अरे दबलू ! शेयादान तो तुमको करना पड़ेगा नहीं तो तुम्हारे पिता को मोक्ष कैसे मिलेगा और ये सब तो हमारे पोथी-पुराणों की बातें हैं। तुम अगर ये नहीं करोगे तो तुम्हारे पिता की आत्मा इसी लोक में भटकती रहेगी। दबलू को समझा बुझाकर पंडित जी उसे सामान की सूची (लिस्ट) पकड़ा कर जा चुके थे। दबलू सोच रहा था कि सूची में जो सामान है उसे खरीदने में तो लाख-डेढ़ लाख खर्चा आ जायेगा पर क्या करें पिता का शेयादान तो करना ही है।
दबलू के घर आने वाले अधिकांश लोग तेरहवीं की दावत की बात करते। दबलू उनसे पूछता इतने सारे लोगों को खाना खिलाने का खर्चा वो कैसे उठायेगा। वह लोग उसे समझाते यह तो अपनी परम्परा चली आ रही है, क्या वह सदियों से चली आ रही परम्परा को पैसों के लिए तोड़ देगा। तेरहवीं में खाना खाने के लिए लगभग पूरा गाँव आया था। जिन्हें बुलाया था वो भी, जिन्हें नहीं बुलाया था वो भी।
दबलू पर अपनी कोई जमीन तो थी नहीं, न ही इतनी जमा पूँजी की वो तेरहवीं का कर्जा चुका सकता। इसी कर्ज की चिंता में वो डूबा रहता। एक दिन उसकी मुलाकात एक पादरी से हुई। उसने अपनी चिंता उसे बताई। दबलू ने पैसों के बदले ईसाई धर्म को अपना लिया। अब पूरा गाँव व बिरादरी दबलू को कोस रहे थे कि उसने अपनी बिरादरी से गद्दारी की है।