इसी कारण कभी-कभी दोपहर की सूनी कंठरी में पड़ें- पड़ वह चिल्ला उठती थी और शाम को दीपक के प्रकाश में अपनी परछाही देखकर उसकी रोगटे खड़े हो आते थे ।
उसके इस भय का देखकर घर के लोगों के मन मे भी एक प्रकार का भय उत्पन्न हो गया था। नोकर-चाकर ओर योगमाया को भी जहाँ-तहाँ भूत देख पडने लगा |
एक दिन ऐसा हुआ कि कादम्बिनी आधी रात की अपनी कोाठरी से उठकर रोता हुई एकदम योगमाया के कमर के द्वार पर आकर उपस्थित हुई ओर बाोली--वहन, , बहन. में. तुम्हारे पेरा पडतो हूँ, अकेले मुझसे रद्दा नहीं जाता |
योगमाया का जेसे डर लगा वैसे ही क्रोध भी चढ़ आया। इच्छा हुई कि उसी घड़ो कादम्विनी का अपने घर से निकाल द्। किन्तु दयातु श्रापति ने बहुत समका-बुक्काकर उसे ठण्ढा किया ओर अपने कमर के पास की कोठरी में कादन्विनीं के रहने का प्रबन्ध कर दिया ।
दूसरे दिन असमय में ही श्रोपति का भीतर बुलाआए हुआ। यागमाया ने अकस्मात् उन्हे बकना शुरू कर दिया।
कहा--तुम केसे आदमी है। ! एक औरत अपनी सुसराल से निकलकर तुम्हारे घर मे आकर रही है, महीने भर से अधिक हुआ, संगर तब भी घह जाने का नाम नहीं लेती तुम उससे ज़रा भी आपत्ति नहों करते। तुम्हारे मन में कया है?मर्द लोग ऐसे ही होते हैं !
सचमुच साधारण स्त्री जाति के ऊपर मर्दों का एक प्रकार का बिना विचार का रक्तपात होता है ओर उसके लिए थ्रियों ही उन्हें अधिक अपराधी प्रमाणित करती हैं। सहायदीन अथच सुन्दरी कादमिबिनी के प्रति श्रोपति की दया उचित मात्रा से कुछ अधिक थो; इसके विरुद्ध वे योगमाया के सिर पर हाथ रखकर कसम खाने के लिए तैयार थे। वथापि उनके व्यवहार से उनके कहने का कोई प्रमाण नहीं प्राप्त होता था !
श्रीपति समभते थे कि सुसराल के लोग अवश्य ही इस पुत्रहीन अबल्ला के ऊपर किसी तरह का अत्याचार करते थे | उस अत्याचार का न सह सकने के कारण ही कादम्बिनी ने मेरे घर में आकर आश्रय लिया है। इसके मॉ-चाप कोई नहीं है। तब में भी इसे किस तरह त्याग दूँ | इप्ती कारण अब तक उन्होने कादम्ब्रिनी की सुसराल में न ता ख़बर भेजी ओर न कुछ पता ल्गाया। कादम्विनी से भी यह अग्रोतिकर प्रभ॒ करके उसे व्यथा पहुँचाने के लिए उनकी प्रवृत्ति नहीं होती थो ।
इसी समय उनकी झ्ली अनेक प्रकार से चोट पहुँचाकर सनकी कत्तेव्य-बुद्धि को सजग करने की चेष्टा करने लगी । श्रोपति इस बात का अच्छी तरह ससभते थे कि अपने घर की शान्ति बनाये रखने के लिए कादम्बिनी की सुसराल सें ख़बर देना परम आवश्यक है। अश्रन्त को उन्होंने स्थिर किया कि एकाएक चिट्ठों लिखने से उसका अच्छा फल नहीं भी' हो सकता है ।
अवएव रानीहाघाट में खुद जाकर अनुसन्धान करके कत्तंव्य निश्चित करना ठीक होगा | उधर श्रोपति रानीहाट गये और इधर योगमाया ने आऋर कादम्बिनी से कहा--सखी, अब यहाँ तुम्हारा रहना अच्छा नहीं । लोग कया कहेंगे ! कादम्बिनी ने गम्भीर भाव से योगमाया की ओर ठेखकर कदह्दा--लोगो के साथ मेरा क्या सम्बन्ध है ? यह उत्तर सुनकर योगमाया सन्नाटे में आ गई । कुछ खीभफकर उसने कहा--तुम्हारा सम्बन्ध न हो, लेकिन हमारा ते हे। हम पराये घर की बहू-वेटी का किस तरह क्या कहकर अपने घर से रख सकती हैं
कादम्बिनी ने कहा--मेरी सुसराल अब कहदों है ? योगमाया ने --बाप रे ! तू कद्ती क्या है ? कादम्बिनी ने धीरे-धीरे कद्दा--में क्या तुम्र लोगों की कोई हूँ ? में क्या इस पृथ्वी पर का जीव हूँ ? तुम लोग हँसते हो, रोते हा, प्यार करते हो, सव अपने-अपने लोगें के साथ सुख-दुःख भागते हो, ओर,मैं केवल तुम लोगों की ताकती रहती हूँ । तुम मनुष्य हे! मर में छाया हूँ )! कुछ मेरी समझ में नहों श्राता कि भगवान ने झुभे तुम्हारे इस संसार फे बीच में क्यों रखा हैं । इस वरह याोगमाया की ओर देखकर कादम्बिनी ने ये , बाते" कही कि योगमाया ने ओर ही कुछ खमझा ।