एक हीरे का ठुकड़ा मिल्लने पर उसे तरह-तरह से घुमा-फिराकर देखने का जी चाहता है | किन्तु यह एक नौजवान सुन्दरी स्री का मन था--सुन्दरलाल के लिए बुढ़ापे मे एक बहुत ही अपूर्व और स्पृहणीय पदार्थ था ! इसका कितनी ही तरह से छूकर, हाथ मे लेकर, भीतर से, सामने से, इधर-उधर से देखना पड़ता है!
कभी एक बार कान का करन फूल हिलाकर, कभी घूँघट खोलकर कर, कभी बिजली की तरह चकित दृष्टि से देख कर और कभी नक्षत्र की तरह तक तवाक कर नवीन-नवीन सीन्दर्यों की सीमा का आविष्कार करना पड़ता है । मैकमोरन कम्पनी के दफुर दफ्तर के श्रीयुत बाबू सुन्दर- लाख की अब से पहले कभी ऐसी अभिज्ञता नहीं नसीब हुई थी । पहले जब व्याह हुआ था तब वह बालक था। जब जवानी आई तब उसके लिए चिरपरिचित थी।
पार्वती को वह प्यार अवश्य करता था, किन्तु कभी उसकी मन में इस तरह क्रम-क्रम करके प्रेम का स्चेतन सब्म्चार सचेतन संचार नहीं हुआ था । एकदम पक्के आम में जे पतग पेदा हुआ हो, जिसे कभी रस की खेोज न करनी पड़ी हो, जिसने थोड़ा-धाड़ा करक रस का स्वाद न लिया दो, उसे एक बार ऋतु के विक- सित फूछ-बाग में छोड दे--देखा, अधखिले गुलाब के अ्रध- खुले मुख के पास चक्कर लगाने के लिए उसे कितना आग्रह होता है ! कुछ ही सुगन्ध ओर कुछ ही मधुर स्वाद मिलता है, लेकिन उसी में मस्त रहता है ।
सुन्दर पहले कभी वि्लायती चीनी खिलौने, कभी एसेन्स की शीशी, कभी कुछ मिठाई बाज़ार से लाकर गुप्त रूप से जानकी को देने लगा |... इस प्रकार दोनों में धनिष्ठता का सूत्रपात हुआ । अन्त को एक दिन पार्वती ने घर के काम से फुसंत पाकर कमरे के द्वार पर आकर किवाड़े के छेद से देखा सुन्दर और जानकी बेठे हुए पचीसी खेल रहे हैं | बुढापे का यही खेल है ! सुन्दर सबेरे भोजन आदि करके दफ्तर गया था| लेकिन वास्तव मे दफ्तर न जाकर छिपकर घर में आ गया ! इस दगाबाज़ी की क्या ज़रूरत थी | एकाएक जलती हुई सल्लाई से किसी ने माने पार्वती की आँखें खोल दीं ।
उसके तीव्र ताप से आँखे का पानी भाप बनकर सूख गया ! पार्वती ने मन से कहा--मैंने ही आग्रह करके दूसरा ब्याह कराया, मेंने ही मिलन न करा दिया और फिर मुझसे ही धोखेबाज़ी ! जैसे में ही दोनों के सुख मे कॉटा हू ! पार्वती जानकी को घर का काम-काज सिखाती थी ।.एक दिन सुन्दर ने स्पष्ट शब्दों मे कहा--वह अभी बच्ची है। तुम उससे बहुत परिश्रम कराती हो, उसमे इतनी ताकत नहीं है । बहुत ही तीव उत्तर का पार्वती मुख के पास आकर लौटा ले गई। कुछ नही कहा |
तब से पार्वती जानकी को घर के किसी काम में हाथ लगाने नहीं देती थी । रसोई” आदि सब काम काम ही करती थी। ऐसा! हुआ कि जानकी ने जगह से हिलना छोड़: दिया |
पार्वती दासी की तरह उसकी सेवा करती थी और सुन्दर विदूषक की तरह उसका मनोरंजन करता था। घर का काम- काज करने की, अपने को छोड़कर दूसरे को देखने की, शिक्षा ही उसे नहीं हुई । पार्वती जो दासी की तरह चुपचाप घर का काम करलोलोलल ने की उसका उसे' भारी गर्व था। उसके भीतर हीनता या दीनता नहीं थी। उसने कहा --तुम' दोनों बच्चे मिलकर खेलो घर के काम की देख-रेख में करूँगी !
हाय, आज कहा वह बल है जिस बल के भरोसे पार्वती ने सोचा था कि वह स्वामी के लिए सदा के वास्ते अपने प्रेस का आधा अधिकार सुपूवेक छोड़ देगी । एकाएक एक दिन पूणिमा की रात्रि को जब जीवन-अवाह से ज्वार आता है तब मनुष्य उमड़ के मारे समझता है कि मेरी सीसा कहीं नहों है। तब वह जो बड़ी भारी प्रतिज्ञा कर बैठता है, जीवन- प्रवाह के सुधींग भाटे के समय उस प्रतिज्ञा की रक्षा करने में बड़ो कठिनाई का सामना करना पड़ता है। मनुष्य अकस्मात् ऐश्वये के दिन में एक बार कलम चलाकर जो दान-पत्र लिख देता है, चिरदारिद्रय के दिन कौड़ी-कौडी करके वह दान चुकाना पड़ता है। तब जान पड़ता है कि मनुष्य बहुत ही हीन है , बहुत ही दुबल है | उसकी क्षमता बहुत ही साधारण है।
बहुत दिना की बीमारी के बाद क्षोण, रक्तहीन, पीली पड़ गई पार्वत्ती उस दिन शुक्ल पक्ष की द्वितीया के चन्द्रमा के समान
एक शीशे रेखामात्र थी--संसार में बहुत ही हल्की होकर उड़ी -उड़ी फिर रही थो। उस समय उसे जान पड़ा था कि कुछ भी न हो ते मेरा काम चल् सकता है। किन्तु धीरे- धीरे शरीर पुष्ट और सबल हो आया, रक्त का तेज बढ़ने लगा। उस समय पार्वत्ती के मन मे कुछ प्रवृत्तियो ने आकर कहा--तुमने तो दान-पत्र लिख दिया है, मगर हम अपना दावा किसी तरह नहीं छोड सकती । पार्वत्ती ने जिस दिन साफ तौर से अपनी अवस्था को . समझ लिया उस दिन अपना कमरा सुन्दर और जानकी के लिए ख़ाली करके आप दूसरी कोठरी मे अकेली जाकर सो रही ।
तेरह-चौदह वर्ष की अवस्था मे पहले पहल जिस पलंग पर उसने पेर रक्खा था, आज सत्ताईंस वर्ष बाद उस शब्या को त्याग कर दिया। दीपक बुकर वह सधवी रमणी नवीन वेघव्यशय्या पर लेट रही । उस समय गल्ली के मोड़ पर एक शाकीन नौजवान बिहाग की एक चीज़ गा रहा था, एक आदमी बाय? बजा रहा था और सुननेवाले इष्टमित्र हा हा हा हा करके हँसते और आनन्द प्रकट कर रहे थे । वह गाना-बजाना उस्र चॉदनी रात से पास के कमरे से लेटे हुए सुन्दरलाल को बहुत अच्छा जान पड रहा था। उस समय चालिका जानकी नींद के मारे झूम रही थी