जानकी के असतोष और असुख की सीमा नहीं रही | चह किसी तरह यह समझना नहीं चाइती कि उसके स्वामी मे उसे सन्तुष्ट रखने की क्षमता नही है । क्षमता नहों थी ते व्याह् क्यों किया था | ऊपर के खण्ड मे कीवल दो कमरे थे | एक कमरे मे सुन्दर और जानकी के सोने का स्थान था और दूसरे कमरे मे पार्वती रहती थी । जानकी सद्दा रुआसी होकर मिनमिवाकर कहा करती थी--इस गन्दे और छेटे घर में में रह नहीं सकती । सुन्दर मिथ्या आश्वास देकर कहता था--में और एक घर की वल्लाश मे हूँ, शीघ्र ही घर बदलूगा ।
जानकी कहती थी क्यों, यह पास ही तो ! बड़ा मकान है। जानकी पहले जब अपने मकान में थी तब उसने परोसिनों से बात करना कैसा, कभी उनकी और आँख उठाकर नहीं देखा था । सुन्दरत्ताल की वत्तेमान दुर्देशा से व्यथित होकर परोस की दे औरते' एक दिन जानकी के पास खाना फूसि प्रकट करने आई | जानकी अपने कमरे के किवाड़ बन्द किये भीतर बैठ रही, किसी तरह कमरा नही खुला । उनके चले जाने पर उसने रो-घोकर भूखे-प्यासे रहकर आकाश सिर पर उठा लिया । इसी तरह के उत्पात प्राय: होने लगे | अन्त को जानकी का शरीर ऐसा असुख ही । गया कि वह मृत्यु के मुख के पास पहुँच गई | यहाँ तक कि गर्भपात होने का ढड़ ही आया। सुन्दर ने पावती के देने हाथ पकठकर कहा--तुम जानकी की बचाओ । पावती दिन-रात जी-तोड़ परिश्रम करके जानकी की सेवा ओर देखरेख करने लगी ।
ज़रा भी त्रुटि होने पर जानकी पार्वती का दुर्वेंचन कहती थी । किन्तु पार्वती कुछ उत्तर देकर चुपचाप सब सुन लेती थो । ' जानकी किसी तरह खावूदाना खाना न चाहती थी, पात्र समेत उठाकर उसे फेंक देती थी । ज्वर के समय इमली की चटनी खाने के लिए जिद करती । अगर पार्वती उसे मेरी बहन, मेरी प्यारी बहन, कहकर बच्चो की तरह बहलाने की चेष्टा करती थी | किन्तु हज़ार चेष्टा करने पर भी जानकी की जान नहीं बची । दुनिया के दुल्लार, आदर को लेकर परम असुख और असंतोष की अवस्था में बालिका के क्षुद्र असम्पूर्ग व्यथे जीवन की ज्योति एक दिन बिना तेल के दीपक की तरह बुझ गई ।
सुन्दर को पहले ते। हृदय मे एक बड़ा भारी आघात प्राप्त हुआ । किन्तु वेसे ही उसने विचार कर देखा ते जान पड़ा कि उसका एक बड़ा कड़ा कष्टदायक बन्धन कट गया। शोक से भी अकस्मात् उसे एक प्रकार की मुक्ति के आनन्द का अनुभव हुआ।
अकस्मात् उसे जान पड़ा कि इतने दिनों से उसकी छाती के ऊपर एक भारी पत्थर दबाया हुआ था। यों चेतन्य आते ही उसे अपना जीवन बहुत ही हल्का जान पड़ा ओर उससे एक प्रकार का आराम सिल्ला । वसन्ती लाल की तरह यह जो कोमल जीवन- पाश टूट गया वही क्या उस्रकी प्यारी दुल्लारा जानकी थी । सुन्दर ने विचार कर देखा,नही , वह उसके गल्ले की फॉसी थी । और उसकी सदा की साथिन पार्वती ? सुन्दर ने देखा कि वही उच्तको घर-गिरिस्ती पर अधिकार जमाये हुए, उसके जीवन के सारे सुख-दुःखें की स्मृति के मन्दिर के भीतर विराज- मान है।
किन्तु तो भी उसके और सुन्दर के बीच मे एक विच्छेद की रेखा खिच गई है। ठीक जेसे एक छोटी सी उज्ज्वल सुन्दर निष्ठुर छुरी आकर एक हत्पिण्ड के दक्षिण और वाम आश के बोच में एक वेदना-पूर्ण विद्वारण-रेखा खींच गई है । उस दिन अ्रधिक रात बीतने पर जब सारा शहर नींद में खर्रांटे हो रहा था, सुन्दरलाल धीरे-घीरे पार्वती के सोने के कमरे में गया । चुपचाप पुराने नियम के अनुसार पुराने पलंग के दखिन सो रहा । किन्तु उसे अपने पुराने अधिकार के भीतर चोर की तरह चुपके-चुपके प्रवेश करना पडा । पार्वती ने कुछ कहा और न सुन्दर ने ही | दोनों आदमी जैसे पहले पास ही पास सोते थे वैसे ही आज भी सोये । किन्तु दोनो के बीच में एक मत बालिका काआत्मा मानों उपस्थित रहा। उसे कोई नहीं लांघ सका