धूप से प्रकाशित महृत् आकाश के नीचे केवल गूँगी प्रकृति और गूंगी लड़की सुभा दोनों आमने-सामने चुप- चाप बैठे-बेठे एक दूसरे को निहारा करती थीं । प्रकृति फैली हुई धूप में, ओर सुभा छोटे-छोटे पेड़ों की छाह में रहती थी ।
सुभा के कुछ अन्तर मित्र भी थे। एक का नाम श्यामा ओर दूसरी का कल्याणी था। बालका सुभा के मुख से उनके अपने ये नाम कभी सुने न थे; किन्तु वे उसके पेरों की आहट को पहचानती थी। सुभा के पैरो की आहट में भी एक वाक्य-हीन करुण खर था। गए उसके मम को भाषा की अपेक्षा सहज में ही समझ लेती थी। सुभा कभी उनको दुल्लराती थी, कभी मिड़कती थो ओर कभी अन्लुनय-विनय का भाव दिखाती थी। देने गए इन बाते ! की मनुष्य की अपेक्षा बहुत अच्छी तरह समझती थीं ।
इनके सिवा सुभा के सित्रों में एक बकरी ओर एक बिल्ली भी थे । किन्तु उनके साथ सुभा की ऐसी गहरी और बरा- बर की दोस्ती न थी। वो भी वे सुभा के बहुत ही अनुगत थी। बिल्लों जब्र दिन ओर रात का कभो-कभी सुभा की गोद में बैठकर सुख की नींद की तैयारी करती थो और सुभा उसकी गन और पीठ में कोमल हाथ फेरती थो तब वह बिल्ली भो ऐसा भाव प्रकट करती थी कि उससे उसकी सुख की नींद में विशेष सहायता पहुँचती है |
उन्नत श्रेणी के जीवो मे खुभा का और भो एक साथी मित्न गया था। किन्तु यह ठीक-ठीक निर्णय करना कठिन है कि सुभा के साथ उसका केसा सम्बन्ध था। क्योकि वह भाषाविशिष्ट जीव था और इसी कारण देने की भाषा एक प्रकार की न थो । वह था गोसाई'जी का छोटा लड़का प्रतापचन्द्र | प्रताप- चन्द्र काई काम-काज न करता था। बहुत चेष्टा करने के बाद माता-पिता ने यह आशा छोड दी थो कि प्रताप कुछ काम- काज करके अपनी ओर अपनी गृहस्थो की उन्नति करेगा |
अकर्मण्य लोगो के लिए एक सुभीता यह है कि आंत्मीय लोग ते उनसे नाराज़ होते हैं, लेकिन गेर लोगो के वे प्रिय-पात्र है जाते हैं। क्योकि किसी काम मे क्गे न रहने के कारण वे सरकारी आदमी हो जाते हैं। शहरों मे जेसे दे-एक ग्रह- संपर्कहीन सरकारी बागो का रधद्दना आवश्यक है वैसे ही देहाते मे देा-चार अकर्मण्य सरकारी लोगों के रहने की विशेष आवश्यकता होती है। काम-काज, आमेद-प्रसेद आदि में जहाँ एक आदमी कम पड़ता है वही वे पास दो अनायास मिल जाते हैं ।
प्रतापचन्द्र को सबसे बढ़कर कॉटा फेककर मछली पकड़ने का शौक था। इस काम मे सहज हो बहुत सा समय बीत जाता है। तीसरे पहर नदी क॑ किनारे प्रतापचन्द्र इसी काम में लगा हुआ देख पड़ता था। इसी भ्रवसर में अक्सर सुभा से उत्तकी खसुल्लाकात हो जाया करती थी। प्रताप की आदत थो कि वह चाहे जो काम करता हो, एक साथो की उसे आवश्यकता रहती थी। बिना साथी के वह कोई भा काम नहीं कर सकता था। मछलो पकड़ने के समय वाक्यहोन साथी ही सबसे अच्छा होता है। इसी कारण प्रताप सुभा की मर्यादा को समझता था। प्रताप और भी अधिक आदर करके सुभा को केवल्ल सु! कहा करता था | सुभा इमल्ली के पेड़ के नीचे बैठी रहती थी और प्रताप, पास ही, पानी में कॉटा डालकर उधर ही देखा करता था।
प्रताप को सुभा नित्य एक पान का बीड़ा घर से लगा कर देती थी । जान पड़ता है, बहुत देर तक बेठे-बैठे ताक-ताककर सुभा अपने मन में इच्छा करती थो कि वह प्रताप की कोई विशेष सहायता कर सकती, उसके किसी काम मे लग सकती या किसी तरह यह जता दे सकती कि इस पृथ्वी पर वह भी कम काम की चीज़ नही है ते बहुत अच्छा होता। किन्तु इसमे से वह कुछ भी नहीं कर सकती थी , वह मन ही मन विधाता से अलैकिक क्षमता की प्रार्थना करती थी --मन्त्र के बल से सहसा ऐसा विचित्र फाये कर दिखाना चाहतो थो कि उसे देखकर प्रताप के विश्मय का ठिकाना न रहता और वह कहता कि वाह, सु! मे इतनी क्षमता भरी पड़ी है, यह ते मुझे मालूम ही नही था ।