शायद..?
क्यों? मैं बयां करना उचित नहीं समझता था!
जो गोपाल अपने बच्चों से दरपेश आता था। खैर.. मैं उन खोए हुए हुए यादों को, बिखरे हुए सपनों को, फिर से समेटकर मूर्त रूप देना नहीं चाहता था। कि बच्चों को बुरा एहसास हो।
मगर कहानीकार होने के नाते कुछ लिखूं! सोचता फिर कलम रुक जाती! जब उसे बुक बनाकर प्रकाशित करूंगा- भाभी के हाथों लगेगी ओ पढेगी तो भाभी को शायद बुरा लगे।
जो खुशियां न मिली उन झरोखों में खड़े होकर नजारा कराने का मेरा कोई इरादा नहीं था। मैं तो बस इस कहानी के दिल्ली की गंगाराम की कारस्तानी ,उससे भी ज्यादा खूबसूरत चिकने चेहरे वाले ,और सब कुछ ठीक हो जाएगा की तसल्ली देकर जेब काटने वाले , जेब काटने वालेडॉक्टरों की कहानी बयान करना यहां उचित समझ कर मैं लिखने बैठा हूं।
अगर गोपाल सही सलामत लौटता तो मुझे कुछ लिखने का मूड भी नहीं था जब जमाई साहब-( अंजलि )बड़ी बेटी के पति आए थे, तो मुझसे एक सवाल किया था- क्या आप इसे कहानी में तबदिल करना चाहेंगे?
मैंने जवाब दिया था ।
है तो बहुत कुछ अस्पताल के बारे में लिखने को। क्योंकि जब प्रेस में रिपोर्टर हुआ करता था। तभी एक साल पूरा का पूरा एक साल सिर्फ स्वास्थ्य और अस्पताल संबंधी रिपोर्ट लिखता था। डॉक्टरों की कारस्तानी मेडिकल रिप्रेजेंटेटिव और डॉक्टर के बीच की दवा बेचने का फंडा। और अस्पताल में होने वाले कांड जिसे हम मेडिकल लाइन के एक्सक्यूज के रूप में ले लेते हैं ।
हम नजरअंदाज कर देते हैं। कुछ तो इसलिए कि हम डॉक्टर को भगवान का एजेंट मानते हैं। हम यह सोचने लगते हैं कि डॉक्टर चाहे तो इंसानी जिंदगी को बचा सकता है।
और डॉक्टर करता है कुछ।
और एक्स यूज़ के लिए कहता है- भगवान भी कुछ चीज है! उसके हाथ में है सब कुछ। हम सब्जेक्ट नहीं है -करता नहीं है कारक है। आबजेक्ट है। व्याकरण की भाषा में कहें तो।
सानू भी एक दिन मुझसे पूछती रही यहां भी कुछ आपको नजर आता है? एज ए रिपोर्टर?
मैंने कहा था- हां! सब कुछ जो तुम्हें नजर नहीं आता!
मेरा रिपोर्टर दिमाग; कहानीकार दिमाग; सब कुछ देख लेता है। सफेदपोश क्राइम को ।सफेद चोंगे के अंदर छिपा हुआ भेड़िया दिखता है- मुझे!
मैं यहां न रिपोर्टिंग करना चाहता हूं- नहीं कहानी! यहां बस- तुम, भाभी, तुम्हारा मैं काका!
बस तुमसे अजीब सा लगांव है। इतनी दूर रहने के बाद भी प्यार है। तुम्हें जब देखता हूं, तो मैं सारी दुनिया भूल जाता हूं। सच में । गोपाल ने दो हीरे को जन्म दिया। तुम और विवेक। भाभी ने कितने अच्छे संस्कार दिया है। जब तुम दोनों को देखता हूं। तो मुझे गर्व सा होता है। तुम रियल टाइम हीरो हो। तुम गोपाल की जी ने की आश हो।
भाभी की बातों में तवज्जो देता -मैं सोच रहा था। कि आज डॉक्टर से मुलाकात करना ही करना है।
मैं और विवेक कई देर तक डॉक्टर सुधीर का इंतजार करते रहे। जब डॉक्टर राउंड-अप में आया तो मैं डॉक्टर सुधीर के पास खड़ा था।
डॉक्टर दो -दो आदमी आप अंदर नहीं रह सकते, कृपया एक आदमी बाहर जाइए। यही बात वार्ड के बाहर खड़ा गार्ड भी कहता रहा था।
मै बोला था -कि मुझे डॉक्टर सुधीर से मरीज के सिलसिले में कुछ जानकारी हासिल करनी है।
डॉक्टर सुधीर ने मुझे तसल्ली देता हुआ कहा- कि आप बाहर चलो! हम बाहर बात कर लेंगे। कुछ देर आप इंतजार करो। मैं जबरन वार्ड के बाहर गेट, से के बाहर आया ।और लिफ्ट के पास रुका रहा और इंतजार करता रहा।
डॉक्टर सुधीर और 2 जूनियर डॉक्टर राउंडअप करके करीब आध घंटे में बाहर आए। मैं बाहर ही खड़ा था। गंगाराम में बाहर खड़े होने की भी जगह नहीं है। सीट की बात तो अलग है ।मरीज को डॉक्टर खुद एक सिक्रेट स्टोरी बनाकर पेश करता है। जो कोई समझ ना पाए।
या कोई मीडिया चक्कर नहीं लगा था। यहां कोई न्यूज़ चैनल वाले कभी नहीं दिखते। कि फलाने डॉक्टर ने फलाना सफेद पोस मर्डर किया। यह गंगाराम है! गंगाराम। यहां डॉक्टर को एक्सक्यूज है ।क्यों ?क्योंकि डॉक्टर कभी परफेक्ट नहीं होता। ठीक हुआ तो ठीक है। नहीं हुआ तो भगवान के हाथ में है। कह कर अपना पल्ला झाड़ा जाता है।
करीब पौने घंटे के इंतजार के बाद डॉक्टर सुधीर बी ब्लॉक वार्ड से बाहर निकला। उसे निकलते ही मैं उसके आगे खड़ा हुआ।
डॉक्टर सुधिर-आप!?
हां !मैं ..मैं मरीज का पराशर का भाई!
डॉक्टर सुधीर -दश दिन टाइम दीजिए बस। ठीक होंगे ।अपने पैर में चलकर जाएगें।
मैं- यही बात कहते हुए ऑपरेशन के भी एक महीने से ज्यादा गुजर गए। मरीज की हालत दिन-ब-दिन बदतर होती जा रही है। और तो और आपने कहा था कि पानी जो पेट में भर रहा था ऑपरेशन के बाद ठीक होगा। मगर, अभी ऑपरेशन के बाद भी हार हफ्ते पानी निकाला जा रहा है..क्यों ऐसा हो रहा है?
डॉक्टर सुधीर नई-नई पानी कम है ।पहले कितना निकलता था? हफ्ते में आठ लीटर अब दो लीटर ।वह भी लीवर की वजह से नहीं है। लिवर का ऑपरेशन सफल है।
कारण है पानी भरने का किडनी की वजह से। पेशाब की जो पहले ईनको दवा देनी पड़ती थी- वही चीज अब पानी बन के पेट में जमा हो रहा है। जब से विवेक पैदा हुआ था। तब से गोपाल को पेशाब करने में प्रॉब्लम होती थी। बड़ी जोर से पेशाब लगा हुआ है ।मगर उतरता न था। डॉक्टर नर्स ने सलाह दिया था कि वॉशरूम में जाओ तो नलके को खोल लेना, पानी गिरता देखकर तुम्हें पेशाब करने का इंटेंशन बनेगा।
कई बार ऐसा भी हुआ था कि पेशाब करने के लिए भी उसे दवा लेनी पड़ती थी।
अब डॉक्टर सुधीर को बहाना मिला था- कि यह वजह से तुम्हारे पेट में पानी जमा हो रहा है। मुझे उसकी बातें बचकानी और मरीज को बरगलाने वाली बातें लगी थी। मैंने विवेक को बोला हम जो डॉक्टर किडनी के और पेशाब के बारे में ट्रिट कर रहा है उसे जाकर बात करते हैं।
फर्स्ट फ्लोर में डॉक्टर मालिक का चेंबर बना हुआ था ।हमने उससे मिलने की ठानी। फिर कई देर के इंतजार के बाद डॉक्टर मलिक से मुलाकात हुई ।
डॉक्टर मालिक से मरीज के बारे में बताते हुए पूछा -डॉक्टर सुधीर बता रहे हैं -कि किडनी की वजह से या फिर पेशाब की थैली की वजह से पेट में पानी भर रहा है! क्या ऐसा ही है?
डॉक्टर मलिक ने जो किडनी स्पेशलिस्ट थे- उन्होंने हमें बताया। देखिए कितनी की वजह से पेट में पानी नहीं भर रहा है ।जो पिसाब है उसके लिए तो हमने नली लगा रखी है। पेशाब बाहर थैली में जमा हो रहा है ।फिर पेसाब पेट में जाने की वजह नहीं है। यह किस
लिए है यह सुधीर ही बता सकते हैं। आईएम स्योर पानी भरना किडनी की वजह से कदाचित नहीं है।
डॉक्टर सुधीर हमें गोल-गोल क्यों घुमा रहा था? ह्यूमन हेल्थ एंड एक्टिविटीज के बारे में साधारण इंसान को पता नहीं होता! तो आप गुमराह करेंगे ..? इसका अर्थ है.. कुछ गड़बड़ है ।ऑपरेशन गलत हुआ है। मेरे दिमाग में ही बात घूम रही थी। कुछ लोचा है। मैं जिस सुधीर डॉक्टर सुधीर को लिवर ट्रांसप्लांट स्पेशलिस्ट समझ रहा था।
अब मुझे उस पर संकाय होने लगी थी। मुझे ही नहीं गोपाल के परिवार भी इस बात का डाउट करने लगा था ।यही ठगी हुई है। कहीं गलत है ।भाभी के दिमाग में भी झटका सा होने लगा था।
कफ़ का निकलना रुक नहीं रहा था। पानी जमना पेट में बंद हो नहीं रहा था।
खांसी बरकरार थी ।खांसी का मतलब कफ़ का मतलब हर मिनट में कफ़।
मुंह के छाले ठीक होने का नाम नहीं ले रहे थे। लेटे-लेटे कमर के निचले हिस्से का खाल सड़ने लगा था। पांव बेकार हो गया था ।हाथ और मुंह और पाओअपनी इच्छा से हिला सकता था। करवट बदलना भी नामुमकिन सा हो गया था ।हम डॉक्टर पर भरोसा कर रहे थे ।
और डॉक्टर हमारी भरोसे को तोड़ रहा था। हमारे विश्वास पर कील ठोक दिया था। हम लड़खड़ा रहे थे। हमारी आंखों से चमक गायब हो गई थी।
जबकि, डॉक्टर को ऑपरेशन के बाद गोपाल ने असम से लाया हुआ चाय पत्ती और अंगोछा ससम्मान दिया था। पहनाया था।
मगर अब रौश ही रौश गिले ही गिले थे। शिकवा ही शिकवा था ।
क्योंकि ,डॉक्टर की कही गई बातों के मुताबिक ऑपरेशन के एक महीने के बाद आप अपने पैरों में चलकर जाओगे। अपने पैरों में चलना तो दूर आपने आप करवट भी नहीं लिया जा रहा था। मगर गोपाल के जीद पर फ्लैट पर लाने की विवेक ने मन बनाया था।
फ्लैट में गोपाल को लाना जोखिम से खाली नहीं था ।मगर लाना ही था। अभी स्थिति बहुत खराब सी हो गई थी ।किसी तरह उसे पकड़कर वॉशरूम तक ले जाना होता था। फिर वॉशरूम से बिस्तर तक ले जाना फिर कोमेड पर बिठाना। फिर उठाने के लिए जाना बच्चे परेशान थे।
मगर क्या करते ,शिकवा का कोई अर्थ नहीं था ।मौत से लड़ते पापा को देखकर सानू की आंखें नम हो जाती ।मगर वह पापा के सामने रो कर दिखाना नहीं चाहती थी। वह एक बहुत ही समझदार बच्ची थी -बेटी थी।
विवेक सानू का छोटा भाई था। मगर उसमें भी हिम्मत बरकरार थी। रात भर पापा की देखभाल करता ।और दिन भर कंपनी से आने वाले क्रेडिट के लिए अस्पताल से डॉक्टरों से तालमेल बिठाने के लिए इधर-उधर भागता। सानू सुबह से खाना चाय नाश्ता करती।
छोटे भाई को रिलीज देने के लिए बाहर एक बजे पापा के पास अस्पताल पहुंचती। फिर विवेक कुछ काम करके फ्लैट में लौट आता। फिर खाना खा कर सो जाता।
रात भर नींद तो आती नहीं थी। उसे अब जब पापा को फ्लैट में ले आए थे ।सभी फ्लैट में ही तैनात रहते। भाभी की हालत सुधार हो चुका था ।खुद खड़ी होकर खाना बनाती सबको खिलाती। फिर अपने करहाते हुए शौहर के पांव दबाने के लिए बिस्तर के छोर पर बैठ जाती ।फिर जब तक नहीं थकती पैर दबाती।
*******