स्वर्ग और मनुष्यलोक के बीच में एक अनिर्देश्य अरा जक स्थान है, जहाँ राजा त्रिशंकु लटक रहे हैं और जह आकाशकुसुमे के ढेर पैदा होते हैं। उस वायुदुर्गवेष्टिव महा देश का नाम है “होता तो है| सकता? । जो लोग महत् कार्य करके अमरता प्राप्त कर गये हैं थे धन्य हो गये हैं। जो लोग साधारण क्षमता लेकर साधारण मनुष्यों मे साधारण भाव से संसार के नित्य प्रति के कत्तव्यों के साधन में सहायता करते हैं वे भी धन्य हैं। किन्तु जे लोग भाग्य के भ्रम से इन दोनों अवस्थाओं के बीच में पड़े हुए हैं, उनके लिए और कोई उपाय नही है। वे काई एक बात होने से कुछ हो सकते थे, किन्तु उसी कारण से उन लोगों के लिए कुछ होना सबकी अपेछा असम्भव हैं |
हमारे अनाथवन्घु बाबू वेसे ही बीच में लटके हुए विधाता से विडम्बना को प्राप्त युवक हैं। सबका यही विश्वास है कि वे इच्छा करते ते ! सभी बातों में कृतकाये हे! सकते । किन्तु किसी समय उन्होंने इच्छा भी नहीं की और किसी काम में कृतकाये भी नहीं हे! सके । इसी कारण उनके प्रति सबका विश्वास अटल बना रह गया। सबने -कहा--वे परीक्षा मे औवल नम्बर पावेगे, किन्तु उन्होने परीक्षा ही नहीं दी। सबका विश्वास है कि वे नौकरी करते तो हर एक डिपाट मे अनायास ही अत्यन्त स्वच्छ स्थान प्राप्त कर सकते, किन्तु उन्हेने कोई नौकरी ही नही की। साधारण लोगें फे प्रति उनका विशेष घृणा थी; क्योंकि वे अत्यन्त सामान्य हैं।
असाधारण लोगों के प्रति उन्हे कुछ भी श्रद्धा न थी, क्योंकि अगर वे चाहते ते उन्तकी भी अपेक्षा असाधारण हो सकते थे । अनाथबन्धु की ख्याति-प्रतिपत्ति-सुख-सम्पत्ति-सेोभाग्य सब देश-फाल से परे असम्भवता के भाण्डार मे निहित था। वास्तव मे विधाता ने उनका एक धनी ससुर श्री एक सुशील स्त्रो दी थी। स्त्री का नाम था विन्ध्यवासिनी ।
स्त्री का नाम अनाथबन्धु का पसन्द न था और स्त्री को भी वे रूप ओर गुण मे अपने अयोग्य समझते थे । किन्तु स्त्री के मन मे स्वामी के सोभाग्य-गर्वे की सीमा नहीं थी। सब स्त्रियों के सब स्वामियो की अपेक्षा सब बातों में विन्ध्य- वासिनी के स्वामी श्रेष्ठ हैं, इस बारे से विन्ध्यवासिनी को! कुछ सन्देह न था। उसके स्वामी का भी कुछ सन्देह न था | साथ ही सर्वसाधारण का विश्वास भी इन खासी और घारणा के अनुकूल था । द विन्ध्यवासिनी सदा इसके लिए शड्डित रहती थी कि सखामी के गौरव का गये कही रती भर भी खण्डित न हो | वह अगर अपने हृदय के आकाश-सेदी अटल भक्ति-पर्वत के सामान करें |
उसे स्कालरशिप भी मिला है। सुनकर अक्वारण ही विन्ध्य- वासिनी का यह जान पड़ा कि कमला का यह भ्रानन्द विशुद्ध आनन्द नहों है--इसक भीतर उसके रवामी के प्रति एक प्रकार का गूढ व्यंग्य भी है। इसी कारण सखी के आनन्द में उल्लास न प्रकट करके बल्कि ज़बदस्तों गले पडऋर कुछ रूखे सर मे उसने सुना दिया कि एफ0 ए0 की परीक्षा कोई परोक्षा ही नही। यहॉ तक कि विज्ञायत के किसी कालेज में बी० ए० के नीचे परोक्षा ही नहीं है। यह कहने की कोई आवश्यकता नहों कि इस ख़बर और युक्ति का उप्तने खामों के मुख से ही सुना था |
सुसंतवाद सुनाने आकर कमला सहसा अपनी परमप्यारी सखी की ओर से ऐसा आधात पाकर पहले कुछ विस्मित चुई। " किन्तु वह भी तो स्त्री ही थी। इसी कारण दिनभर में उसने विन्ष्यवासिनी के मन का भाव समझ लिया । भाई के अप- मान से उसी दम उसकी ज़बान में भी तीव्र विष सच्चारित हो गया । उसने -कहा -बहन, मैं तो विलायत तो गई नही, और विलायत से आने्वाले स्वामी से मेरा व्याह भी नहीं हुआ | ये सब बातें में केसे जान सकती हूँ । में मूर्ख औरत ठहरी । साधारणत: मेरी समभ्म मे यही आता है कि बड़ाली के लड़के का कालेज मे एफ० ए० की परीक्षा देनी होती है और वह भी सब नहों दे सकते अत्यन्त निरीह और बन्घुता के भाव से ये बाते कहकर कमला चली गई।
कल्लह करने की होने के कारण विन्ध्यवासिनी सुनकर चुप हो ! रही और कमरे के भ्रीतर जाकर चुपचाप रोने लगी | थोड़े ही समय के बाद और एक घटना हुई। एक दूर रहनेवाला घनी परिवार कुछ दिने के जिस कलकत्ते मे आकर विन्ध्यवासिनी के पिता के यहाँ ठहरा | इस उपल्ष में विन्ध्य- वासिनी के पिता राजकुमार बाबू के यहाँ बडी धूम पड़ गई |
अनाथबन्धु बाहर के जिस बड़े बैठख़ ने पर दखल जमाये हुए थे उसे अभ्यागतों के लिए खाली कर दूसरे कमरे मे कुछ दिलों के लिए रहने को उनसे अनुराध किया गया |
इस घटना से अनाथबन्धु कुढ़ गये। पहले स्लो के पास जाकर उसके पिता की निन्दा करके, उसे रुज्लाकर, उन्होंने ससुर से बदला चुकाया | उसके बाद भोजन न करने आदि अन्यान्य उपायों से उन्होंने अपने मन का भाव प्रकट करने की चेष्टा की |यह देखकर विन्ध्यवासिनी बहुत ही ल्ज्जित हुई। उसके मन मे जो सहज आत्ममय;दा का बोध था उसी से उसने यह समझा कि ऐसी अवस्था मे सबके आगे अपने कुहने का भाव प्रकट करने से बढ़कर लज्ञा और अपने भ्रपमान की बात और नहीं है। हाथ जोड़कर, पेरों पड़कर, रो-धोकर, बड़े कष्ट से उसने अपने स्वामो का शान्त किया | विन्ध्यवासिनी विवेक से ख़ाल्ली न थी। इसी कारण इसके लिए उसने अपने पिता-माता को देषो नहीं ठहराया | उसने सोचा, यह घटना सहज और स्वाभाविक है।