'अल्लह हू अकबर' ये आवाज थी मौत की। उनकी यह आवाज लगती फिर न जाने कहाँ से हजारों लोग चर्च (जिसे उन्होंने अब अपनी मस्जिद बना लिया था) से निकलने लगते। सभी का एक ही मकसद था हमारी कोम को खत्म कर देना। पर हमें हर हाल में अपनी नस्ल को बचाना था। वो चुन-चुन कर काफिरो को मार रहे थे। पूरा इस्ताम्बुल शहर खून से भरा था। मानों खून की बरसात हुई हो। हर तरफ लाल रंग देखने को मिलता था। पूरे शहर में इतनी लाशें पड़ी थी कि उनको खाने के लिए जानवर (मुर्दाखोर) भी कम पड़ रहे थे।
हम तीन लोग जंगल में छुपकर अपनी जान बचा रहे थे। में किशोर उम्र का था। जंगल के भेड़ियों से मुझे बहुत डर लगता था। पर इस समय यह असली भेड़िये उन शैतानी भेड़ियों से बहुत अच्छे लग रहे थे। मुझे हर वक्त डर लगा रहता, कहीं कोई शैतानी भेड़िया हमें ढूंढकर मार न दे। मेरे पूरे परिवार और जान पहचान के लोगों को उन उन शैतानों ने मार दिया था। हमारे सैनिक उनसे पूरी ताकत से लड़े थे। फिर भी वो हार गए और उन्होंने आत्मसमर्पण कर दिया पर यह हार हमारी जिंदगी की हार थी, हमारी जिंदगियों का अंत। उनके सैनिक हर उस इंसान को चुन-चुन कर मार रहे थे जो उनकी बात मानने को तैयार नहीं था। हम कुर्बानी देने को तैयार थे पर अपने मसीह को धोखा देने को कतई नहीं।