न के समान, चित्र के समान जान पड़ती है वैसे किनारे पर पहुँचने से नहीं । वेघव्य के घेरे की आड़ से चमेली संसार से जितना दूर हो गई थी उसी दूरी के अलगाव के कारण उसे संसार, पर-पारवरत्ती परम रहस्यमय, प्रमोद-बन के समान जान पड़ता था |
वह नही जानती थी कि इस जगत्यन्त्र के कल-पुझे बहुत ही जटिल हैं ओर लोहे के समान ही कठिन हैं। वे सुख- दुःख, सम्पत्ति-विपत्ति, संशय-सड्डूट, निराशा और परिताप से ढले हुए हैं। उसे जान पड़ता था कि संसार मे चल्लनना कल- नादिनी नदी के स्वच्छ जल्न-प्रवाह की तरह सहज है--सामने की' पृथ्वी के सभी मार्ग प्रशस्त और सरल हैं ।
सुख केवल उसके घर के द्वार के बाहर है ओर तृप्तिहीन आकांक्षा के उसके धड़क रहे परिताप-पूर्ण कोमल हृदय के भीतर है | विशेष करके उस समय उसके श्रन्तर्गंगन के दूर दिगन्त से एक जवानी की हवा ने उच्छुसित होकर सम्पूर्ण विश्व को विचित्र वसन्त की शोभा से विभूषित कर दिया था। सारा नील आकाश मानें उसी के हृदय की हिलोरों से पृर्णे हो गया था
और प्रृथ्वी मानों उसी के सुगन्ध-मर्मकाष के चारों ओर रक्त कमल की कोमल पंखड़ियों के समान तह की तह विकसित हो रही थी । घर में उसके माता-पिता और दो छोटे भाइयों के सिवा और कोई न था । दोनों भाई खबेरे खा-पीकर स्कूल चले जाते और स्कूल से आकर भेजन करने के बाद रात को नाइट स्कूल पाठाभ्यास करने के लिए जाते थे।
बाप की थाडी सी तन- ख्वाद् मिलती थी, धर मे मास्टर बुज्ञाने की सामथ्ये न थी । काम-काज से फुस त मिलने पर चमेली अपने कमरे को खिड़की पर आकर बैठती थी । बेठ-बैठे सड़क पर लोगों का जाना-आना देखा करती थी | फेरी लगा कर सौदा बेचने वाले तरह-तरह से आवाज लगाते चले जाते थे। उसको सुनकर वह समभती थी कि फेरीवाले, राहगीर और फकीर भी सुखी हैं । सबेरे ओर तीसरे पहर, शास का खूब सज-धज किये, गये से छाती फुलाये मने।
हरहाथ भी उसकी नज़रों के सामने से गुजरते थ। उसकी जान पड़ता था, इस उन्नत-मस्तक सुवेश सुन्दर युवक् के सब कुछ है, और इसका सब कुछ दिया जा सकता है! बालिकाएं जेसे गुड़िया का सजीब मनुष्य मानकर खेलती हैं उसी तरह विधवा चमेली मनोहर की, मन ही सन सब प्रकार की महिमा से मण्डित करके, देवता समझ कर खेलती थी ।
कभी-कभी शाम को वह देखती थी कि मनोहरनाथ के घए में खूब रोशनी हो रही है, नाचने-गानेवाली के घुघरुओ का ओर गाने का शब्द गूँज रहा है। उस दिन वह मनेहरनाथ की दीवार पर प्रतिफलित होनेवाली चच्चल परछाहियो की रऔर लुब्ध दृष्टि से ताकती हुई बैठे ही बैठे रात बिता देती थी। उसका व्यथित पीडित हत्पिण्ड, पिंजड़े के पत्ती की तरह, हृद्य- पिज़र के ऊपर दुदोन्त झावेग से आधात किया करता था ।
वह क्या अपने गढ़े हुए देवता को विल्लास में लिप्त रहने की कारण अपने मन से मिड़कती थी या निनन्दा करती थी? नहीं, अग्नि जेसे पतड़ को नक्षत्र-लेक का प्रलोभन दिखाकर अपनी ओर खीचता है वैसे ही मनेहरनाथ का वह प्रकाशित, गाने-बजाने से गूज रहा, प्रमोद "मदिरा के उच्छूसस से पूण घर चमेल्ली का स्वगं-मरीचिका दिखाकर अपनी ओर आकृष्ट किया फरता था ।
वह अधिक रात को अकेल्ली बेठी-बैठी उस घर के प्रकाश-छाया-सड़ीत और अपने मन की आकांच्षा और कल्पना के द्वारा एक साया का जगत् गढ़ती थी ओर अपनी मानस-पुत्तलिका की उसी मायापुरी के बोच सें बिठाकर विस्मित विम॒ग्ध दृष्टि से निहारती थो भर अपने जीवन-योवन, सुख-दुःख, इद्दकाल्न-परकाल आदि स्वेस्व को वासना की आग में धूप की तरह जलाकर उस निजन सुनसान घर में मनोहरनाथ की पूजा किया करती थो ।
वह नहीं जानती थी कि उसके सामने के उस घर के भीतवर--उस्र तर्लित प्रमोद-प्रवाह के बीच--एक अत्यन्त कलान्ति, ग्ल्वानि, पड्डिलता, वीभत्स क्षुधा और प्रायक्षय- कर दाह है। विधवा को दूर से यह नहीं देख पडता था कि उस निद्राहीन रात्रि के प्रकाश के भीतर एक हृदयहीन निष्ठु- रवा की कुटिल हँसी प्रलय की क्रीड़ा किया करती है ।
चमेली अपने सुनसान कमरे की खिडकी मे बैठकर उस माया- मय स्वर्ग श्रेर कटिपत देवता को लेकर अपनी खारी ज़िन्दगी इसी प्रकार फे स्वप्न के आवेश मे बिता दे सकती थो ।
किन्तु उसके दुर्भाग्य से देवता ने कृपा की और वह्द स्वर्ग निकटवर्त्तों होने लगा । स्वर्ग ने जब एकदम आकर प्रथ्वी को स्पशे किया तब स्वर्ग भी नष्ट हो! गया ओर जिस व्यक्ति ने अकेले बेठकर सगे की कल्पना की थी वह भी नष्ट होकर सिट्टी मे मिल गया |
इस विधवा पर कब मनेाहरनाथ की लुब्ध दृष्टि पडो, कब उसकी विनेदचन्द्र नाम से मिथ्या हस्ताक्षर करके चिट्री लिखकर मनेाहरनाथ ने अन्त को शड्ढा-पूण, उत्कण्ठा-पूण अशुद्ध लिखा हुआ हृदय के उच्छूास और आवेग से भरा पत्र पाया; उसके बाद कुछ दिन घात-प्रतिघात, उल्लास-सड्डोच, आशा और आशउड्ढा मे किस तरह बीते; उसके बाद प्रतलय-सदहरश भयानक सुख की अवस्था मे सारा जगत् विधवा की दृष्टि के आगे कैसे-केसे प्रलोभन भन लेकर आने लगा ओर उसी अवस्था मे वह विधवा संसार का किस तरह भूल गई---उसके बाद अकस्मात् एक दिन वह विधवा उस' ससार से किस तरह अलग होकर दूर चत्ती गई, इसका विस्तृत विवरण लिखने की काई आवश्यकता नहीं।
एक दिन, आधी रात के समय, माता-पिता, भाई और घर छेोडकर चमेली विनोदचन्द्र नामधारी मनोहरनाथ के साथ एक गाड़ी मे सवार हो! गई। देव-प्रतिमा जब उसके पास आकर बैठी तब क्ज्जा और घिक्कार के मारे चमेली मर सी गई । अन्त की गाड़ी जब हॉक दी गई तब चमेली रोकर मने- हरनाथ के पैरें पर गिर पड़ी और कहने लगी--अजी मैं तुम्हारे पेरें पड़ती हूँ, तुम मुझे मेरे घर पहुँचा दे। । मनोहर- नाथ ने दोनों हाथों से जल्दी से उसका मुँह दबा दिया |
गाड़ो तेज़ो से चलने क्वगी | जल्न मे डूब कर मर रहे मनुष्य को दम भर में जेसे जीवन की सब घटनाएं स्पष्ट देख पड़ने लगती हैं वेसे ही उस बन्द गाड़ी के अन्धकार के भीतर चमेली का याद पड़ने लगा कि भाजन के समय उसके पिता उसकी सामने बिठल्लाये बिना भोजन न करते थे, याद पड़ा कि उसके छोटे भाई स्कूल से आकर उसी से खाने की मॉगते थे;
याद पड़ा कि सबेरे वह अपनी मा के साथ घर का काम-काज करती थी ओर शाम का मा अपने हाथ से उसकी चेटी बॉध देती थी !। घर का हर एक कोना ग्रेर हर दिन का हर एक छोटा काम उसे याद आने लगा--- . तब उसे अपना वह निराला जीवन और वह छोटा घर ही खगे जान पड़ने लगा ।
उस समय उसे घर का काम-काज करना, भोजन के समय पिता को पड्ढा कलना, दोपहर की माता की सेवा करना, भाइयों का उपद्रव सहना--यही सब उसे परम- शान्ति-पूर्ण दुलभ सुख के समान जान पड़ने लगा । जान पड़ने लगा, प्रथ्वी के हर एक घर मे इस समय कुल- कामिनियों गहरी नोंद में से रही होंगी ।
उस अपने घर मे, अपनी खटिया पर, रात के सन्नाटे मे निश्चिन्त निद्रा बड़े ही सुख की थी । हाय! यह बात पहले से उसे क्यो न सूझी | गृहस्थी की औरते कल सबेरे जगकर बिना किसी सड्जींच के अपने नित्य के काम करने लगेंगी और घर से निकली हुई |