निद्राहदीन चमेली की रात कहाँ जाकर समाप्त होगी | उस्र निरानन्द प्रात:काल मे जब चमेली के घर सूथ्ये देव का प्रकाश प्रवेश करेगा तब वहाँ सहसा केसी लज्ना प्रकाशित हो पड़ेगी-- कैसी लाउछना, कैसा हाहाकार जग उठेगा |
चमेली बहुत राई-घाई; बचुत कुछ अनुनय-विनय करके उसने कहा--अभी रात बाकी है । मेरी मा और दोनों भाई अभी तक जागे न होंगे | अभी तुम मुझे मेरे घर पहुँचा दे। !
किन्तु उसके देवता ने इधर ध्यान नहीं दिया। एक सेकिंड क्लास की गाड़ी पर चढाकर मनोहरनाथ उसे उसके चिरवाब्छित स्वर्ग लोक ओर ले चल्ले | थाड़ी देर के बाद ही देवता और स्वर्ग दोनों फिर एक दूसरी गाड़ी पर चढ़कर दूसरी ओर चले । विधवा गले-गले पाप में डूबकर गोते खाने लगी ।
मनोहरनाथ के पहले इतिहास से हमने यहाँ पर इस एक घटना का उल्लेख किया है। अश्लीलता के खयाल से अन्य घटनाओं का उल्लेख यहाँ पर नहीं किया गया । इस समय उन गड़े मुर्दों का उखाड़ने की ज़रूरत भी नहीं ।
इस्र समय वह उस पविनेादचन्द्र नाम को स्मरण रखनेवाला कोई आदमी जगत् मे है या नहीं, इसमे सन्देह है। इस समय मनेाहरनाथ शुद्ध आचारवाले हिन्दू हैं ।
वे नित्य तपंण करते हैं ओर सदा शात्र की चर्चा किया करते हैं। अपने छोटे-छोटे लड़कों का भी योगाभ्यास कराते हैं और अपनी औरतों की सूर्य-चन्द्र-वायु की भी जहाँ गति नही उस अन्तः:पुर में रखते हैं।
किन्तु एक समय उन्होंने कई रमणियों का अपराध किया था, इस कारण आज छिये के सव प्रकार के सामाजिक अपराधो के लिए कठोर दण्ड की व्यवस्था करते हैं । चुन्नो को फॉसी का हुक्म देने के दे! एक दिन बाद भेजन- विज्ञासी मनोहरनाथ जेलखाने के बाग से वरकारी वगेरह लेने के लिए वहाँ गये। उस समय यह जानने के लिए उन्हें कैतूहल हुआ कि चुन्ना अपने पतित जीवन के सब अपराधो का स्मरण करके पश्चात्ताप कर रही है या सही।
जेल के भीतर जहाँ औरते' रक्खी जाती हैं वहाँ मनोहरनाथ गये । वहाँ दूर ही से उन्हे लड़ाई-फगड़े का कोलाहल सुन पड़ा । भीतर जाकर देखा, चुन्नी पहरे के सिपाही के साथ ऋणगड़ा कर रही है। मनाहरनाथ अपने मन में हँसे। सोचा, खियों का स्वभाव ऐसा ही होता है | मौत सिर पर है ते भी लड़ना- फगड़ना नही छोड़तो । ये शायद यम॒पुरी में जाकर यमदूतो से भी रूगड़ा किये बिना न रहेगी ।
मनेहरनाथ ने सोचा, यथ्राचित भत्सना और उपदेश के दारा इस समय चुन्नो के हृदय मे पत्चात्ताप पेदा करना उचित है। इसी साधु उद्देश्य से ज्योंद्दी वे चुन्नो के पास गये त्योद्दी चुज्नी ने द्वाथ जोड़कर करुण खर से कहा--जज सादप, तुम्हारी दोहाई दोहाई है ! इससे कहो, मेरी अंगूठी झुमे दे दे !
पूछने से मालुम हुआ, चुनी की चोटी के भीतर वह अँगूठी छिपी हुईं थी। अचानक पहरेदार की उस पर नज़र पड़ो ओर उसने उससे वच्द छीन लो । मनाहरनाथ फिर अपने मन मे हँसे । कल फॉसी पर लटक जायगी तब भी अंगूठी का माह नहीं छोड़ सकती गहना ही औरतो का सुख है |
पहरे के सिपाही से ममोहरनाथ ने कद्दा--'कहाँ है अंगूठी, देखे ।। सिपाही ने उनकी अंगूठी दे दी । , जैसे एकाएक जल्लता हुआ अड्जारा किसी ने सनोहरनाथ के हाथ मे रख दिया हो, इस तरह वे चोक पड़े। अगूठी में एक ओर हाथी-दॉत के ऊपर तेल के रड्ठ से अड्डित दाढी- मृछवाले एक युवक का छोटा सा चित्र रक्खा हुआ था और दूसरी ओर सोने मे खुदा हुआ था--विनोदचन्द्र । तब सनेाहरनाथ ने ग्रंगूठी से नजर उठाकर एक बार चुन्नो के मुख को अच्छी तरह देखा ।
चौबीस वर्ष पहले का और एक प्रश्नपू्ण प्रोेतिकामल सलज्ज-शड्डित मुख याद् आ गया | उससे यह चेहरा बहुत मित्षता है । मनोहरनाथ ने फिर एक बार उस सोने की अगूठी की तरफ देखा ओर उसके बाद धीरे-घोरे जब उन्हेने सिर उठाया तब उन्तके सामने वह कलड्डिनी पत्तित रसमणी, एक छोटी सी से'ने की अँगूठी की उज्ज्बल आभा से, स्वर्श्मयी देवी-प्रतिमा के समान उद्भधासित हो उठी |