किन्तु स्त्री किसी तरह इस बात पर राजी नही हुई | उसन अपनी राय यह जाहिर की कि बड़े भाई की रोटी और आवाज की गाली पर छेप्टे भाई का पारिवारिक अधिकार है, किन्तु सुसरात्त में जाकर रहना बड़ी ही बेज्जती की बात है। क्योंकि उस पर कोई दावा नहीं है । विन्ध्यवासिनी सुसराल मे दीन- हीन की तरह रह सकती है, किंतु बाप के यहाँ वह अपनी इज्जत बनाये रखकर सिर उठाकर रहना चाहती है।
इसी समय गाँव के हाईस्कूल में थर्ड मास्टर की जगह खाली हुईं । अनाथबन्धु के भाई और विन्ध्यवासिनी दोनों ही अनाथबन्धु से वहाँ नाकरी करने के लिए बारम्बार कहने त्गे। इसका भी फत्त उल्लटा ही हुआ। अपने सगे भाई और खस्लरी का ऐसी
अत्यन्त तुन्छ नोकरी के लिए अनुरोध करते देखकर वे बहुत कुढ़े और संसार के सब काम -काज की ओर से उन्हें पहले से चौगनी वि क्ति हो गई। तब उनके बडे भाई से बहुत सी मीठी बातें कहकर उनको मनाया | सभी ने अपने मन में कहा--अब कुछ कद्दने की ज़रूरत नही है |
अनाथबन्धु किसी तरह घर में ही बने रहे-- कहीं रूठकर चले न जाये--यही गनीमत है । छुट्टो समाप्त होने पर अनाथबन्धु के दादा नोकरी पर चल्ले गये | श्यामा कुछ दिन तक अपने रुद्ध आक्रोश से मुंह फुलाकर एक बड़ा भारी कुद शेन चक्र बनाये गयी । अनाथ- बन्धु ने विन्ध्यवासिनी से आकर कहा--आजकल बिना कोई अच्छी नौकरी नही् मिलती । में विल्लायत जाने का इरादा करता हूँ। तुम किसी बहाने से अपने बाप से कुछ रुपये माँगा |
एक ते विल्लायत जाने की बात सुनकर विन्ध्यवासिनी के सिर पर वज्र सा गिर पडा । उसके ऊपर पिता से रुपये मॉगने की बात सुनकर वह मानें लज्जा के मारे मर गई । ससुर से भी अपने मुँह से रुपये मॉगने से अनाथबन्धु के अहंकार ने बाघा डाली किन्तु लडकी कौशल से अपने बाप से रुपये नहीं ला सकती---इस का अर्थ कुछ भी उनकी समझ से नही आया। इस वात की लेकर अनाथबन्धु पर बहुत बिगड़े और स्त्री से बोेल्नना तक छोड दिया। रोते-रोते विन्ध्य- वासिनी की आँखे फूल उठीं । इसी तरह कुछ दिन बीत गये ।
अन्त का आखरी का महीना और दुर्गापूजा का समय निकट आया | दुर्गापूजा बड़ालियाो का एक बडा भारी ट्यौहार होता है। कन्या ओर दाम'द का लाने के लिए राजकुमार बाबू ने बहुत से सामान के साथ आदसी भेजा । साक्ष भर के वाद कन्या अपने स्वामी के साथ पिता के घर आईं | अब की दामाद की पद्दलें से बहुत चढ़कर खातिर हुई | विन्ध्य-वासिनी भी वाप के घर आनन्द मनाने लगी । उस दिन छठ थी ) कल्न सप्तमी से पूजा का आरम्भ होगा । घूमधाम, व्यग्रता और कालाइल का अन्त न था | दूर भर निकट के नातेदारों से राजकुमार बावू का घर भर गया ।
रात का काम-काज से थक्की हुई विन्भ्यवासिनी लेटते ही से गई। पहले जिस कमरे में विन्ध्यवासिनी रहती थी, यह वह कमरा न था। अबकी विशेष आदर जताने के लिए राजकुमार बाबू ने अपना खास कमरा विन्ध्यवासिनी केए रहने के लिए दिया है। अनाथबन्धु कत्र साने के लिए कमरे में आये, यह विन्ध्यवासिनी को माल्ुम भो नहीं हुआ। वह उस समय गहरी नींद में खराटे ले रही थी । बड़े तड़के से ही शहनाई बजने लगा । किन्तु थकी हुई विन्ध्यवासिनी की आँख नहीं रुली |
कमला और भुवन- मोहिनी नाम की दे! सखिया छिपकर ओऔःरत-मर्द की बातचीत सुनने के इशद से विन्ध्यवासिनी के कमरे के दरवाज़े पर गई । वहां कमरा बन्द पाकर ओर बातचीत की आहट न पाकर दोनों सखियाँ जोर से खिलखिलाकर हेंस पड़ों । उस हँसी के शब्द से विन्ध्यवासिनी की आँख खुल गई ।
अनाथबन्धु कब उसके पास से उठकर चले गये, इसकी उसे कुछ ख़ब्रन थी | लज्जित हे। पल्लेंग से नीचे पेर रखते डी उसने देखा, उलकी सा का लोहे का सन्दूकू खुला पडा है उसके भीतर राजकुमार बाबू का जे कैशबक्स रक््खा रहता था, वह भी नहों है | तब उसे याद आया कि कल्ल शाम का माता का चासियों का ग॒च्छा खेा.,जाने से बड़' खल्बली पड़ गई थी। इसमें कोई सन्देह नहीं कि उन्हीं चामियों को चुराकर किसी ने यह चोरी: की है।
तब एकाएक उसे यह खयात्न हुआ कि चोर ने उसके खासी को किसी तरह की चोट न पहुँचाइई हो | कलेजा धक से हो। उठा। पत्केंग के नीचे नज़र डात़्कर देखा ते पाये. के पास मा की चाभियों के गुच्छे के नीचे दबी हुई एक चिट्री रक्खी है । चिट्टो उसके ख!मी के ही हाथ की लिखी हुईं थी। खोल- कर उसे पढने से मालूम हुआ कि अनाथबन्धु ने किसी सित्र की सहायता से विज्ञायत जाने क़े ल्ञिए जहाज़ का किराया प्राप्त कर लिया है।
स्त्री वहाँ का खचे चल्लाने के लिए और कोई उपाय न देखकर रात को ससुर का धन हथियाकर, बरामदे मे लगी हुई सीड़ों से बाग मे उत्रकर, दीवार फॉदकर वे भाग गये हैं। आज सबेरे ही जहाज़ छूट गया है । पत्र पढ़कर विन्ध्यवासिनी के शरीर का सारा ख़ून ठण्ढा पड़ गया । वही पर खाट का पाया पकड़कर वह बैठ गई |
उसकी देह के भीतर ओर काने में निःस्तब्ध कालराज्नि की मिल्लीकड्टठार के समात्त एक प्रकार का, भयानक करकश शब्द जैसे गूंज उठा। डस समय घर के ऑगन से, परासियों के घर से ओर दूर के मकानें से बहुत सी शहनाइयों का स्वर उठ- कर आकाश मे गूँज रहा था । कंवत्तन कलकत्ते मे ही नहीं, सारे बड्ाल मे उस समय लोग आनन्द-मग्न हो रहे थे।
घर भर में शरद ऋतु का उज्ज्वल घाम फैल्ञ गया | इतना दिन चढने पर भी उत्सव के दिन विन्ध्यवासिनी के कमरे का द्वार बन्द देखकर कमला और भुवनमेाहिनी हँखते-हँसते किवाड़ पीटने लगीं। तब भी कुछ उत्तर न पाकर, कुछ डर- कर, ज़ोर से विन्ध्यवालिनी को पुकारने लगों | विन्ध्यवासिनी ने भ भरी हुई आवाज़ मे कहा -आती हैं; तुम इस समय जाओ । दोनों सखियाँ विन्ध्यवासिनी की नवियत खराब होने की आशा से उसकी मा को बुला लाई ।
माता ने आकर कहा---बिटिया, केप्ती तवीयत है--अभी तह दर्वाज्जा क्यों बन्द कर रक्खा है ? विन्ध्यवासिनी ने उमड़े हुए ऑसुओं का रोकऋर कहा-. ज़रा बाबूजी को बुला लाओ ! मावा बहुत ही उरी । वे उसी समय पति को बुला लाई । विन्ध्यव,सिनी जल्दी से द्वार खेलकर माता और पिता को कमरे के भीतर ले गई और भीतर जाकर जल्दी से कियाडे बन्द कर लिये | तब विन्ध्यवासिनी ने ज़मीन पर लोटकर अपने बाप के दोनों पेर पकडकर छाती फाडकर निक्र्ल रहे ऑसुओं को बहाते हुए गद गद स्वर से कहा--बाबूजी, मुझे माफ़ करो, मैंने तुम्हारे सन्दूऊ से रुपये निकाल लिये हें | माता और पिता सन्नाटे मे आकर पलेग पर बैठ गये । विन्ध्यव'सिनी ने कहा --अपने स्वामी का विज्ञायत भेजने के लिए उमने यह काम किया है पिता ने पूछा--तूने हमसे क्यों नहीं मॉगा ?