और आनन्द-गद्द सुन्दर वार-वार प्यारी, प्यारी! कहकर उसे सचेत करने की चेष्टा कर रद्दा था | सुन्दर ने इसी बीच में बड्धिम बाबू का “चन्द्रशेखर उप- न्यास पढ़ डाला था और वह देो-एक प्राधुनिक कवियों के खड्भार-सम्बन्धो काव्य भी जानकी की पढ़कर सुना चुका था | सुन्दर के जीवन की निचली तह मे एक जवानी का भरना? दबा पड़ा हुआ था; आधार पाकर अकस्मात् वह बहुत ही कुसमय में उच्छूसित दवा उठा। कोई इसके लिए “कर न था।
इसी कारण सुन्दर का बुद्धि-विवेक ओर उसकी गिरिस्ती का सब प्रबन्ध उ्लट-पु्लट गया । वह बेचारा यह नही जानता था कि मनुष्य के हृदय के भीतर ऐसे उपद्रवजन पदार्थ रहते हैं, ऐसी प्रचण्ड प्रवृत्तियां रहती हैं जिस हिस हिसाब - किताब, सब खटुला-नष्ट-भ्रष्ट कर देती हैं । केवल सुन्दर का ही यह हाल नहीं हुआ, पार्वती को भी एक नई वेदना का परिचय प्राप्त हुआ । यह काहे की आकर्सण है--यह कादे की दुस्सह यन्त्रणा है! इस समय मन जो चाहता है उसे उसने और कभी नही पाया, और कभी चाहा भी नहीं। जब भत्ते आदमियों की तरह सुन्दर नित्य आफिस जाता था, जब सोने के पहले कुछ देर तक गिरिस्ती के खर्च और काम-काज 'के बारे में और नैतिकता के कत्तेव्य के सम्बन्ध में पावेती के साथ बातचीत करता था तब ते इस घरेलू लड़ाई का नामं-निशान भी नःदेख. पड़ता था।
पार्वती को चाहता ज़रूर था, लेकिन उस चाहने में काई उज्ज्वलता, कोई जोश नहीं देख पड़ता था। वह चाहना अग्निहीन ईंधन के समान अप्रकाशित ही था | आज पार्वती का जान पडा, उसे माना काई सदा से जीवम की सफल्लता से वज्चित रकखे हुए है। उसका हृदय मानों सदा से उपवास किये हुए है। उसका ग्रह नारी-जीवन बड़ी ही गरीबी मे कटा है। उसने केबल पान -मसाला तरकारी आदि में ही बहुमूल्य जीवन, दासी की तरह, चिता दिया है।
आज ज़िन्दगी की राह के मध्यस्थल में आए. उसने देखा, उसी के सोने की काठरी के पास एक गुप्त महत् ऐश्वर्य के भण्डार का ताला खालकर एक छोटी सी बालिका राज-राजेश्वरी बनी बैठी है । स्त्री दासी अवश्य है, लेकिन उसके साथ ही वह रानी भी है। किन्तु उससे हिस्सा लगा- कर एक स्त्री रानी ओर दूसरी दासी हुई, इससे दासी का गौरव नहीं रहा और रानी का सुख भी नही रहा।, ” क्योकि जानकी को भी स्त्री -जीवन का यथार्थ सुख नहीं मिला ।
लगातार इतना अधिक आदर पाने से उसे भी किसी को स्नेह करने का अवसर नही मि्ला.। समुद्र की ओर बहने से, समुद्र के बीच आत्मविसजन करने मे शायद नदी की बडी भारी सफलता है। "किन्तु समुद्र यदि “ज्वारः की उमड़ से 'आकर--उसके आकषण से आकृष्ट होकर बराबर नदी की ओर ढुल पड़े ते नदी की सफलता नही है। उससे नदी ठीक राह पर न जाकर मनमानी राह से चलकर पास रहनेवाले के लिए कष्ट और दुःख का कारण बनेगी ।
सुन्दर अपने हृदय का सारा आदर लेकर दिन-रात जानकी की ओर ्आकृष्ठ हो रहा, इससे जानकी का आत्माभिमान और सौभाग्य-गर्व दिन- दिन बढ़कर उचित सीमा का उल्लड्डन कर चला | पति को चाहने का,उसका आदर करने का, अवसर ही उसे नहीं मिल्रा। उसने जाना, मेरे ही लिए सब है और में किसी के लिए नहीं हैँ । इस अवस्था में अहड्डार ते यथेष्ट है,किन्तु तप्ति कुछ भी नही।
एक दिन खूब बादल घिरे हुए थे | ऐसी अंधेरी झुक आई थी कि घर के भीतर कोई काम करना कठिन हो रहा था। बाहर पानी बरस रहा था । बेर के पेड़ के नीचे का घास-फूस का जड़ल पानी मे डूब गया था और दीवार के पास नाली मे बड़े शब्द से पानी का प्रवाह गिर रहा था। पार्वती अपनी निराली कोठरी की खिड़की के पास चुपचाप बैठी हुईं थी । इसी समय सुन्दर ने धीरे-धीरे चोर की तरह वहां प्रवेश किया ।
वहाँ पहुँचकर वह इस असमजस में पड़ गया कि पार्वती के पास जाऊँ या लौट जाऊँ। पार्वती ने उसकी इस हरकत पर ध्यान दिया, लेकिन मुह से कुछ नहाँ कहा | तब सुन्दर एकाएक एकदम तीर की तरह सीधा पार्वती के पास पहुँचा । और पहुँचते ही कह उठा कि कुछ गहनो की ज़रूरत है। ऋण बहुत सिर पर चढ़ गया है, महाजन उसके लिए अपमान करने को तैयार है, कुछ चीज़ें रेहन रखनी दोंगी। चीज़ें शीघ्र ही छुड़ा दी जायेगी |
पार्वती ने कुछ उत्तर नहीं दिया | सुन्दर चोर की तरह खड़ा रहा | अन्त को फिर उसने कद्ठा-तै। आज दे सकत्ती हो ? पार्वती ने कहा--नहीं । पार्ववी की काठरी मे जाना जैसे कठिन था, वैसे द्वी वहाँ से बाहर निकलना भी कठिन था। सुन्दर ने इधर-उधर ताक- कर कहा--अच्छा ते! और जगह कुछ उपाय करने जाता हैँ ।
यह कहकर वह चल दिया | ऋण किससे लिया है ओर किसे गहने देने हेंगे-यद्द बात पार्वती के! अच्छी तरद्द मालूम थी । उसने सुना था, रात की जानकी ने बुद्धिहीन पोष्यपुरुष सुन्दर से झनकर कहा था--- जीजी के सन्दूक भर गहने हैं और मुझे एक गहना नहीं मिला | सुन्दर के चले जाने पर पार्वती उठी और संदूक खेलकर एक-एक करके सब गहने ,निकाले । जानकी को बु्लाकर पहले पार्वती ने उसे अपने व्याह की वानसी सारी पहनाई |
उसके बाद उसे सिर से पेर तक एक-एक करके सब गहने पहना दिये। अच्छी तरह चोटी बॉधकर पार्वती ने देखा ते उसे बालिका जानकी का मुख बहुत ही सुन्दर जान पड़ा---एक तुरत पर्क सुगन्धित फल की तरह मधुर रसपूण जान पड़ा |