मान लो, सुभा अगर जल्लकुमारी होती; धीरे-धीरे जल से ऊपर उठकर एक नागमशि घाट पर रण जाती , प्रताप तुच्छ मछली पकडने के काये का छोड़कर उस मणि का लेकर जल मे गोता क्गाता और पाताक्न मे जाकर देखता, चॉदी के महल मे सोने के पर्लेंग पर--कौन बैठा है ?--वही वाणी- कण्ठ की गूँगी लड़की सुभा।! सुभा उसी मणिदीप्त गम्भीर निःस्तव्ध पाताज्पुरी की एकमात्र राजकन्या है। यह क्या हो। नही सकता था, यद्द क्या ऐसी ही असस्मव बात है! असल में असम्भव कुछ भी नहीं है। किच्तु तो भी सुभा प्रजाशून्य पाताल के राजवंश मे उत्पन्न न होकर वाणीकण्ठ के घर से पेदा हुई है और गोसाई' के लडके प्रताप का किसी तरह आश्चये मे सहीं डाल सकती |
सुभा की अवस्था धीरे-घीरे बढ़ती जाती थी। क्रमश: बह मानो अपनी अवस्था के परिवततत का अनुभव करने लगी । जेसे किसी पृणिमा का किसी समुद्र से एक्ष ज्वार का प्रवाह आकर सुभा के अन्तरात्मा का एक नवीन अनिवेचनीय चेतना शक्ति से परिपूणं कर रहा था। वह आप अपने की देखती, सोचती और प्रश्न करती थी, किन्तु उसकी समभ्त मे कुछ भी नही आता था | पृणिमा की रात्रि के एक दिन धीरे-धीरे शयन्न-गृह के द्वार को खोलकर, डरते-डरते मुंह निकालकर, सुभा ने बाहर की ओर देखा। देखा, जवानी के रहस्य मे, पुलक और विषाद से, असीम निर्जनता की एकदम शेष सीमा तक, यहाँ तक कि उसे भी नॉघक!। पूर्णिमा की “प्रकृति” भी परिपूर्ण हे। रही है--किन्तु मुख से एक बात भी नहीं कह सकती |
निःस्तव्व व्याकुल्न प्रकृति के एक प्रान्त मे एक व्याकुल् बालिका चुपचाप खड़ी हुईं थी | इधर कन्या की अवस्था देखकर माता-पिता की चिन्ता भी दिन-दिन बढ़ने लगी । लोगों ने भी निन्दा करना शुरू कर दिया । यहा तक कि लोगों मे वाथीकण्ठ को जातिच्युत कर देने की चचों भी चलने लगी । वाणीकण्ठ की अवस्था अच्छी है, खाने-पीने-पहनने की सी कम्मी नहीं है। इसी लिए उलके शत्रु भरी अनेक थे । एक दिन स्त्रों और पुरुष मे इस बारे मे बहुत बातचीत हुई । कुछ दिनों के लिए वर की खोज से वाणीकण्ठ की विदेश जाना पड़ा | -
अन्त को वहाँ से लौट झ्राकर वाणीकण्ठ ने थ्ली से कहा--- चलो, कल्कत्ते चले | विदेश-यात्रा का उद्योग होने लगा। कुहासे से ढके हुए प्रात:काल की तरह सुभा का हृदय अश्रवाष्प से एकदम भर गया। एक अनिर्दिष्ट आशडू के मारे वह कुछ दिन से बरा- बर वाक्य-हीन जन्तु की तरह माता-पिता के पास ही रहा करती थो--दोनों बड़ी-बड़ो आँखें से उनकी ओर ताककर चह मानो कुछ समझने की चेष्टा करती थीं; किन्तु वे कुछ समम्काकर न कहते थे |
इसी बीच मे एक दिन तीसरे पहर पानी से कॉटा डाल्- कर प्रताप ने हँसते हुए कद्दा--क्योरी सुभा, तेरा दुल्लहा मित्र गया है, तू व्याह करने जाती है ? देख, हम लोगो का न भूलना । यह कहकर उस्रनने फिर मछली पकड़ने की ओर मन लगाया ।
मर्मविद्ध हरिणी जेसे शिकारी की ओर ताकती है, चुपचाप कहती है कि मैंने तुम्हारा क्या अपराध किया था, वैसे ही सुभा ने भी प्रताप की ओर देखा । उस दिन वह इमली के पेड के नीचे नहीं बेठी। वाणीकण्ठ शयन-गृह से उठकर तमाखू पी रहे थे। सुभा डनके पेरों के पास बैठकर उनके मुंह की ओर ताककर रेने लगी। श्रन्त का उसे सान्त्वना देने मे वाणीकण्ठ के भी ऑसू निकल्ल आये । कल कल्कत्ते की यात्रा का दिन है ।
सुभा गोशाला मे अपनी बाल्य-खखी गडओ से बिदा होने के लिए गई। उनकी अपने हाथ से खिललाकर, उनके गले से हाथ डालकर, आँखों से यथाशक्ति अपने मन का भाव व्यक्त करती हुई सुभा उनकी ओर ताकती रही । दोनो नेत्नों से टप-टप करके आंसू गिरने लगे । उस दिन शुकु्षपक्ष को द्वादशी को रात थो । सुभा शयन्त- गृह से बाहर निकल्लकर उसी चिरपरिचित नदी-तट पर जाकर घास पर लोटने ल्गी। माने घरणी की, इस मद्दती सूक
मानव-माता को, दोना हाथों से पटाकर वह यह कहना चाहती थी कि तुम माता मुझे जाने न दो, मेरी तरह दोनों हाथ फैलाकर तुम भी मुझे लिपटा रकखे। | कलकत्ते के डेरे मे एक दिन सुभा की माता ने सुभा का खूब खड्डार किया | बाल्लों में तेल डालकर चोटी बॉघी, खूब गहने पहनाये । उसके स्वाध्षाविक सोन्दय का यथाशक्ति सज- घज से छिपा-सा दिया। सुभा की दोनों आँखे से आंसू बह रहे थे। आँखे” फूलकर ख़राब न है! जाये, इसलिए माता ने उसे झिडका भी, किन्तु ऑसुओं ने उस मिडकी का कुछ भी खयाल नहीं किया |
मित्र के साथ वर खुद कन्या की देखने आया | कन्या के पिता चिन्तित, शट्डटित और व्यग्न होकर उठ खड़े हुए | मानों देवता खुद अपनी बलि के पशु को पसन्द करने आया हा।। माता ने भीतर बहुत कुछ डॉट-डपटकर वालिका के अश्रु-प्रवाह का ओर भी बढाकर उसे परीक्षक के सामने भेज दिया | परीक्षक ने वहुत देर तक देखकर कहा--ञ्चुरी नहीं खासकर बालिका के रोने का देखकर चर ने समक्ता कि इसमें सहृदयता भी है और मात्ता-पिता के विछुड़ने की आश। से सहृदय वालिका का हृदय व्यधित हो। उठा है। वह हृदय ब्याह के बाद मेरा ही द्वागा। सीप के मोती के समान बालिका के आसुओं ने उसका मूल्य चढ़ा दिया ।
पत्रा देखकर एक शुभ मुहूर्त निश्चित छुआ और उंस दिन उसी वर के साथ सुभा का ब्याह हो गया । गूँगी लड़की दूसरे का सौंपकर माता-पिता अपने गॉँव 'चत्त दिये। उनकी जाति भी बची और घमंड भो बच गया । वर युक्तप्रान्व मे नौकर था। व्याह के बाद ही वह सुभा का अपने साथ वहां जले गया। एक सप्ताह के भीतर ही उसे मालूम हो गया कि स्त्री गूंगी है। किन्तु ब्याह के पहले इस बात के न समझने का दोष वर का ही था ।
सुभा ने घाखा नहीं दिया था। उसकी दोनो आँखें ने सब खुलासा करके कह दिया था, किन्तु वर उसे समझ नदी सका। वह चारों ओर ताकती थो, पर मन का भाव व्यक्त करने की भाषा उसके पस न थी, वह क्या करती | बालिका के चिर-नीरव हृदय में माता-पिता और पितृ-ग्रह के वियाग की व्यथा किसी दुखिया के करुण वि्लाप की तरह गूजने लगी । अन्तयामी के सिवा उस व्यथा को कोई नहीं समभ सकता था | अबकी बार सुभा का खासी, श्राँखें और काने के द्वारा, अच्छी तरह जॉच करके एक दूसरी स्त्री व्याह लाया ।