कमरे भर में अन्धकार'छा गया। कादम्बिनी एकंदम कमरे की भीतर आकर खडो हा गई ।
उस समय ढाई पहर के लगभग राव बीती होगी । बाहर'जोर से पानी पढ़ रहा था । कादम्बिनी मे कहा--बहन, में तुम्हारी सखी कादम्बिनी ही हूँ, किन्तु अब में ज़िन्दा महीं, मर चुकी हैँ । योगमाया डर के मारे चिरज्ञा उठो--श्रोपति के मुंह से कीई बात नहीं निकल्ली |
कादम्बिनी फिर कहने कगी--किन्तु मरने के सिवा मेंने तुम्हारा क्या अ्रपराध किया है | मुझे अगर इस झोक मे भी जगह नहीं है ओर परलोक में भी स्थाव नही है तो बतलाओ मैं कहाँ जाऊँ ? तीघ्र कण्ठ से चिह्लाकर बससात की रात में सोते हुए विधाता की साना जगाकर कादम्बिनी ने कहा--ते! बतल्लाओ, मैं कहा जाऊँ इतना कहकर, मूच्छित ख्री-पुह्रध को उसी डेंधेरे घर में छोड़कर, इस विश्व में कादम्बिनी अपने लिए स्थान खाजने चल"“दी |
यह बतंज्ञाना कठिन है कि कादम्बिनी किस वरह शानी- हाट को लौट गई । वह रानीहाट से पहुँचकर दिन भर भूखी- प्यासी गाँव के निकटवर्ती एक टूटे-फूटे मूत्तहीन सन्दिर में छिपी बेठी रही बरसात की अकाल-सन्ध्या जब अत्यन्त घनी हो पाई और निकटवर्ती दुयोग की आशड्डग से जब गॉव के लोग अपने- अपने घर में किवाड़े बन्द करके बैठ रहे तब कादम्बिनी उस मन्दिर से निकली ।
सुसराल के द्वार पर पहुँचते ही एक बार उसका हृदय धड़क उठा, किन्तु लम्बा घूधट काढकर जक वह भीतर घुसी तब गाँव की काई द्वी समझकर द्वार पर किसी ने उससे कुछ नहों पूछा । इसी समय पानी श्रार भी ज्ञोर से पड़ने लगा और हवा भी खूब ज़ोर से चलमे क्गी । उस समय घर की मालकिन, शारदाशड्डर की ख्री, अपनी विधवा ननद के साथ चोपड़ खेल रही थी । दासी ओर रोटी बनानेवाली महराजिन रसोईवाले घर मे थीं। बीमार बच्चा ज्वर उतर जाने पर पड़ा हुआ से रहा था |
कादम्बिनी सबकी नजर बचाकर उस बच्चे के पास पहुँची । मालूम नहों, वह क्या सोचकर सुसराल आई थी । वह भी शायद इस बात का न जानती थी । शायद एक बार श्रपने हाथ के पतले बच्च की देखने की इच्छा द्वी उसे घसीट ल्ञाइ थी। उसके बाद कहा जाना होगा, क्या करना होगा, इस पर उसने कुछ भी विचार नह्हीं किया था ।
दीपक़ के प्रकाश मे उसने देखा, रोगी दुबल बच्चा पड़ा से रहा है। देखकर कादम्बिनी का उत्तप्त हृदय मानें प्यासा है। उठा | उसे एक बार उठाकर छाती से लगाये और प्यार किये बिना कादम्बिनी से नहीं रहा गया । उसके बाद काद- कादम्बिनी ने सोचा, में नहीं हूँ, इस बच्चे का देखनेवाला-- इसकी खेर-ख़बर लेनेवाला और कौन है।
इसकी मा खेल- तमाशे और बातचीत के आगे और कुछ नहों देखती । यह बच्चा झुभे सॉपकर वह इसकी ओर से बिलकुल निश्चिन्त थी। मैंने ही पाल-पोसकर इसे इतना बडा किया है। अब कौन इसका ताक लेगा ? इसी समय एकाएक करवट बदलकर, अधेनिद्वित अवस्था मे, वह बालक कह उठा--चाचो, पानी दे।
कादबम्बिनी अपने मत मे कहने लगी--मेरा बच्चा अभी तक सुझूकी नहीं भूला । कादम्बिनी ने जल्दी से गिलास में सुराही से पानी उड़ेल्ला और बच्चे को गोद मे लेकर पानी पिलाया । जब तक मोंद की खुमारी थी तब तक ते! सद्दा के अभ्यास के अनुसार चाची के हाथ से पानी पीने में बच्चे का कुछ आश्चये नहीं हुआ ।
अन्त को कादम्बिनी ने जब उसे फिर सुला दिया तब उसक्की नोंद खुल गई। बह चाची से लिपटकर बोला --चाची, तू मर गई थी ? चाचो ने कहा--हॉ बच्चा | बच्चे ने कहा--अब तू फिर आ गई है ? अब ता तू न मर जायगी ? इसका उत्तर देने के पहले ही भारी गोलसाल मच गया । दासी सामूदाना बनाकर बालक को देने आई। एकाएक सागूदाना फेककर “देया रे !! कहकर वह गिर पड़ो |
'उस्की चिह्लाहट सुनकर घर की माह्नकिन 'चौपड़ फेक- कर वहाँ दोड़ आईइ'। वहा का दृश्य देखकर वे एकदस काठ के टू ठ की तरद्द खड़ी रह गई'। न ते वे भाग सकी ओर न कुछ कह सकी ! यह सब देखकर बच्चा भी डर गया।
उसने रोकर कंद्ठा--चाचों, तू जा । कादम्बिनी की बहुत दिनों के बाद यह अनुभव हुआ कि वह मरी नहीं है। वही पुराना घर-द्वार है। वही सब है, वही बच्चा है, वही स्नेह है। उसके लिए सब कुछ सजीव है। उसके ओर इन सब चीज़ों के बोच में कोई बाधा ओर अन्तर नहीं है। सखी के घर जाकर उसने यह अनुभव किया था कि वह मर गई है ।
बच्चे के घर आकर उस ने देखा ओर समझा कि वह मरी नहीं, ज़िन्दा हे । व्याकुल्न होकर काइग्बिनी ने अपनी जेठानी से कहा--- जीजी, मुझे देखकर तुम क्यों डर रही द्वो ! मैं तो वही जीवी- जागती हूँ । शारदाशडुर की श्री खड़ों नही रह सकीं। मूच्छित होकर गिर पड़ों |
बहन से ख़बर पाकर शारदाशडुर वाबू खुद घर मे भीतर आकर उपस्थित हुए। उनन्हे।ने हाथ जोडकर कादम्बिनी से कद्दा--बहू, क्या तुमका यही चाहिए ? यह बच्चा ही हमारे वश में है। इस पर तुम्हारी दृष्टि क्यों हे ? हम 'क्या तुम्हारे काई गेर हैं ?
तुम्हारे मरने के बाद से वह दिन-दिन सूखा जा रहा है, उसकी बीमारी नहों छूटती । वह दिन-रात चाची-च।चो किया करता है। जब तुम संसार से चल्नी गई' तब यह माया-समता छोड़ देना ही तुमको उचित है। दम तुम्हारी गया करा देगे | न् अब कादम्बिनी से रहा नहीं गया ।
उसने तीत्र स्वर से कहा--में मरी नहों हूँ; जीती जागती हूँ । में तुमका किस तरह समभाऊँ कि में मरी नही हूँ । यह देखो--- . इतना कहकर उसने लेटा उठाकर सिर से सारा । सिर फट गया ओर रुधिर बहने लगा । फिर उसने कद्दा--देखे, में जीवी-जागती हूँ । शारदाशडूर काठ के पुतले की तरह खडे रहे ।
बच्चा डर के मारे दादा-दादा कहकर बाप को पुकारने लगा । दोनो बेहेश ओरते ज़मीन पर पड़ो हुईं थी । होश आने पर कादम्बिनी ''में मरी नही, में मरी नहों”?” कहकर चिल्लाती हुई घर से बाहर निकली स्त्री बाहर के तालाब मे जाकर कूद पड़ो। शारदाशड्डूर को भीतर से उसके गिरने का धमाका सुन पड़ा । रात भर पानी बरसता रहा | छउप्तके दूसरे दिन भी पानी का बरसना बन्द नहीं हुआ । इस प्रकार मरी हुई कादम्बिनी ने फिर मरकर यह प्रम्माणित कर दिया कि वह मरी नहीं थी