देवपुर के ज़मीदार रामगोपाल अपने बड़े लङके को ज़मीदारी और घर-ग्रहस्थी सौपकर काशीवास' करने चले गये | देश के सब अनाथ दरिद्र लोग उनके लिए हाहाकार करके रोने लगे । सब यही कहने लगे कि ऐसी उदारता और धमेनिष्ठा कलियुग मे नहीं देख पडती !
उनके पुत्र कृष्णगोपाल आजकल्ल के एक सुशिक्षित बी० ए० हैं। दाढ़ी है, चश्मा लगाते हैं, किसी के पास अधिक उठते-बैठते नही । अत्यन्त सच्चरित हैं, यहाँ तक कि तमाखू भी नहीं खाते। प्रत्यन्त भलेमानुस का सा चेहरा है। लेकिन मिज्ञाज कडा है ।
उनकी प्रजा का शीघ्र ही इस बात का अनुभव हो गया | बुढ़े मात्तिक से वश चलता था, किन्तु यह मालिक एक पैसा भी छाोडने वाले नही । निर्दष्ट समय मे भी एक दिन को रियायत नहीं होती ।
कृष्णुगापाल के हाथ मे अधिकार आते ही उन्होंने देखा कि बहुत से ब्राह्मणों के पास बिना लगान की ज़मोन है श्रौर बहुत से लोगो के पास कम लगान पर भो ज़मोन है। राम-गोपाल से अगर कोई कुछ प्रार्थना करता था ते वे उसे पूरे किये बिना नही रहते थे । यह उनमे एक कमज़ोरी थी।
कष्णगोपाल ने कहा --यह कभी नहीं हो सकता। में आधी ज़मीन बिना गान के नहीं दे सकता। उन्हे निम्न- लिखित दो युक्तियाँ सूझी |
एक यह कि जो निकम्मे लोग घर से बैठे-बैठे इस ज़मीन का मुनाफा खा-खाकर मोटे हो रहे हैं वे अधिकांश ही अप- दाथे और दया के अथोग्य हैं। इस प्रकार का दान देना मानों आजल्षस्य को प्रश्नय देना है ।
दूसरे यह कि उनके बाप-दादे के समय की अपेक्षा इस समय जीविका बहुत ही दुलंभ हो गई है, ख़चे भी वहुत बढ़ गया है। इस समय अपनी मान-सर्यादा बनाये रखकर चलने में चोगुना खर्च करना पडता है। अतएवं उनके पिता जिस प्रकार निश्चिन्त होकर दोनों हाथों से सम्पत्ति लुटा गये हैं वैसा करने से काम नहीं चल सकता । बल्कि उस बिखरी हुईं सम्पत्ति का घर में बटोर लाना ही कर्तव्य है।
कत्तव्य-बुद्धि ने जो कहा वही करना उन्होने शुरू कर दिया। वे एक सिद्धान्त पकंडकर चलने लगे ।
घर से जो बाहर चला गया था वह फिर धीरे-धीरे घर मे आने लगा । उन्हेने पिता के बहुत थाड़े से दान का बहाल रक्खा । और जो रक्खा भो उसके लिए ऐसा ढड़ कर दिया जिसमे वह चिरस्थायी दान न समझा जाय ।
रामगोपात्त की काशी में हो प्रजा के दुःख का हात्त सुन पड़ा । यहाँ तक कि कोई-काई असामी उनके पास जाकर अपने दुःख की गाथा सुना आया । रासम- गोपाल ने ऋष्णयोपात्न को चिट्टी लिखी कि यह काम अच्छा नहों होता |
कृष्णगोपाल ने उत्तर में लिखा कि पहले जिस तरह दान किया जाता था उस तरह्द आमदनी की सूरते' भ्रो बहुत सी थो | तब जमोंदार प्रजा का देता था ओर प्रजा ज्मींदार की देती थी । इस समय नये आईन के शअ्रनुसार तरह-तरह से ज़मीदारों की आमदनी बन्द दे गई है, केवल लगान मित्नता है। ओर केवल्तल लगान वसूल करने के सिवा ज्ञमींदार के अन्यान्य गोरव-जनक अधिकार भी उठ गये हैं। अतएव आजकल यदि में अपनी उचित आमदनी पर कड़ी दृष्टि न रकते खारऊँ क्या | इस समय प्रजा भी मुझे कुछ अधिक न देगी और मैं भी उसे कुछ अधिक न दूंगा। दान और खैरात करने से कुछ दिन मे ही कंगाल हो! जाना पड़ेगा-- इज्ज़त और कुलगौरव की रक्षा करना कठिन हो। जायगा )
रामगोपाल समय के इतने अधिक परिवत्तेन से चिन्तित हो उठे । उन्होने सोचा, आजकल के लड़के आजकल के अलुसार हो काम करते हैं--मेरे समय के नियम अब काम नहीं दे सकते । मैं दूर बेठे रहकर इस काम मे हस्तक्षेप करूंगा ते छड़के कहेंगे कि तुम अपनी सम्पत्ति ज्ञो--हमसे इसकी रक्षा न हो सकेगी। काम क्या है भाई, में जीवन के अन्तिम दिन भगवड्जन में ही बिताऊँगा।
इसी तरह काम चलने लगा। प्रनेक मुकदमे चलाकर, दड़ा-हड्ञामा करके, कृष्णगेपात्त ने सब ढड़ अपने मन के माफिक् कर लिया ।
बहुत सी प्रजा ने डरकर सब प्रकार से. कृष्णगोपाल के अनुगत होना स्वीकार कर लिया । केवल अहमदी का लड़का रमज़ानी किसी तरह काबू में नही आया । कृष्णगोपाल का आक्रोश भी उसी पर सबसे अधिक था। ब्राह्मत का माफी देने का ते। कुछ अ्थे भी समझ से आता है, लेकिन मुसलसान के लडके को माफी देने का क्या मतलब एक सामूली मुस्लमान विधवा का लड़का याँव के ख़ैराती स्कूल मे थाडा सा लिखना-पढ़ना सीखकर ऐसा घमण्डी हो गया है कि किसी की मानता ही नही ।
कृष्णगोपाल को पुराने कमंचारियाो से मालूम हुआ कि रमज़ानी और उस स्त्री की मा पर बहुत दिनों से रामगोपाल का अनुग्रह चल्ला जाता है। इस अनुग्रह का कोई विशेष कारण वे बतला नहीं सके । शायद अनाथ विधवा का हुःख देखकर ही रामगोपाल को उस पर दया आ गईं थो ।
किन्तु ऋष्णगोपाल की पिता का यद्ध अनुमह सबसे बढ़- कर अयोग्य 'जान पड़ा।
पहले की गरीबी की हालत कृष्णगोपाल ने देखी नहों | इस समय हाथ-पेर फैलने की अवस्था मे रमज़ानी की बढ़ा-बढ़ी ओर दम्भ देखकर कृष्णगोपाल को जान पड़ता था कि मानों रमज़ानी की मा अहमदी ने दया-दुबेज्ञ रामगोपाल को धोखा देकर उनकी सम्पत्ति का एक अश ठग लिया है।
रमज़ानी भी उद्धत प्रकृति का युवक था । उसने कहा--- जान चली जायगी ते भी में माफी की एक तिल्न भी ज़मीन न का डूंगा। दोनों ओर से मुकृहमेबाज़ी शुरू हो गई । रमज़ानी की विधवा माता ने लड़के को बार-बार समम्ता- कर कहा कि ज़मींदार के साथ भरगड़ा करने की कोई ज़रूरत नहीं है। अब तक जिनकी कृपा पर निभर करके जीवन बिताया है उन्हीं की कृपा पर निर्भर रहना इस समय भी कतंव्य है । ज़मींदार के कद्दने के अनुसार कुछ माफी छोड़ दे। ।
रमज़ानी ने कहा--अम्मा, तुम इन मामलों मे कुछ भी नहीं जानती । मुकदमेबाज़ी मे रसज़ानी की हार दोने लगी; किन्तु जितना ही वह हारने खगा उतनी ही उसकी ज़िद बढ़ने छगी । उसने अपनी माफी की रक्षा करने में स्वेस्व का दाव लगा दिया | एक दिन तीसरे पहर अहमदी उपहार-स्वरूप अपने खेत की कुछ तरकारी लेकर, लड़के से चुराकर, कृष्णगोपाल से मिलने गई । बुढ़िया माने अपनी सकरुण मात्दृष्टि के द्वारा सनेह पूर्वक कृष्णगोपाल के सारे शरीर पर द्वाथ फेरकर बोली---