खजूर: के पेड़े की छाया से, किस गृहहीन अरब देश की स्मेंणी-के-मर्भ से उत्पन्न हुई थों ! तुमकी कान लुटेरा, वस्त्र से पुष्पक की तरह, माता की गोद से अलग करके बिजली को तरह भागने वाले घोड़े पर चढ़ाकर मरुसूसि किस राजपुरी के दासियों के बाजार से बेचने के लिए ले गया था |! वहाँ किस वादशाह के नौकर ने तुम्हारे नवविकसित सलज्ज यौवन की शोभा निरखकर अशर्फियों के मोल तुमको ख़रीदा था और उपह्दार के रूप में, पालकी पर चढ़ाकर, अपने मालिक की सेवा में पहुँचा आया था |
वहाँ का--बादशाह के अन्त:पुर का--क्या और केसा इतिहास है। वहा सारड्री के सद्जीत, घुँधरुओ की कनकार, शीराज़ी शराब के खाद और कटाक्षो की चाट के सिवा कुछ न होगा । एक ओर असीम ऐश्वये ओर दूसरी ओर अ्रनन्त कारागार-बास रहा होगा । दोनों ओर दे बॉदियाँ खड़ी जडाऊ प्राभूषणों की बिजली चमका-चमकाकर चर डुल्लाती होंगी, खुद शाइनशाह बादशाह तुम्हे मनाने के लिए तुम्हारे मणि-मुक्तामण्डित कामल चरणों पर बार-बार सिर रखते द्वोंगे । बाहर के द्वार पर यम॒दूत के समान हबशी, देवदूत का सा पहनावा पहने, खुली तल्नवार हाथ में लिये पहरा दिया करता दह्वोगा । इसके बाद उस भीषण-उज्ज्वल ऐश्वर्य के प्रवाह मे बहते-बहते तुम, मरुभूमि की पुष्पम हाजरी, किस निष्ठुर मृत्यु के मुख में चल्ली गई अथवा किस निष्ठुरतर महिमा-तट पर फेक दी गई है। ?
इसी समय एकाएक वही पगल्ला मेहर अल्ली चिल्ला'डठा-- अलग रहो, हटे रहा, सब भफ्रूठ है, सब झूठ है। अ्ॉख खेाल- कर देखा, सबेरा हो गया था । चपरासी ने सबेरे की डाक लाकर मुझको दी ओर महा- राज ने आकर पूछा--आज क्या खाने की बनेगा ९ मेने अपने मन मे कहा-बवस, अब हंस घर में नहीं रहूँगा । उसी दिन अपना असबाव उठाकर आफिस के घर में ही जाकर डेरा डालना । आफिस का बुड़ढा नौकर अमीर खॉ मुझे देखकर कुछ मुसकाया । में उसके मुसकराने से खीकऋ- कर उसे कुछ उत्तर न देकर काम करने चला गया | जेसे-जेसे सायड्राल निकट श्राने लगा वैसे ही में अन्य- मनस्क होने जया । जान पड़ने लगा, माने इस समय कहो जाना है। रुइ के महसूज् का हिसाब जॉचने का कास बहुत ही अनावश्यक जान पड़ने लगा--निज्ञाम की निज्ञामत भी मुझे कुछ बड़ी बात न जान पड़ी । जो कुछ वत्तमान है, जो कुछ मेरे चारो ओर चलता-फिरता है, काम करता है वह सब मुझे अत्यन्त दीन, अथेहीन तुच्छ जान पडने गा । में कलम फेककर, बड़ा रजिस्टर धम से क्नन्द करक) उसी समय टमटस पर चढकर वहा से चत्व दिया। देखा, टमटस ठीक गाघूलि केस मय आप ही उस पत्थर के महल्त के द्वार के पास आकर रुक गईं। मैं जल्दी से सीढ़ियाँ चढ़कर यथा- स्थान पहुँच गया |,
आज घर भर मंत्रोचार छाया हुआ था। पश्चाताप से मेरा हृदय परिपूर्ण है ! उठा | किन्तु किसका वह अपना पश्चात्ताप जताता, किसका मनाता और किससे माफ़ी मॉगता ? घर भर मे सन्नाटा छाया हुआ था। में शून्य हृदय लिये उस अंधेरे धर से इधर से उधर घूमने लगा । जी चाहने लगा कि कोई बाजा बजाकऋर किसी के उद श से इस आशय का गान गाऊेँ कि हे अप्नि, जिस पतड़ ने तुमकी छोड़कर भागने की चेष्टा की थी वह फिर मरने केस लिए आया है | अबकी उसे चज्ञमा करो उस्रके दोनों पर जनल्ना डालोा--उसे भस्म कर दे ! एका एक ऊपर से मेरे सस्तक पर किसी की आँखें के ऑसुओ। की समान दे। बूद आ कर गिर पड़े । उस दिन अराती पहाड की चेटी पर खूच बादल घिरे हुए थे | अँधेरा जड़ल और शुस्ता का स्याह्दी केस मान काले रड्ड का दिखाई पड़ रहा पानी देसनों, किसी भीषण प्रतीक्षा मे स्थिर थे। सहसा जल , स्थ्त और आकाश जेसे कॉप उठे और अकस्मात् आधी, जजीर तुड़ाकर भागे हुए सिड़ी की तरह, पथहीन दूरवत्तों जंगल के भीतर से आत्तनाद का चीत्कार करती हुई उसी मकान की ओ र आई | उस महल के सूने कमरे के किवाड़े भडाभ्रड होने लगे । मानों कोई छात्री पीट-पीटकर विज्ञाप कर रहा हो | आज सेरे भी नोकर दफ्तरवाले मकान ही मे थे। इस महल मे लैम्प श्र उसकी जलानेवाला कोई न था । उस बादलसे घिरी हुई अमावस की रात का कसौटी के पत्थर भी काले घने अन्धकार के बीच में स्पष्ट अनुभव करने लगा कि-एक' रमणी पत्नेंग के नीचे गलीचे पर पट पडी हुई अपने बालों को नाच रही है, उसके मस्तक से रुधिर बह रहा है। कभी वह शुष्क तीत्र अट्टद्यास करके हँस उठती है और कभी फ़ूल-फ़्लकर राती है---कोसती चेतज्ली फाड़कर दोनों हाथें से छाती पीटती है । खुले हुए किवाड़ों से हवा के फ्लाके भीतर आ रहे हैं और पानी की बैछारे भीतर आ-आकर उसके शरीर को भिगे रही हैं ।
रात भर ऑधो-पानी नहीं रुका और वह आवेश-राज्य का रोना-विलखना भी बन्द नहीं हुआ | में निष्फल्न पश्चात्ताप के साथ अंधेरे मे एक कमरे से दूसरे कमरे से धूमने लगा। कहो भी कोई न था। किसे खमसाता और मनाता ? यह प्रचण्ड » झरूठना किसका है ? यह अशान्त आक्षेप कहो से उठ रहा है इसी बीच से पगला मेहर अली चिल्ला उठा--अल्लग रहे, हटे रहा, सब है, सब है ! मैने देखा, लड़का है । आया है और मेहर अली इस धोर दुदिन से भी, अपने नियम के अनुसार, उस सहल के चारो ओर घूमकर वही सदा की सदा? लगा रहा है। एकाएक मुझे जान पड़ा, शायद मेहर अलो भी किसी समय मेरी ही ७ परह इस महत्त के भीतर रह चुका है, अब पागल होकर वाहर निकल्लकर भी इस' पाषाण राक्षस के माह से आकृष्ट होकर नित्य सबेरे इसकी प्रदक्षिणा करने आता है ।