गोपाल का अंत!
गोपाल का अंत ऐसा होगा सोचा न था। यूं सभी बीमारियों का जखीरा लिए ,लंबी-लंबी सांसे भरेगा। आंखों में पथराई आंसुओं में वह मुझ में यूं जी लेगा, सोचा ना था।
अगला दिन भी मर्म से भरा था।
भाभी जी रही थी ,मर रही थी ।
सानू कुछ सम्भली थी। विवेक लड़खड़ा रहा था।
मगर, अब गोपाल की मिट्टी को मटिया मेट करना था।
वह उसका सुपुत्र था ।सब कुछ उसे ही करना था।अस्पताल के हिसाब- किताब से लेकर संस्कार तक।
अस्पताल वालों ने लाश को पैक करके एयरपोर्ट तक पहुंचा दिया था 12-40 को अचानक जैसे हवाएं कैसी हो चली थी?
मैं गोपाल के कमरे में रह गया था।
अकेला एहसासों के लिए। गोपाल को लिए। बिस्तर के पास ही चेयर पर बैठा- मैं सोच रहा था ।
जिंदगी और मौत को एक ही तराजू में तौल रहा था ।मौत भारी था ।जिंदगी हल्की थी ।
एक बच्चे को कैसे खाना खिलाने के लिए कटोरा लिए बच्चे के पीछे- पीछे मां भागती रहती है। बच्चा हजार नखरे करता है। मगर मां जानती है। उसके नखरे से ही उसे प्यार है। बच्चा नखरा ना करे तो मां का उस पर प्यार ना आए।
ऐसा ही था ।
मौत का जिंदगी के पीछे भागने की प्रक्रिया।
मौत एक रोज पकड़ कर ले ही जाती है।
हर किसी के जिंदगी को जीने का जो वक्त होता है- आदमी समझ नहीं पाता ,कि उसके पास कितना वक्त है।
बस लालसा और आश में- जीना भूल जाता है। सब कुछ करता है -मगर जीना भूल जाता है।
जिंदगी के सफर में ही जिंदगी का मजा लीजिए। वर्ना.. वर्ना जिंदगी हाथसे फिसल जाएगी ।
यही सोचते हुए कि- अब यह करना है। अब वह करना है।
अभिलाषा कभी खत्म नहीं होती। मौत में झूलता हुआ इंसान भी -यही सोचता है ,कि 2,4 सांसें और ले लूं।
कुछ और कर लूं। मगर वक्त गिनती के होते हैं ।गिनने से पहले ही खत्म हो जाता है।
-समाप्त-