के ऊपर आनन्दमयी प्रकृति की हर एक उगली जेसे फिरने लगो और हृदय के भीतर जे। एक प्रकार का सद्भीत सुन पड़ने लगा उसके ठीक भाव को वह अच्छी तरह समझ नहीं सकती थी ।
ऐसे समय जब उसका खामी पास बेठकर पूछता था कि केसी तबियत है, तब उसकी आँखें में ऑसू भर आते थे । रशेग-शिथितल्ल चेहरे मे उसकी दोनो आँखे” बहुत बड़ी जान पड़ती थीं। उन्ही बड़ी -बड़ी प्रेमाद कृतज्ञता-पूण आँखें से स्वामी के मुख की ओर ताकती हुई अपने हाथ मे स्वामी का हाथ लेकर वह चुपचाप पड़ो रहती थी । स्वामी के हृदय मे भो मानों कहीं से एक अपरिचित नवीन आनन्द की किरणें आकर प्रवेश करने लगती थी ।
इसी तरह कुछ दिन बीते । एक दिन रात को, टूटी दीवार की दरार से निकले हुए, छोटे से हिल रहे पीपल के पेड़ की शाखाओं के भीतर से फॉकता हुआ चन्द्रमा आकाश से ऊपर उठ रहा था, सन्ध्याकाल के सन्नाटे की मिटाकर एका एक हवा चलने लगी थी, इसी समय प्रेमपुवेक सुन्दरलाल के बालो के भीतर करती हुई पार्वती ने कहा-मेरे ते कोई लड़का-बाला नहीं हुआ, तुम और एक च्याह कर लो ।
पार्वती कुछ दिनो से यही बात सोच रही थी। 'मन से जब एक प्रबल आनन्द, एक ृ्बृहद प्रेम का सच्चार होता है तब मनुष्य समझता है कि में सब कर सकता हूँ । तब एका- एक किसी प्रकार का स्वाथेत्याग दिखाने की इच्छा प्रबल हो उठती है। ख्लोत का उच्छूस ब्योंही कठिन तट के ऊपर बेग से आकर टकराता है त्योही प्रेम का आवेग, आनन्द का उच्छुस एक हत्वा त्याग और बृह्द दु.ख के ऊपर मानों अपने का फेकना चाहता है |
ऐसी ही अवस्था से एक दिन, अत्यन्त पुल॒कित प्रसन्न मन से, पार्वती ने निश्च किया कि में अपने स्वामी के लिए कोई बड़ा भारी स्वाथत्याग दिखाऊँगी। किन्तु हाय | जितनी साध होती है उतनी शक्ति किसमें है | हाथ में कया है; क् या दिया जाय ! ऐश्वये नहों है, बुद्धि नहों है, क्षमता नहों है; केवल प्राण हैं, उन्हे अगर कही खामी के लिए देना पड़े ते अभी देने का तैयार हूँ । किन्तु उन पापों का भी मूल्य क्या है ?
फिर पाती अपने मन से कहने लगो--ओर अगर अपने स्वामी के में एक दूध के समात गोरा, मक्खन के समान कामल, बालक-कामदेव के समान सुन्दर स्नेह-पात्र बच्चा दे सकती ! किन्तु प्राशपण से इच्छा करके मर जाने पर भी ते वह नहीं कर सकती । तब पार्वती को यह ख़याल आया कि स्वामी का दुसरा ब्याह करा सकती हूँ।
उसने सोचा, स्त्रियों इस बात के लिए इतना कुढ़ती क् यों हैं, यह काम ते छुछ भो कठिन नहों है। स्वामी का जो स्त्री चाहती है उसके लिए सौतन को प्यार करना कौन सा कठिन काम है ! यह सोचकर उसका हृदय एक प्रकार के गर्व से फूद्ध उठा ।
सुन्दर ने अपनी स्त्री के मुख से जब्र यह् अद्भुत प्रस्ताव सुना तब उसने उसे हँसकर उड़ा दिया। दूसरी तीसरी बार स्त्री केक हने पर भी उसने उघर कुछ ध्यान नही दिया। खासी की यह असम्मति और अनिच्छा देखकर पारवती का सुख और विश्वास जितना ही बढ़ने लगा उतना ही उसकी प्रतिज्ञा और भी दृढ़ होने लगी । उधर अपनी स्त्री के मुख से बारम्बार यह प्रस्ताव सुनकर सुन्दर के मन से उसके असम्भव द्वोने का भाव दूर होने लगा और घर के द्वार पर तमाखू पीते-पीते सन्न-परिवत्त युह्द का सुखसय चित्र उसके सन में उज्ज्वल हो उठा ।
एक दिन आप ही यह प्रसंग उठाकर सुन्दर ने कहा--- बुढ़ापे मे एक बालिका को व्याह कर में पाल -पोसकर बड़ी न कर सकूँगा “इसके लिए तुमको चिन्ता न करनी होगी---मैं इस काम को अपने ऊपर लेती हूँ |” यह कहते-ही पार्वती के मन से एक किशोर अवस्थावाली, सुकुमारी, शोला, माता से शीघ्र ही बिछुड़ी हुई वर -वधू के मुख की छवि उद्ति हो आई और हृदय स्नेह से विगत हो उठा । सुन्दर ने कहा--मेरे दफुर है, काम काज है, तुम हो, बालिका-वधू को दुलराने की फुर्सत और उमंग मुझे नहीं है ; पार्वती ने बार- बार कहा --इसके लिए चुमका एक घड़ी नष्ट न करनी होगी, और अन्त का दिल्लगी के तैर पर कट्टा--कहा -----
अच्छा तब देखूँगी, तुम्हारा काम कद्दों रहता है, तुम कहा रद्दते होा। और में कहा रहती हूँ । सुन्दर ने इस दिल् लगी का उत्तर देने की कुछ आवश्यकता नहीं समरझी--केवल सज़ा के तार पर पावती के कपोल्ल पर एक उँगक्ी से टुनकार दिया। यह ते हुई भूमिका ।
एक छोटी सी बालिका के साथ अधेड़ सुन्दरलताल का व्याह हो गया। उस बालिका का नाम था, जानकी | सुन्दर ने सोचा, नाम बहुत मीठा है और मुँह भी दरसनीय सुन्दर है। उसके भाव को, चेहरे को, चलने-फिरने को विशेष संयोग के साथ देखने की इच्छा होती है, किन्तु पार्वती के सामने वेसा किया नहीं जाता । बल्कि इसके विप-रीत ऐसा भाव दिखाना पड़ता है कि के ब्याह कर में तो बड़ी आफत में पड़ गया ।
सुन्दर के इस भाव को देखकर पार्वती अपने मन में बहुत ही प्रसन्न होती थी। कभी-कभी सुन्दर का हाथ पकड़कर कहती थी---अजी भागे कहाँ जाते हे! | यह छोटी सी बालिका कोई बाघ नहों है कि तुमका खा जायगी--- सुन्दर और भी व्यग्न भाव दिखाकर कहता था--शरे ठहरे, ठहरे, मुझे एक ज़रूरी काम है। यह कहकर वह ऐसा! भाव दिखाता था जैसे राह नहीं मिलती । पाव॑ती हँसकर दर्वाजा रोककर कहती थी-आज तुम भागकर जा नहीं सकते |
अच्त को सुन्दर माना बिलकुल ही निरुपाय्र होकर कातर भाव से बेठ जाता था । पार्वती उसके कान के पास मुँह ले जाकर कहती थी--- पराई लड़की को घर मे जाकर इस तरह श्रद्धा दिखाना ठीक बात नहीं है । यह कहकर जानकी का पक्रडकर सुन्दर की बाई ओर विठलाती और ज़बद॑स्ती घूँंघट खोलकर और ठोाड़ी प्रकड़कर उसके झुके हुए मुख को ऊपर उठाकर सुन्दर से कहती थी---
देखे, केसा सुन्दर चाँद सा चेहरा है ! किसी-किसी दिन देानेा का एक जगह बिठाकर काम का बहाना करके कमरे के बाहर चत्ली जाती थी और बाहर से द्वार बन्द कर लेती थी। सुन्दर जानता था कि कातूहल से पूण दो ऑखे' किसी न किसी छिद्र से अवश्य झक रही होंगी। इसलिए वह अत्यन्त उदासीन भाव से करवट बदल- कर ( नव-वधू की ओर से मुह फेरकर ) सोने का ढोंग दिखाता था।
जानकी घूंघट काढ़कर एक कोने में सड्डोच के मारे लीन सी हेसो रारी सो रही । रहती थी | अन्त की पार्वती ने विज्नकुल लाचार होकर इस बाद को छोड़ दिया । किन्तु इससे वह कुछ अ्रधिक दुःखित नही हुई। पावेती ने जब ऐसा करना छेड़ दिया तब स्वयं सुन्दर- लाल ने इधर ध्यान दिया । यह बड़े ही कातृहल और बड़े ही रहस्य की बात हुईं।